Tuesday, November 29, 2011

एक ब्लागर मीट जो महान होते-होते बची !

समय - शिव कुमार मिश्र जी का कार्यालय, कोलकाता (समय के साथ कोलकाता इसलिए कि कोलकाता समय और काल से परे हो चुका है)
स्थान - १५ नवम्बर, २०११ - करीब ८ बजे ( स्थान के साथ समय इसलिए कि कोलकाता नगरी का ये इस समय का स्नैप शाट है)
भीड़ - अनूप शुक्ल उर्फ़ फुरसतिया, शिव कुमार मिश्र 'दुर्योधन की डायरी' वाले, इन्द्र अवस्थी उर्फ़ ठेलुवा अर्थात माइसेल्फ़, बिनोद गुप्ता (एक नान ब्लॉगर किस्म के जीव), प्रियंकर पालीवाल (अनुपस्थित)

वैसे तो शुकुल ज़्यादातर कानपुर में पाए जाते हैं लेकिन ऐसा संयोग बना कि इलाहाबाद स्थित अपने  कॉलेज में अपने बैच का रजत जयंती समारोह मनाने के बाद हम और बिनोद इलाहाबाद से और शुकुल अपनी  तथाकथित आधिकारिक यात्रा पर कानपुर से एक ही दिन कोलकाता में डाउनलोड हुए !

बिनोद के बारे में पहले - बिनोद हमारे वह मित्र हैं जिनके बार में हम दोनों यह अफवाह उड़ाया करते हैं और उड़ाते - उड़ाते मानने  भी लगे हैं कि नर्सरी से इंजीनियरिंग कॉलेज तक हम साथ ही पढ़े हैं. एक बार बहुत गौर से हमने अकेले बैठ के सोचा भी तो पाया कि कक्षा १० में हम एक साथ नहीं थे. हमने दबी जबान बिनोद से इसका ज़िक्र भी किया. बिनोद ने जवाब में हम पर आँखों ही आँखों में तरस खाते हुए पुरानी अफवाहों को बदस्तूर जारी रखा. 

खैर, नियत समय पर शुकुल का फ़ोन आते ही हम और बिनोद मुंह उठाये मिश्र जी के ऑफिस पहुँच गए. वहाँ शुकुल कुर्सी पर तोंद ताने, बकौल के पी सक्सेना, लादेन की तरह लदे थे. यह शाम का वह आदर्श समय था जब शास्त्रों के अनुसार समोसा खाने से कई जन्मों के पाप कट जाते हैं.

पता लगा  प्रियंकर जी नहीं आ पायेंगे.

खैर , परिचय-वरिचय हुआ, बिनोद ने मौका ताड़कर नर्सरी से इंजीनियरिंग वाली बात मिश्र जी को झेला दी थी. चूंकि मिश्र जी एक विनम्र आतिथेय थे, सो उन्होंने प्रत्युत्तर में आश्चर्य जताया जैसे कि इस घोर कलियुग में भी ऐसा कैसे हो सकता है और इस प्रकार विनोद को उन्होंने अपने हिसाब से संतुष्ट किया.

हम और बिनोद चूंकि ताजे-ताजे कॉलेज से आ रहे थे और वहाँ हमारे सिल्वर जुबिली कार्यक्रम के एक-आध लोकल पेपर वालों ने हमसे कुछ पूछा और हमारे जवाब को उन्होंने हेडिंग के रूप में भी चौथे पेज के कोने में छाप दिया था, सो हम ओवर कांफिडेंस से सराबोर थे. हमको लग रहा था कि अब इस ब्लॉगर मीट में भी हमारे मुंह से छपने वाले और कम से कम हेड लाइन वाले उदगार तो निकलेंगे ही. हम तो बिलकुल ही तैयार थे. शुकुल भी हमारी इस अदा से आतंकित लग रहे थे.

जिस चीज़ का हमने अनुमान नहीं किया था और जो बिलकुल अप्रत्याशित थी, वह थी किसी नान-ब्लागर की हमारे बीच उपस्थिति. बिनोद ने नर्सरी-इंजी. काण्ड के बाद तो मैदान पूरा अपने हाथ में ले ही लिया था. 

अब नान -ब्लागर को ब्लागर की दशा के बारे में क्या पता. यहाँ तो 'आप कितना अच्छा लिखते हैं' , 'और लिखिए न' कहकर अपनी ओर बातों सिरा मोड़ने की कला का कितनी बार अभ्यास कर चुकने के बाद फंस गए एक नान-ब्लॉगर के चक्कर में. बिनोद ने ब्लागिंग के अलावा मिश्र जी का सारा इतिहास पूछ डाला और उनके बारे में इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया जितना एक पुलिस वाला किसी हिस्ट्री शीटर के बारे में ३-४ सालों के अथक प्रयास के बाद कर पाता है. बीच में शुकुल ने बात संभालने का असफल प्रयास किया मिनमिनाते हुए, एक उलाहने देते हुए कि 'हम लिखते क्यों नहीं?'

लेकिन यह वह समय था जब समोसे आने की संभावना बढ़ गयी थी और स्पष्ट है कि इस संभावना ने हमको प्रोत्साहित किया कि हम शुकुल को थोड़े देर के लिए इग्नोर करें सो हम भी मिश्र जी के इतिहास पर आये. लेकिन तब तक समोसे आ गए, ढोकलों के साथ ढोलक बजाते हुए, साथ  में सन्देश का मीठा संदेसा भी लाये. अब हमारे सामने इन सब पर टूट पड़ने के अलावा कोई चारा न रहा.

 इस बीच हमारे एक और मित्र ( नान-ब्लॉगर कहीं का) फोन पर प्रकट हुए और हमको और बिनोद दोनों को धमकाने लगे उनके घर पहुँचने के लिए. उन मित्र ने भी हमारा काफी फुटेज खाया तब जाकर अंतर्ध्यान हुए. शुकुल इस बीच हमारे समोसों को देखते हुए अपना खाते रहे. मिश्र जी इस सारे कंफ्यूजन का आनंद लेते रहे. बिनोद का काफी समय गुज़र चुका था हमारे फोन को मित्र को अपनी व्यस्तता जताने में.

अब बिनोद फिर मिश्र जी की तरफ घूमे, उनके कारोबार के बारे में और जानकारी इकठ्ठा की और फिर शेयर मार्केट के बारे में बचे १२ मिनट में २७ सवाल पूछे. अब मिश्र जी के सामने कोई रास्ता न बचा यह कहने के सिवाय कि उनको घर जाना है और 'हम लोगों को भी देर हो रही होगी'.

तो हम बाहर निकले. मन में बहुत कुछ अटका लग रहा था. शुकुल से टोह ली तो वह भी खीसें निपोर कर रह गए. खैर, बाहर हमने कुछ फोटो-शोटो भी ली. बल्कि जाते हुए दो बच्चों को पकड़ के और एक के हाथ में कैमरा देकर और दूसरे को चालाकी पूर्वक अपने बगल में खड़ा करके फोटो भी खिंचवाई. उसके बाद शुकुल अपने होटल, मिश्र जी अपने घर और हम बिनोद के साथ बिनोद के घर चल पड़े अपनी नर्सरी से लेकर इंजीनयरिंग की यादों को ताज़ा करने.




इस प्रकार कोलकाता के समाचार पत्रों को बढ़िया हेड लाइन से और ब्लॉग जगत को एक महान ब्लाग र मीट से वंचित होना पड़ा. अच्छा ही हुआ, नहीं तो इस मीट के महान बनते ही कई और मीट कम्पीटीशन में आ खड़े होते और फिर ब्लॉग जगत में जो जूतम-पैजार होती.

आखिर नर्सरी से इंजीनियरिंग की दोस्ती भी कोई चीज़ होती है. है कि नहीं? सो वो दोस्ती काम आ गयी नहीं तो...

शुक्रिया बिनोद!