Wednesday, March 22, 2006

सररर... पोर्टलैंड में

जब जीतू भैया और शुकुल ने होली का विवरण दे डाला तो हमने सोचा कि हमारा पोर्टलैंड क्यों पीछे रहे. हमलोगों ने भी यहाँ ११ मार्च को 'हिंदी संगम' के तत्वावधान में होली मना डाली.

कार्यक्रम की शुरुआत हुई कवि सम्मेलन से. फिर हुआ सिलसिला होली की उपाधियों का. 'मिलिये मेहमान से' कार्यक्रम में लालू जी घुस आये. उनका साक्षात्कार हुआ. फिर हुआ समूह गान जिसमें लोग नाचे, ढोलक, मंजीरे बजाये और अपनी पसंद का गीत गाया.और हाँ, अंत में कवि सम्राट का पुरस्कार भी जनता के वोट द्वारा दिया गया.



कुल मिला कर सफल रहा सब कुछ. करीब ३०० लोग इकट्ठा हो गये थे इस बार.

लीजिये हाजिर है उपाधियाँ आपकी सेवा में. आप मदद करें इनको पहचानने में (सस्पेंस बनाने का प्रयास, सुना है जनता इससे थ्रिल्डावस्था को प्राप्त होती है)



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१.
जंगल में अब भी है भालू
और समोसे में है आलू
गुंडा तो अब भी है कालू
छोड़ गया पर हमको लालू

२.
तीन देवियों के चक्कर में, फंस गया मैं बेचारा
शादी ही कर लेता भैया, क्यों रह गया कुंवारा
घुटने घिस गये इस चक्कर में, करना पड़ा रिप्लेस
पार्टी का बन गया मुखौटा, भूल गया मैं अपना फेस

३.
फोटो सबके साथ खिंचाता, नेता हो या अभिनेता
पेज ३ से दोस्ती अपनी, सबसे पंगा लेता
हीरोइन से बातें मेरी, कर लीं किसने टेप
मंत्री संतरी को दूं गाली, कैसे मिटाऊं झेंप

४.
ज़ुल्फ लहरायी तो, बालर को पसीना आ गया
रन की हो बरसात, सावन का महीना आ गया
बल्ले वाला धोबी है, बालर को कसके धोये
टीम सामने वाली, सर पीट-पीट के रोये

५.
कह दो ना कह दो ना, यू आर माई बाप सोनिया
चरण पादुका तेरी लेकर, तेरे नाम से राज किया
वैसे तो स्कालर हूं, पर ऐसा भक्त हूं तेरा
तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा

६.
जवां थे सुपर स्टार थे, अब तो हैं मेगा-स्टार
कजरारे नैना भी करें, इनसे अपना इकरार
पान खायें या रंग बरसायें, इनका ऊंचा काम
अब ये हैं तो इनके अंगने, नहीं किसी का काम

७.
कभी असेम्बली भंग कराऊं, बंद खाते खुलवाऊं
हुकुम चलाऊं पीछे से मैं, सबपे मैं गुर्राऊं
घोटाले सब इंटरनेशनल, मुझसे कुछ जो कहियो
मैं मैके चली जाऊंगी, तुम देखते रहियो



उत्तर अगले अंक में.........
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Tuesday, March 21, 2006

कम्युनिस्ट पर लेख

तो कम्युनिस्ट एक प्रजाति है जो भारत के पूर्वी भाग में बंगाल और दक्षिण में केरल के तट पर पायी जाती है. इस प्रकार के जीव में कई तरह के मुंह, एक नाक और दूसरे के दिमाग से चलने वाला दिमाग, बेतरतीब दाढ़ी और कंधे पर झोला पाया जाता है. कभी - कभी बिना दाढ़ी वाली एक उपजाति भी दृष्टिगोचर होती है, परंतु दाढ़ी वाला प्रकार श्रेष्ठ माना गया है. इनका आकार-प्रकार मनुष्यों से मिलता जुलता है और सावधानी न बरतने पर पहचान का धोखा हो सकता है.

हर चलने वाली चीज की गति से यह उसी प्रकार चिढ़ता है ज्यों मेरी भूतपूर्व गली में रहने वाला श्वान चलती हुई साइकिल या स्कूटर से चिढ़ता था और उसके पीछे दौड़ पड़ता था और अंत में उसके रुकने पर ही शांत होता था. सो उसी प्रकार यह जीव भी चलते हुए कारखाने, उद्योग और कभी - कभी तो चलते हुए ट्राफिक की गति से भी भड़कता है और बंद का ऐलान कर देता है. गति से चिढ़ने की यही प्रवृत्ति प्रगति वाद के नाम से लोकप्रिय है.

पूर्वजन्म के कर्म सिद्धांत पर इस प्रजाति के लोग श्रद्धा की हद तक विश्वास करते है और मान कर चलते हैं कि ये इस जगत से कुछ लेने या मांगने आये हैं कुछ लौटाने या देने नहीं. इसीलिये झुंड में यह लोग ' देना होगा- देना होगा' या 'हमारी मांगें पूरी करो' नामक मंत्र का सामूहिक रूप से जाप करता दिखायी पड़ता है। कभी-कभी तो इन्हें यह भी नहीं पता होता है कि इन्हें लेना क्या है, लेकिन सच्चे कर्मयोगी की भांति ये तुच्छ वस्तुएँ इन्हें अपने मार्गसे विचलित नहीं करतीं.


इनके दिमाग में यह विचार इंजेक्शन से भर दिया गया है कि इतिहास और साहित्य इनके लिये वह गरीब की जोरू हैं जिससे ये जब चाहे छेड़ सकते हैं और रखैल भी बना सकते हैं. भूतकाल को ये भूत गाली देते हैं, वर्तमान में जीते नहीं और भविष्य बदलने का संकल्प लेकर चलते हैं और उसके न बदलने की सूरत में इतिहास को तोड़ मरोड़ कर बदल डालते हैं. वैसे इस प्रक्रिया में ये लोग कई जगह स्वयं इतिहास बन चुके हैं.

यही हाल यह साहित्य का भी करते हैं. इन्होंने काफीहाउसों में बैठकें करके यह तय कर लिया है कि आम आदमी सिर्फ गाली-गलौज करता है.
जो लिक्खाड़ जितनी गाली गलौज करता है, उतना ही वह जन के नज़दीक, उसके लिये उतनी ही तालियाँ, और इस तरह वह उतना ही बड़ा साहित्यकार माना जाता है.

झुंड में यह विश्वविद्यालयों, मिलों और सरकारी अनुदान से चलने वाले एन.जी.ओ. के आसपास पाये जाते हैं. इस प्रजाति के प्रलुप्त होने के खतरे को भांपकर जे एन यू नामक एक अभयारण्य भी स्थापित किया गया है जहां यह निर्भय होकर विचरते हैं.

लुकाछिपी खेलने में ये माहिर होते हैं जिसमें डेमोक्रेसी को अक्सर चोर बनाया जाता है. डेमोक्रेसी इन्हें ढूंढ़ती रहती है और न ये पकड़ में आते हैं न उसकी पट्टी खोलते हैं। बीच-बीच में आकर कुकू क्लाक वाली चिड़िया की तरह ये डेमोक्रेसी के पास आकर 'चोर-चोर' चिल्लाकर दूर भाग जाते हैं. उसकी पट्टी पांच साल में आकर खोल जाते हैं, फिर दुबारा चोर बनाने से पहले कुछ दिनो तक 'दोस्त-दोस्त' खेलते हैं.

ये बंगाल में १९७७ के चुनावो के बाद से लगे हैं, लगभग उसी साल जब मेरी कुछ पुस्तकों में दीमक लगी थीं.तो फरक यह है कि मेरी किताबों का कुछ अंश नष्ट करने के बाद दीमकों ने चुल्लू भर दवा में डूब कर मोक्ष की प्राप्ति कर ली थी.

गरीबी, बेरोजगारी का वातावरण इनके पनपने के लिये बहुत मुफीद होता है. वैसे इस प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद है क्योंकि कुछ लोगों का मानना है कि इसका उल्टा सत्य है यानी इनका होना गरीबी और बेरोजगारी के लिये उपयुक्त है.

इनके धर्मग्रंथ का नाम दास कैपिटल है जिसमें इनके लिये सब कुछ सोच लिया गया है और उस पर टीका टिप्पणी और व्याख्या का अधिकार इन लोगों ने इस वैश्वीकरण के दौर से बहुत पहले चीन और रूस को आउटसोर्स कर दिया था. इस तरह ये बची हई ऊर्जा का इस्तेमाल गाली - गलौज, हड़ताल, बंद, जुलूस इत्यादि रचनात्मक कार्यों में करते हैं.

वैसे ज्यादातर लोग कह सकते हैं कि क्या करें ऐसे लोगों का, लेकिन हमारी बिनती यही है आपसे कि हो सके तो कुछ कीजिये, वरना ऐसा न हो कि आप बाद में कहें कि पहले क्यों नहीं बताया.

..........लेख समाप्त