Wednesday, October 01, 2008

किसी के उकसाने पर ब्लागियाने की ज़रूरत क्या थी?

शुकुल को समर्पित -
बिन छन्द, बिन ताल, कुछ चिल्लर चिन्तन
:-१८ अप्रैल २००६ को प्रस्फुटित

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किसी के उकसाने पर ब्लागियाने की ज़रूरत क्या थी
काम अपना छोड़ के टिपियाने की ज़रूरत क्या थी

माना हमारे साथ बनती नहीं तुम्हारी
पर किसी और के संग खिलखिलाने की ज़रूरत क्या थी

अब जैसा भी है हमने यहाँ पे लिख दिया
पर इसपे भी ताली बजाने की ज़रूरत क्या थी

माना कि दुनियावी भीड़ में हम भी हैं यूँ खड़े
पर हमको भीड़ में है कोई जताने की ज़रूरत क्या थी

यूँ दिखते हो बेखबर और हमसे अलग अलग
पर राह देखने को खिड़की पे जाने की ज़रूरत क्या थी

बाहर हो बंद बोलती और फूक सरकती
तो घर में झूठी शान दिखाने की ज़रूरत क्या थी

भागते भूत की लंगोटी भली सुना
पर अदृश्य भूत को लंगोटी लगाने की ज़रूरत क्या थी

रिक्शेवाले की अठन्नी मार के हो खुश
पर मंदिर में रुपैया चढ़ाने की ज़रूरत क्या थी

कहते हो जाओगे वापस वतन इक दिन
फिर ग्रीन कार्ड बनवाने की ज़रूरत क्या थी

पेट्रोल के दामों को तुम रोते रहोगे यूँ
फिर दहेज में गाड़ी लाने की ज़रूरत क्या थी

खुद तो रहे कुलच्छनी निकम्मे जहान के
सुंदर सुशील का इश्तिहार छपाने की ज़रूरत क्या थी

भ्रष्ट नेताओं पे आक्रोश है बहुत
तो घूस दे के काम निकलवाने की ज़रूरत क्या थी

जब ब्लाग में पड़े हैं सब सूरमा बड़े
ऐसे में ठलुअई दिखलाने की ज़रूरत क्या थी?