Monday, October 21, 2013

एक शरीफ चिंता

सीएटल के शानदार कवि सम्मलन 'झिलमिल २०१३' के लिए लिखी गई कविता । किसी वजह से मेरे फ़ोन पर पूरी डाउनलोड नहीं हो पाई , इसलिए कवि सम्मलेन में पूरी नहीं पढी अब पूरी कविता यहाँ !


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मित्रों मैं चिंतित होता हूँ

खा पी कर मन भर जाता है, पीना सर पर चढ़ जाता है
तब मन थोडा भर आता है, कुछ जगता हूँ कुछ सोता हूँ
मित्रों मैं चिंतित होता हूँ

ये घोटाला वो घोटाला, इन भ्रष्टों का हो मुंह काला
सुरसा सा मुख घूस खोर का, मांगे हरदम बड़ा निवाला
सौ में काम जहां होता था दो हजार अब देता हूँ
देकर मैं चिंतित होता हूँ

राह चले जब किसी मनचले, की सीटी जब बजती है
सच्ची मुट्ठी भिंचती मेरी, नथुनों से आग बरसती है
मन ही मन गुस्सा होता हूँ
उचित प्रतिक्रिया और शराफत बीच कहीं मैं खोता हूँ
फिर भी मैं चिंतित होता हूँ

गर्मी में ए सी को चलाकर, बोरा भर पेट्रोल जला कर
प्लास्टिक के टुकड़े छितरा कर, गंगा में गंदगी बहा कर
महंगाई और ग्लोबल वार्मिंग इन सब पे मैं रोता हूँ
मित्रों मैं चिंतित होता हूँ


जगद्गुरु भारत का रुपया , गिरा देख शर्माता हूँ
७० तक जायेगा ये सोच , मैं दो हफ्ते रुक जाता हूँ
६१ पर डॉलर भेजूं तो , दस हज़ार मैं खोता हूँ
मित्रों मैं चिंतित होता हूँ

ख़त्म हुआ देखो शटडाउन, कितने बिजी थे सारे क्लाउन
मैं कन्फयूज्ड था, वो कन्फयूजिंग, अमरीका की वैल्यू डाउन
मैं जगता था रात-रात भर वो सोते थे
कहते थे चिंतित होते थे
वो भी तो चिंतित होते थे

हे चिंतित ना होने वालों , क्या चिंतित को सम्मान न दोगे ?
कम से कम चिंतित तो हुआ ,अब क्या बच्चे की जान ही लोगे?

चिंता मेरी सदा संगिनी, मैं बंदी वो मेरी बंदिनी
चिंता की चिंता में रहता, नित इक चिंता बोता हूँ
मित्रों मैं चिंतित होता हूँ

चलिए सब चिंतित हो जाएँ, ताली हर कविता पे बजाएं
चाय समोसे और पकौड़ी, खाकर हम चिंतित हो जाएँ
गप्प चुटकुले सुनें सुनाएँ , अपने पेट पे हाथ फिराएं
फिर थोडा चिंतित हो जाएँ
चलिए सब चिंतित हो जाए