Sunday, February 20, 2005

सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान

भवानी प्रसाद मिश्र कहते हैं -

कुछ लिख कर सो, कुछ पढ़ कर सो


सो आजकल हम बहुत पढ़ रहे हैं. जब भी मौका मिलता है हम पढ़ लेते हैं.

हममें और पठनीयता में ऐसी ट्यूनिंग ('ट्यूनिंग' लिखने से पढ़ा-लिखा होने की बू आती है वैसे हमें पता है कि इसे सामंजस्य भी कह सकते हैं) हो गयी है कि थोड़ी देर तक सोचा कि कुछ पढ़ा नहीं है कि इसी बीच पठनीय सामग्री हाजिर हो जाती है.


कहना न होगा इसमें सबसे बड़ा योगदान ट्रक साहित्य का है. साहित्य को सर्वसुलभ बनाने में ट्रक साहित्य का अमूल्य योगदान है. हर मन:स्थिति और अवसर के किये यहाँ सामग्री उपलब्ध है.


अब इस आलेख का शीर्षक ही देखिये, किसी राष्ट्रवादी उससे भी ऊपर आशावादी ट्रक पर यह लिखा था. पर इसके पीछे छिपा हुआ दर्द भी काबिले-गौर है.


कितना फरक आ गया है पहले और आजकल के चोरों-बेईमानों में. पहले चोर के पीछे पब्लिक 'चोर-चोर' कहते हुए दौड़ती थी तो चोर भी अपने पेशे को पूरा सम्मान देते हुए जान बचाने के लिये 'चोर-चोर' करता हुआ उन्हीं में मिल जाता था. आजकल तो बेईमानी की हद हो गयी है. किसी को चोर या 'दागी' कहो तो वह और कुछ नहीं तो 'कम्यूनल-कम्यूनल' ही करता हुआ उल्टे कहने वाले के पीछे दौड़ पड़ता है.


गोवर्धनलाल जी जितने जुगाड़ू थे नहीं उससे ज्यादा अपने को मानते थे और सबके सारे काम कराने का ठेका ले लेते थे औरचूँकि वादों का बोझ ढोते-ढोते अक्सर बेचारे इतने क्लांत हो जाया करते थे कि उन्हें पूरा करने की संभावना कम ही रह जाती थी. कुछ वादे ही बेचारे ऊबकर खुद ही पूरे हो जाया करते थे जिसका श्रेय लेने में यह कभी कोई कोताही नहीं बरतते थे.

इस प्रकार के गुणों से सज्जित लोगों को हमारे यहाँ नेता मानने की आदर्श सनातन परंपरा रही है सो यह सज्जन भी लोकप्रिय होकर 'लीडर जी' कहलाये जाने लगे.
किसी पुराने ट्रक पर इनकी नीयत डोल गयी और उसको सस्ते में खरीदने के चक्कर में टटोल रहे थे. पीछे जाकर जब झुककर देखने लगे तो बदतमीज़ ड्राइवर ने ट्रक को स्टार्ट कर दिया. पुराना ट्रक, घटिया डीजल सो उसने काला धुँआ लीडर जी के ऊपर सीधे उनके मुँह पर ही झोंक दिया. प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि उस बार साधु ट्रक का श्राप (बुरी नज़र वाले..) लगा था उनको. वैसे नेताजी ने आदत के अनुसार इसका खंडन किया और बतलाया कि न तो उनकी नज़र बुरी थी और न ही उनका मुखमंडल पुता था जैसा कि सारे लफंगे बता रहे थे.


कुछ बेवकूफ किस्म के लोग यह कहते हुए भी पाये गये कि इस छुटभैये की जगह कोई असली नेता होना चाहिये था. इन लोगों को कौन समझाये कि हे बांगड़ुओं, असली नेता ट्रक और उसके डीजल से थोड़े ही मुँह काला करवायेगा. उसके लिये तो बी एम डबल्यू या मर्सिडिज चाहिये. कुछ कम फैशनेबल और सुविधा व सावधानीपूर्वक 'माटी क लाल' बने हुए नेता चारा और पशुपालन केंद्रों में ही मुँह मार लेते हैं और इस तरह अपनी धरती से उनका जुड़ाव भी प्रदर्शित हो जाता है.


अब तो ईमानदार होने में भय लगता है. किसी ने सुन लिया कि यह शख्स भ्रष्ट नहीं है तो उसे पूरा विश्वास हो जायेगा कि यह बंदा तो अवश्य ही कम्यूनल होगा. इस डर से कई लोग भ्रष्ट बन जाते हैं. क्योंकि हमारे यहाँ ऐसा नियम है कि आप भ्रष्ट हैं तो भ्रष्ट और सिर्फ भ्रष्ट हो सकते हैं. और फिर आप सेकुलर कहलाये जाने के अधिकारी हो जाते हैं. हाथों की अंगुलियों को वी अक्षर जैसा बना कर ठुड्डी और दांये गाल के बीच में फंसा कर फोटू खिंचाकर बुद्धिजीवी कहलाये जाने वाले लोग आपको सर्टिफिकेट भी दे देते हैं. फिर उसमें साम्प्रदायिकता का स्थान कहाँ! कहा भी है -

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं


मूल्यों वाली गली इतनी 'सांकरी' हो गयी है कि 'वा में' भ्रष्टता के अलावा और किसी नेतासुलभ गुण का स्थान कहाँ हो सकता है. महाभारत में भीष्म का वध करने के लिये शिखंडी का प्रयोग ढाल की तरह किया गया था. उसी आदर्श परंपरा में आप अपने पिछड़ी जाति के या अल्पसंख्यक या महिला होने को ढाल बना सकते हैं. अब अपने अज़हर भाई को देखिये ना. जैसे ही मैच-फिक्सिंग में पकड़े गये, उनकी गजब की याददाश्त ने साथ दिया और वो बोले मैं मुसलमान था न, इसलिये पकड़ा गया. हम तो फैन हो गये इस मासूमियत के. मायावती उर्फ बहनजी को इस बात का रोना है कि अगड़ी जातियों ने उनसे ज्यादा पैसे पीटे और सी बी आई मायावती के पीछे पड़ी है. क्या होगा इस देश का कोई ठीक से खाने-पीने भी नही देता.

हमें लगता है कि भ्रष्टाचार का भी आरक्षण होना चाहिये. बैठ कर हिसाब लगाना चाहिये कि किन जातियों ने कितने पैसों का भ्रष्टाचार किया है, तौल के उतने ही अनुपात में अन्य जातियों ( जिनको अवसर नहीं मिले) को अगली पंचवर्षीय योजना में स्वीकृत कर देना चाहिये.

चौबेजी इन बातों पर हमेशा कूद पड़ते है - जिहदवा का कोटा भी हिंदुओं को कम्पलसरियै न कर देना चाहिये. दुइ - तीन किलो पर फेमिली.


साम्प्रदायिकता का तमगा बचाने के लिये ज़रूरी है कि आप भ्रष्ट हों , बेईमान हों या 'फोरेन' में 'फेम' पाने के लिये कम्यूनलिज्म से कम्बैट या वीमेन्स लिब के ऊपर कोई दुकान खोल सकते हैं जिसे आम भाषा में एन जी ओ भी कह सकते हैं.

छेदीलाल जी बहुत चतुर व्यापारी हैं. हमेशा गरम लोहे पर हथौड़ा मारने के आदी रहे हैं. लाइसेंस-परमिट काल में खूब पैसा कमाया, अब समाज सेवा की चिंता चढ़ी है. हाथों में प्रस्ताव और चेहरे पर मुस्कराहट लेकर आये और उवाचे - लड़के अपने-अपने बिजनेस में सेटल हो गये हैं. बड़का 'रियल स्टेट' में कमा रहा है. छुटका रेलवे, डिफेंस में सप्लायर है, गोटी फिट किये है. हमारा मन कर रहा है और जैसा कि फैशन भी है कि थोड़ी समाजसेवा कर ली जाय. कुछ आइडिया दीजिये.

हमने बाबा आमटे जैसा कुष्ठ रोगियों के लिये कुछ या गरीब बच्चों की पढ़ाई, चिकित्सा इत्यादि कई रास्ते बताये जो चालू फैशन के अनुसार कमजोर सिद्ध हुए. बातों-बातों में एन जी ओ का नाम आते ही उनकी आँखों में वही चमक झलकी जो केश्टो मुखर्जी की आँखों में दारू की बोतल देख कर आती थी

बोले - तो ऐसा न करें कि एक एन जी ओ खोल लेते हैं. इसमें फायदा लगता है (कहते - कहते उनकी एक आँख न चाहते हुए भी दब गयी)

अचानक वो हड़बड़ी में आ गये और खिसकने की मुद्रा बनाकर बैठे, फिर सचमुच खिसक लिये.


सो अगर आप पालिटिकली करेक्ट जाति या धर्म या लिंग (फिर फुरसत यह देखने की किसे है आप भ्रष्टवीरचक्र प्राप्त हैं या मंथरा या शकुनि मामा का नंबर आपके बाद आता है) सारा 'पालिटिकली करेक्ट' तंत्र आपसे सहानुभुति व्यक्त करता है. दो-चार अंगरेजी अखबार आपको दबे-कुचले लोगों की आवाज बना देते हैं। और यदि आप बहुसंख्यक बिरादरी से हैं या और पुरुष हैं या और ईमानदार देशभक्त हैं. अगर आप सब हैं तो... आपकी हिम्मत कैसे हुई ऐसा होने की? करेला और नीमचढ़ा !


गुजरात में कितने मुस्लिम बेघरबार हुए. धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस सरकार के समय भी इससे भी भयंकर दंगे हुए. लेकिन मेधा से लेकर तीस्ता तक सारी वीरांगनाऐँ इस दंगों पर अपनी सहानुभुति लेकर टूट पड़ीं.

जावेद आनंद सबरंग कम्युनिकेशन्स नामक 'पोलिटिकली करेक्ट' प्रतिष्ठान चलाया करते हैं और अभी २-३ साल पहले तक उसमें भारत का नक्शा दिखाया करते थे और कुछ ज्यादा ही करेक्ट होते हुए कश्मीर के हिस्से उससे गायब दिखाया करते थे. करेक्ट लोग देश के लिये कुर्बान होते हैं और बिचारे पोलिटिकली करेक्ट जावेद साहब ने देश के हिस्से को ही कुरबान कर दिया. इतने बड़े त्यागी का कुछ मूढ़ लोग विरोध करने पर उतर आये तो मजबूरी में नक्शे को दिखाये जाने की इच्छा को ही कुरबान कर दिया.

अरुंधती राय गुजरात-दंगों में किसी मुस्लिम और भूतपूर्व सांसद की काल्पनिक पुत्री पर न हुए अत्याचारों से इतनी व्यथित हुईं कि उन्होंने परिश्रम के साथ पूरी रिपोर्ट लिख डाली.चूँकि रिपोर्ट में भारत में न्याय-व्यवस्था की दुर्दशा और साम्प्रदायिकता के चढ़ते बुखार के ऊपर लेखिका की तीखी टिप्पणियाँ हैं और अपने देश के बारे में बुरा लिखने वाले सदैव पुरस्कृत होते रहे हैं, इसलिये उम्मीद है कि इन्हें भी पुरस्कार मिले.

(अगली बहस इस बात पर होनी चाहिये कि इनकी इस रिपोर्ट को पुरस्कार 'फिक्शन' श्रणी में मिलना चाहिये या 'नान-फिक्शन' में).


रायबहादुर की तब भी बड़ी वाहवाही हुई थी क्योंकि जनहित में इन्होंने 'कांटेम्प्ट आफ कोर्ट' जैसा दुस्साहस कर दिखाया. वैसे इस तरह के लोगों के न्याय व्यवस्था का प्रति प्रेम देखना है तो देखिये जाकर मंदिर - मस्जिद मसले को सुलझाने के मामले को देखिये.

अब यह दिन भी देखना है जब श्रीराम सिंह वल्द श्री दशरथ सिंह को वारंट जारी किया जायेगा इस दीवानी मुकदमे में कि हाजिर हों अपना फैजाबाद मुंसीपाल्टी में घूस देकर बनवाया हुआ बर्थ सार्टीफिकेट लेकर. और हाँ, अपने जायदाद के रजिस्ट्री कागजात न लाना भूलें. स्टांप पेपर तेलगी छाप हों तो भी चलेगा.


हमें तो नहीं लगता कि इनमें से कोई भी जम्मू में अपनी ही ज़मीन से ही बेघर कर दिये गये कश्मीरी पंडितों के आँसू पोंछने भी पहुँचा हो. तब इनकी कम्यूनलिज्म से अकेले कम्बैट करने वाली दुकान (माफ कीजियेगा, प्राइवेट लिमिटड यानी नान-प्राफिट नहीं, जैसा एक अदालत में ही बताया गया) नहीं चलेगी न?

यही सारा मुखर गैंग सहसा मौन हो जाता है द्रौपदी के चीरहरण के समय की तरह जब सहसा पता चलता है की झाबुआ में हुए नन-कांड का कार्यक्रम खाकी निकर वालों के मुख्यालय में नहीं बना था और उसमें स्थानीय (और वह भी ईसाई समुदाय के लोगों) की भूमिका थी. यही नहीं चर्चों पर हमला भी काफी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय खबर बनी और उसमें भी जब दीनदार- अंजुमन का हाथ पाया गया तो सारे गांधी जी के बंदरों के परंपरागत रोल में आ गये.


यह सब लोग अपने-अपने ब्रांड की क्रांति करने में पिले पड़े हैं और सच पूछो तो काफी व्यस्त हैं. सस्ता, मजबूत और टिकाऊ है यह बिजनेस. गोपाल सिंह कहते हैं-

करने को तो हम भी कर सकते हैं क्रांति


अगर सरकार हो कमजोर


और जनता समझदार



अभी गुजरात में आतंकवादियों में एक महिला इशरत जहाँ को पुलिस एनकाउंटर में सुबह ४ बजे कुछ आतंकवादियों के साथ मारा गया तो कई दिनों तक 'हिंदुत्व' वादी सरकार के अल्पसंख्यकों पर हमले के बारे में प्रगतिशील लोग व अंगरेजी समाचारपत्र, एन जी ओ प्रा. लि. वाले चिंतित रहे. कोई कांग्रसी नेता तो महाराष्ट्र में इशरतजहाँ के घर कुछ लाख रुपये भी भेंट कर आये. साम्प्रदायिकता से संघर्ष में शहीद का दर्जा भी शायद कुछ लोगों की सिफारिश से मिलने वाला था (अब महाराष्ट्र में चुनाव हो रहे थे न) कि कांग्रेस सरकार की ही कृतघ्न और दो कौड़ी की पुलिस ने खुलासा कर दिया कि इशरत के वाकई आतंकवादियों से संबंध थे. (लाखों रुपये देने वाले नेता अपना पैसा वापस ले आये होंगे. अरे भाई संतुष्ट न होने पर पैसे वापस हो जाते हैं कि नहीं, ऐसा अंधेर थोड़े ही है)


बंगाल में चुनावोपरांत हुई हिंसा में नारायणपुर में कितने लोगों पर अत्याचार हुए, लोगों के हाथ काट डाले गये. इस प्रकार इस प्रक्रिया में वहाँ की प्रगतिशील सरकार द्वारा साम्प्रदायिकता के हाथ काट डाले गये. तत्कालीन मुखिया ज्योति बाबू क्रुद्ध हो रहे थे बाद में केन्द्र में किसी 'बर्बर' सरकार के ऊपर क्योंकि कुछ लोगों द्वारा कोई मस्जिद कहीं गिरा दी गयी थी.


हम सोच रहे हैं कि एक करेक्ट (नाट नेसेसरिली पालिटिकली) पार्टी या एन जी ओ खोल लें. बाहर साइनबोर्ड पर एक ट्रक पर लिखी पंक्ति चुरा कर डाल सकते हैं-

भोले बाबा भुल ना जाना

गाड़ी छोड़ कर दुर ना जाना



पर इसमें न तो सरकार , न पेट्रोडालर और न प्रोग्रेसिव लोग पैसा लगाने को तैयार हैं. आप लोग लगाइयेगा?

वैसे साहित्य को सर्वसुलभ बनाने में रेलवे तथा अन्य सार्वजनिक शौचालयों का योगदान कम करकर आँकना तो कृतघ्नता होगी. पर इस पर चर्चा फिर कभी.