Saturday, August 27, 2016

शुक्लागंज के पथ पर - "बेवकूफी का सौंदर्य" का मित्रार्पण - सनसनी खेज किन्तु सत्य कथा

निराला के ज़िले में निराला की तर्ज़ पर निराला से क्षमा याचना सहित 
---------------------------------------------------------------------------

तब प्रकट हुए शुकुल   शुक्लागंज  के पथ पर
सड़क भर के कुचलते  हुए गिट्टी पत्थर

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले खड़े हुए स्‍वीकार;
गेहुंआ तन, कुछ  बँधा , कुछ जा चुका यौवन,
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,
गुरू पुस्तकें  हाथ,

करते  बार-बार मुझ पर व्यंग प्रहार
उसी प्रकार 
जैसे किसी  बीमा एजेंट के सामने कस्टमर ना हो तैयार 
सामने तरु - मालिका, अस्पताल अट्टालिका, प्राकार ।
जा चुकी थी धूप;
बरसात  के दिन
शाम   का टपटपाता  रुप;
उठी उमसाती  हुई पवन ,
कीचड युक्त सड़क जो अनादि काल से न पाई थी बन ,
अब  बातों में व्यंग के साथ बकैती छा गई,
प्राय: समाप्त हो रहा था रात्रि का पहला प्रहर :
और वह  फिर भी खड़े रहे सड़क भर के कुचलते  हुए गिट्टी पत्थर 
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस अस्पताल भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो तर माल  खा दोपहर नींद सोई  नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी टंकार
एक क्षण के बाद वह लेकर ७ प्रतियां  सुघर,
ढुलक मेरे माथे से गिरे सीकर,
लीन होते खीसें - निपोरण कर्म में फिर ज्‍यों कहा
शुक्लागंज की सड़क पर कुचलते हुए पत्थर -
"ले जाओ ये सारी प्रतियां घर पर "
-------------------------------------------
----------- ० ---------------
इस हादसे के बाद हम शुक्लागंज, ज़िला उन्नाव , के राजपथ पर सरे आम अनूप शुकुल की "बेवकूफी का सौन्दर्य" की ७ प्रतियां  खरीद कर विदा हुए - अपनी समझ में सस्ते में छूटते हुए - यह जान कर  भी कि सारे लेख हम पहले ही फेसबुक पर पढ़ चुके हैं और यहां तक कि उन पर टिपिया भी चुके हैं  और यह भी  कि दिमाग का बर्बाद-ए -गुलिस्तां करने  के लिए एक ही प्रति काफी है  और तिस पर भी जब अगली बार शुकुल महाराज मिलेंगे तो मेरी सारी प्रतियां पलटेंगे और कहेंगे कि इस ६ नम्बर वाली प्रति में कोई निशान नहीं लगा है , इसको खोले नहीं हो क्या  ।

हमें पुस्तक समर्पित करते हुए शुकुल की आंखों में हमने वह भाव देखे जो हर लेखक की शातिर निगाहों में आते हैं जब वह हस्ताक्षर करता है - कुछ आशीष या हमें अच्छा लिखते रहने के आशीर्वाद  देने के भाव जो हमने अपने निजी शातिरपने से पहले ही ताड़ लिए और आँखों से ही हतोत्साहित किया उनको इस मार्ग में और बढ़ने से - लेकिन शुकुल तो शुकुल ठहरे , शुभकामनाएं फिर भी चिपका गए



यह तो सत्यनारायण कथा जैसी कथा हो गई जिसमें अंत तक पता ही नहीं चलता कि आखिर कथा क्या थी यानी पुस्तक कैसी थी - लेकिन अभी इतने से ही नहीं उबर पाए हैं सो पुस्तक के बारे में बाद में ......

यह रही अच्छी वाली फोटो दुबारा मित्रार्पण की । पहले की शाम वाली फोटो के बारे में (जो ऊपर लगाईं है) जब हमने सुना कि हमारी फोटो शुकुल से भी खराब आई है  तो हमने खुरपेंच की  अपनी सुधारने और शुकुल की  बिगाड़ने की - शुकुल की खैर हम और क्या बिगाड़ पाते , अपनी भी न सुधार पाए - तो ये रही थोड़ा और चौकस दिन के समय वाली - घटना स्थल  वही , पात्र वही 

Thursday, August 25, 2016

अथ श्री व्यापकं कथा


व्यापकं व्यापमं 
कांग्रेसं भाजपं 

सत्तर लक्ष लाभान्वितं 
रहे कई आशान्वितं

पंद्रह सौ जेल शोभितं
आठ-नौ सौ पलायितं

पैंतालीस ना जीवितं
सीटी फूंकक शंकितं


बाबू गौर सुभाषितं 
यदि आगत निश्चित गतं 

एल के शर्मा जेलितं
महामहिम उद्वेलितं

हज़ार अयोग्य प्रमाणितं
मेडिकल से निष्कासितं

जनता पूरी शंकितं
उमा भी अति आतंकितं

वांट्स टु नो ये नेशनं
चीखें रविशं अर्नबं

घटनाक्रम कुछ शापितं
व्यापम रक्षति रक्षितं

बात तो निकली निश्चितं
यद्यपि अंत अनिश्चितं


(७  जुलाई २०१५ को फेसबुक पर प्रकाशित)

Tuesday, August 23, 2016

चील गिद्ध कौओं का इतना ही याराना है

चील गिद्ध कौओं का इतना ही याराना है 
एक ज़िंदा कौम को बस लाश सा बनाना है 



लाश बनते तक ज़रा माहौल भी बनाना है 
चिल्ल-पों कांव-कांव नारा लगाना है 



मरते हुए को और ये एहसान भी जताना है 
कि इस तरह से उनको आज़ाद ही कराना है

इक दूसरे को तब तलक धीरे से कुहनियाना है
और साथ साथ आँखों में चुपके से मुस्कियाना है

सियार भेड़ियों को भी इस खेल में मिलाना है
और भोंपुओं के बीच भी , लोथड़ा गिराना है

आप ना मायूस हों, ये यूं ही आना जाना है
शुक्रवार है आपको वीकेंड भी मनाना है


तो मनाते हैं वीकेंड किशोर कुमार के साथ -----

- फेसबुक पर प्रकाशित (४ मार्च २०१६)

(सन्दर्भ - JNU प्रकरण में राष्ट्रीयता की खिल्ली उड़ाने की हद तक पहुँच जाने वाले प्रगतिशीलों के लिए)

केजरि - कथा

केजरि कथा
दिल्ली व्यथा
जो भी हुआ
होना न था
मोदी का डर
आठों पहर
आलोचना
लें अन्यथा
ट्वीटें करें
कुंठा हरें
बस ना करें
जो काम था
गाली बकें
पर ना थकें
स्तर गिरा
है सर्वथा
अब क्या करें
ये दिन फिरें
दिल्ली यथा
राजा तथा
(लिखते लिखते फील हुआ कि इसको येशुदास के गीत 'माना हो तुम ' की धुन पर गाया जा सकता है, गायें , कोई रोक टोक नहीं है )
- फेसबुक पर प्रकाशित (२७ जुलाई २०१६)