Sunday, May 21, 2017

व्यंग की जुगलबंदी - बिना शीर्षक


बिना बात की बात है , बिना काम का काम
बिना सीरसक लेख है, बिन कौड़ी या दाम

नाम वाम के चक्कर में बड़ी घटनाएं या बड़े  लोग पड़ते तो कभी भी  नहीं थे | सेव ससुरा जाने कब से पेड़ से टपकता रहा , मकान भी  गिरते रहे , ऊपर उछाली गई गेंद वापस गिरती रही , आदमी गिरता रहा , तो क्या ये न्यूटन की प्रतीक्षा करते रहते कि पहले हमारे गिरने को नाम दो गुरुत्वाकर्षण का , तभी गिरेंगे , नहीं तो अपनी जगह पर हम धरने पर बैठे रहेंगे |  ना - ये सब गिरते रहे |


वह तो कहो न्यूटन नारियल के पेड़ के नीचे नहीं बैठा था , नहीं तो शायद सौ - डेढ़ सौ साल और निकल जाते इस गुरुत्व-फुरूत्व  को नाम देने में | कितने वीर बालक इस चक्कर में ज़्यादा पास हो गए होते  |  


कोई कवि , जो विज्ञान विषय द्वेषी रहा होगा, कह भी गया है कि ‘प्यार को प्यार ही रहने दो , इसे नाम न दो ‘ |काहे बवाल में पड़ो | क्यों खुजली हो रही है | ठीक से एक जगह बैठ के शान्ति से बीड़ी नहीं पी जा सकती  या ऐसा ही कोई संत टाइप का काम नहीं किया जा सकता |


सारे होशियार पति इसको अच्छी तरह समझते हैं | पत्नी द्वारा बनाये गए तरल द्रव्य को किसी नाम का इलज़ाम देने से पहले झांक झूँक कर और टोह  लेकर जानकारी प्राप्त कर लेते हैं कि जिसको दिल दाल समझ के खाये   जा रहा है , कहीं वह मूलतः पत्नी अनुसार  साम्भर गोत्र का तो नहीं था |


अब १८५७ को ही ले लिया जाय |  मंगल पांडे  ने बन्दूक चला दी, तात्या टोपे, लक्ष्मी बाई आदि सबने बवाल काट डाला, बहादुरशाह दिल्ली में जी भड़भड़ा के बैठे रहे कलम में स्याही भरते हुए कि जैसे ही  थोड़ा खाली  हुए, शायरी झेला डालेंगे , इस बीच कई अँगरेज़ शहीद हो गए | इतना सब हुआ, पर यह सब होने के पहले कोई इस चक्कर में नहीं पड़ा कि इस पूरे घटनाक्रम को क्या नाम दिया जाय | जब सब हो गया तो इस बेगाने बवाल में सारे इतिहासकारों में सिर  - फुटौव्वल मची | और मची क्या अभी तक एक दूसरे का पजामा खींचे पड़े हैं |  एक बोले कि इसे ‘पहला स्वाधीनता संग्राम ‘ कहा जाय | दूसरे पक्ष ने बहुत बुरा माना और कहा कि परिभाषा ‘सिपाही विद्रोह ‘ वाली सही बैठती है | तीसरा मध्यमार्गी निकला, ‘१८५७ की ग़दर’ का नाम चिपका दिया | अभी तक कौआरार  मची  है |


बवाल साहित्य में भी मचा करता है | प्रेमचंद जन चेतना के साहित्यकार थे या भारतीय मूल्यों वाले खेमे के ?    निराला तो प्रगतिवादी थे ही , ये पता नहीं ‘सरस्वती वंदना’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ क्यों लिख गए कि  सारे दढ़ियल , झोला छाप वाले  कन्फ्यूज हो गए कि बेटे को अच्छा ख़ासा शीशे में उतार लिया था, लेकिन ये जान को कलेश छोड़ गया |


तुलसी बाबा और झाम पाले थे | उस ज़माने के विद्वान् जब संस्कृत में लिखते थे तो ये अवधी  चुन लाये, एक जनभाषा को  | गाली उस समय के पंडितों से भी खाई होगी और उनको उस समय भी कम्युनिस्ट कह दिया गया होगा | लेकिन बाबा तो बाबा , जब तक लोगों की समझ की मिटटी न पलीद कर दें | लिखा भी तो क्या , भक्ति काव्य | अब पंडितों की गति सांप छछूंदर को प्राप्त हुई | उससे ज़्यादा महर्षि मार्क्स के स्वयंसिद्ध चेलों की हुई | न जनभाषा  उगलते बने और न भक्ति काव्य पचाते | अउर ल्यो ससुर - देव नाम इनको |


देखिये ऐसा है -  कितना भी किसी व्यक्ति की असंयमित ध्वनि ऊर्जा के कारण  सामने वाले की रासायनिक ऊर्जा में खुदबुदाहटपूर्ण परिवर्तन के फलस्वरूप ऊष्मा और फिर गतिक ऊर्जा में परिवर्तन से  आवेगमयी सटाक ध्वनि और ऊष्मा के उत्पन्न होने वाली प्रक्रियाओं को  सारे वैज्ञानिक सिद्धांतों के नाम दे डालिये  , जनप्रिय उक्ति इस घटनाक्रम को इसी तरह बताएगी कि “क्या तौल के कंटाप पड़ा है “ और यह भी कि ज़्यादा इस प्रकार का ज्ञान बघारने पर “आपको भी परशाद मिल सकता है इसलिए तनिक हवा आने दें “


इसलिए कोई विद्वान् पहले ही बता गए है कि ‘नाम-वाम में कुछ नहीं धरा है ‘ |


तब फिर शीर्षक की क्या औकात ?




Wednesday, May 17, 2017

व्यंग की जुगलबंदी - टेलीफोन




इस घोर कलियुग में टेलीफोन का नाम लेने पर कुछ लोग उसी प्रकार की एक्टिंग करते पाए जाते हैं जैसा कि किसी  टाइट जीन्स धारिणी, जस्टिन बीबर  बलिदानिनी, ‘ओह माय गॉड’ शपथ धारिणी , शून्य आकार अभिमानिनी  नायिका को कलकत्ते के बड़ाबाजार में पान मसाला लसित द्रव्य से भरे हुए मुंह से दुकानदार द्वारा ‘बहन जी’  नाम से सम्बोधित कर डालने पर तथाकथित ‘बहन जी’ दिखा डालती हैं    |


खैर,  टेलीफोन तो था - और एकपाए में दोपाया प्रकार का अस्तित्व रखता था - द्वैत और अद्वैत वाद दोनों के बीच की कड़ी था टेलीफोन | उपयोगी अवस्था में एक पाया कान से संलग्न  दूसरा सिरा टेलीफोन उपभोगकर्ता की शातिरपने की मात्रा और  सुविधा के हिसाब से मुंह से पास या दूर रखा जाता था | अनुपयोगी अवस्था  में यह चोंगे पर उन दो पिन पर लटका दिया जाता था जिनमें कोई धार तो नहीं होती थी, पर जिनके बारे में यह मशहूर था कि कितना बड़ा भी फ़ोन हो,  काटा यहीं से जाता है |


फ़ोन अमूमन कृष्ण वर्ण का श्रेष्ठ माना जाता रहा था | कुछ नए  चलन के लोगों ने लाल , हरे और कुछ और रंगों का प्रयोग तो किया किन्तु कालांतर में ऐसे लोगों की कोई ख़ास इज़्ज़त कृष्ण वर्ण टेलीफोन उपभोक्ताओं में नहीं हुई


फ़ोन के चोंगे पर एक गोलाकार डायल हुआ करता था जिसे घुमाकर नंबर मिलाने में एक किर्र-किर्रात्मक संतुष्टि की अनुभूति होती थी | नंबर मिलाने वाला क्षण बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता था और इस कारण नंबर मिलावक व्यक्ति डिस्टर्ब किये जाने पर सामने वाले को डाँट सकता था या उसके ऊपर आँखे तरेर सकता था और इसके बाद व्यवधान उत्पन्न करने  वाले को  फर्दर  डांटने वाला काम आस-पास बैठे लोग संभाल  लेते थे |


सारे नंबर डायल करने के बाद नंबर मिलावक सबको ऊँगली से चुप रहने का इशारा कर सकता था और जैसे ही  वह यह कहता “घंटी बज रही है” , सबके चेहरे पर चमक और मन से उच्छ्वास की मिली जुली प्रतिक्रिया एक साथ प्रकट होती थी


किसी ने सिखाया नहीं होता था, पर परंपरा यह थी कि नंबर जितनी दूर का मिलाया गया है , बात करने वाले की  डेसिबेल मात्रा उतनी ही ऊंची  रखी जाय और जो कि  एक परम शिष्टाचार भी का प्रतीक था | ऐसा न करने वालों को बुजुर्ग यह कह कर लसेट  सकते थे कि “अब हर चीज़ तो स्कूल में नहीं सिखाई जायेगी “


किर्र-किर्रात्मक डायल का उपयोग रामसे नामक भूत-प्रेत और भयंकर रस  प्रेमी निर्देशक अक्सर अपनी फिल्मों  में कर लिया करते थे  और जैसा कि मेरे एक मित्र,  जो ‘सत्यकथा ‘ और ‘मनोहर कहानियां’ पत्रिकाओं के नियमित पाठक टाइप  थे, बताया करते थे कि ऐसे  दृश्यों में सिनेमा हालों में कइयों की  फूंकें यहाँ  वहाँ  सरक जाया  करती थी और जिसके वह चश्मदीद गवाह हुआ करते थे |  उनके इस तरह की कथाएं सुनाने का परिणाम होता यह था कि कुछ दिनों तक मोहल्ले के चिल्लर बच्चे फ़ोन के आसपास रात में नहीं फटकते थे |


फ़ोन के साथ महिमामय तार भी लगा होता था जो कि बात बेबात कुछ दिनों बाद बल खा जाया  करता था और उसके (और किसी के भी) कस बल को ठीक करने का शास्त्रसम्मत उपाय यह था कि तार से पकड़ कर फ़ोन को हवा में लटका दिया जाय और बेचारा फ़ोन हेलीकाप्टर बना इस थर्ड डिग्री से त्रस्त  होकर खुद ही अपने कस बल ठीक करने लगता था  | यह काम मक्खी मारने वाले जैसे कामों से ज़्यादा टेक्निकल माना जाता था और इसको करने को घर का हर बच्चा या जवान, जिसका मन होमवर्क या घर के कामों में मन कम लगता था, तत्पर रहता था |  कुछ असंतुष्ट किस्म के बुजुर्ग , जिनका सिद्धांत था कि अगर किसी काम में किसी को आनंद आ रहा है तो ज़रूर कुछ ऐसा है जो गलत हो रहा है और ऐसा कत्तई नहीं होने देना चाहिए, ऐसे लोगों पर कड़ी निगाह रखते थे और आनंद लेने का ज़रा ही सबूत मिलते ही उनके हाथ से यह काम छीन  लिया करते थे या फिर ऐसा वातावरण बना देते थे कि आनंद लेने वाला भ्रमित हो जाय कि बैठ  के नाक में दम  करवाना ज़्यादा उचित होगा या इन तानों से विरक्त होकर अपने काम में आनंद लेते रहना |


कई बार या ज़्यादातर फ़ोन तो एक ही होता था , पर अपने  नंबर के रूप में ३-४ लोगों के और पी पी रूप में ३००-४०० लोगों के विजिटिंग कार्ड या लेटर पैड में सुशोभित होता  था | कई बार लोग एक दुसरे को कार्ड देते लेते और नंबर मिलाते समय ध्यान आता कि पी पी रूप में वहीँ नम्बर दोनों के कार्ड में सुसज्जित है | इस तरह के फ़ोन वाले घरों में एक आध बच्चा इसी काम के लिए नियुक्त होता था कि फ़ोन आने पर पी पी प्रकार के लोगों को ललकार कर बुलाये | जो अच्छे पी पी प्रकार के लोग होते थे वह बुलाने में देर होने पर ज़्यादा बुरा नहीं मानते थे |  


अब नास्टैल्जिया इससे आगे नहीं जा पा रहा है, बहुत सारे मैसेज व्हाट्सप्प और फेसबुक पर इकठ्ठा होते जा रहे हैं , बाकी फिर कभी


काटते है अभी !