Thursday, December 02, 2004

इनविटेशन - आइये, अपनी नेशनल लैंगुएज को रिच बनायें

जस्ट अभी ब्रेकफास्ट फिनिश करके उठे थे. थोड़ा हेडेक था, प्राबेबली ओवरस्लीपिंग इसका रीजन था.

एक फ्रेंड का फोन आ गया, काफी इंटिमेट हैं, लेकिन अपने को टोटल अमेरिकन समझते हैं. पूरे टाइम इंगलिश में कनवरसेशन! अरे अपनी भी तो कांस्टिट्यूशन में रिकग्नाइज़्ड एक नेशनल लैंगुएज है. लेकिन एजुकेटेड होने का यही प्राब्लम है, स्टेटस सिंबल की बात हो जाती है. ब्रिटिश लोग तो चले गये बैग एंड बैगेज, स्लेव मेंटालिटी यहीं छोड़ गये.


इन मैटर्स में हम भी बहुत स्ट्रेटफारवर्ड है. हम कांटीन्युअसली अपनी मदर टंग में बोलते रहे. भई, हम तो इरिटेट हो जाते हैं इस काइंड के लोगों से.

अभी एक कमर्शियल वाच कर रहे थे बासमती राइस के बारे में जिसमें किट्टू गिडवानी अपनी डाटर से कहती है - 'होल्ड इट सीधा. इफ यू वांट टू डू इट प्रापरली, योर प्रेपरेशन हैज टू बी बिलकुल पक्का.' कैसी लंगड़ी लैंगुएज है ये! लोग प्राउडली इसे हिंगलिश बताते हैं. कितना रिडिक्युलस फील होता है जब कोई अपना फैमिली मेम्बर ही ऐसे बोलता है.

अरे ऐड को ऐसे भी प्रेजेन्ट कर सकते थे - 'इसको स्ट्रेट होल्ड करो, प्रापरली करने के लिये प्रेपरेशन बिलकुल सालिड होनी चाहिये.'

इसे कहते हैं 'मैकूलाल चले माइकल बनने'.


अब देखिये न, जैसे पंकज बहुत ही करेक्ट लिखते हैं कि अपनी लैंगुएज में टाक करना आलमोस्ट अपनी मदर से टाक करने के जैसा है. कितना अच्छा थाट है! यही होता है कल्चर या क्या कहते हैं उसको- संस्कार (अब इसके लिये कोई प्रापर इंगलिश वर्ड ही नहीं है, यही तो प्रूव करती है अपने कल्चर की रिचनेस )


सिटीज की तो बात ही छोड़ दो, विलेजेज में भी बड़ा क्रेज़ हो गया है. बिहार से रीसेंटली अभी एक मेरे फ्रेंड के फादर-इन-ला आये हुए थे, बताने लगे - 'एजुकेसन का कंडीसन भर्स से एकदम भर्स्ट हो गया है. पटना इनुभस्टी में सेसनै बिहाइंड चल रहा है टू टू थ्री ईयर्स. कम्प्लीट सिस्टमे आउट-आफ-आर्डर है. मिनिस्टर लोग का फेमिली तो आउट-आफ-स्टेटे स्टडी करता है. लेकिन पब्लिक रन कर रहा है इंगलिश स्कूल के पीछे. रूरल एरिया में भी ट्रैभेल कीजिये, देखियेगा इंगलिस स्कूल का इनाउगुरेसन कोई पोलिटिकल लीडर कर रहा है सीज से रिबन कट करके.किसी को स्टेट का इंफ्रास्ट्रक्चरवा का भरी नहीं, आलमोस्ट निल.' (अपने ग्रैंडसन से भी आर्ग्युमेंट हो गया, सीजर-सीजर्स के चक्कर में उनका. मुँगेरीलाल जी डामिनेट कर गये इस लाजिक के साथ - 'हमको सिंगुलर-पलूरल लर्न कराने का ब्लंडर मिस्टेक तो मत ट्राई करियेगा, हम ई सब टोटल स्टडी करके माइंड में फिल कर लिया हूँ और हम नाट इभेन अ सिंगल टाइम कोई लीडर का राइट हैंड में सीजर देखा हूँ मोर दैन भन. सो हमसे तो ई इंगलिस बतियायेगा मत, नहीं तो अपना इंगलिस फारगेट कर जाइयेगा.' लास्ट सेंटेंस में हिडेन थ्रेट को देखकर ग्रैंडसन साइलेंट हो गये )


कभी लेजर में बैठ के सोचो कितना ऐनसिएंट कल्चर है इंडिया का . लैंगुएज, कल्चर, रिलीजन डेवेलप होने में, इवाल्व होने में कितने थाउजेंड इयर्स लगते हैं.

हमारे वेदाज, पुरानाज, रामायना, माहाभारता जैसे स्क्रिप्चर्स देखिये, क्रिश्ना, रामा जैसे माइथालोजिकल हीरोज को देखिये, बुद्धिज्म, जैनिज्म, सिखिज्म जैसे रिलीजन्स के प्रपोनेन्ट्स कहाँ हुए? आफ कोर्स इंडिया में.

होली, दीवाली जैसे कितने कलरफुल फेस्टिवल्स हम सेलिब्रेट करते हैं. क्विजीन देखिये, नार्थ इंडिया से स्टार्ट कीजिये, डेकन होते हुए साउथ तक पहुँचिये, काउण्टलेस वेरायटीज. फाइन आर्ट्स ही देखिये क्लासिकल डांसेज. म्यूजिक, इंस्ट्रूमेंट्स - माइंड ब्लोइंग!

अरे हम इंडियन्स को तो तो ग्रेटफुल होना चाहिये कि हेरिटेज में हमको यह सब मिला, फिर भी एक रैट-रेस मची हुई है कि कौन मैक्सिमम एक्सटेंट तक फारेनर बन सकता है. नेशनल प्राइड भी कोई चीज है या नहीं?


हम तो एक सिंसियर अपील ईशू कर सकते है कि सारे ब्लागर लोग तो एजुकेटेड क्लास से है. अच्छी जेन्ट्री यहाँ आती है, डेली ब्लागिंग के लिये आप हिन्दी स्क्रिप्ट यूज करते हैं, आप लोग ऐट लीस्ट केयर करें, रेगुलर कनवरसेशन में हिंदी बोलें, किड्स को मिनिमम रीड और राइट करना तो टीच कर ही सकते हैं. अब मिडिल-क्लास ही तो नेशन के फोरफ्रंट पर होता है, यह चेंज एलीट-क्लास की कैपेसिटी के बाहर का मैटर है. इस मिशन के लिये नेसेसरी है डेडिकेशन, डिवोशन, कोआपरेशन, कनविक्शन, ऐम्बीशन. और इन केस आपके कुछ सजेशन हों तो मेल करें, हेजिटेट न करें.

हमारे हार्ट में जो काफी टाइम से कलेक्ट हो रहा था, उसको तो पोर कर दिया और ट्रू इंडियन की तरह जेनुइनली इवेन होप भी कर रहे हैं कि रिजल्ट अच्छा होगा.

बट क्या ये एनफ होगा?

Monday, November 22, 2004

ब्लागिंग के इस घाट पर, भई संतन की भीड़

भाँति-भाँति के प्राणी चिट्ठा-संसार में विचरते हैं. कोई इसकी नकेल कानपुर से संभाल रहा है तो कोई इंडोनेशिया से. कोई कुवैत की माटी ( अररर... बालू) खोदे है तो कोई मुंबई-पूना मार्ग में ही कैफे ढूँढ़ रहा है कि वहीं से ब्लागिंग के बाण चला दिये जायें. किसी ने रतलाम के चूहों को चुनौती दे रखी है कि देखें कौन ज्यादा अखबार कुतरता है तो अंबाला से सैन होजे, कानपुर से डलास, कलकत्ता से पोर्टलैंड पधारने वाले आमों, जलेबियों और पापड़ों से फुरसत पाते ही ताल ठोंक देते हैं. अभी तत्काल एक्सप्रेस भी पलेटफारम पर लेट से आ लगी है. आओ ठाकुर आओ!

'यह सब ऐसा किस प्रयोजन से करते हैं और इनके मन में क्या है?' - ऐसा प्रश्न हमने उत्सुक होकर केजी गुरू से किया था. उल्टे केजी गुरू ने हमसे प्रतिप्रश्न किया कि हे वत्स ब्लागिंग क्या है.


हम बोले कि हमरी मूढ़मति हमको यही बताती है और जो कि फुरसतिया को हम और हमसे टोप कर फुरसतिया दुनिया को बतला चुके हैं कि ब्लागिंग एक प्रकार की पेंचिश है जो गाहे-बगाहे लोगों से न्यूनाधिक मात्रा में लीक होती रहती है और थोड़ी-थोड़ी होती रहे तो सबके लिये हितकारी होती है.

केजी गुरू - तो ये ब्लागर कहाँ बसते हैं?
हम - ये मनुष्यों के बीच ही पाये जाते हैं. इंटरनेट पर इनमें झुण्ड में होने की प्रवृत्ति भी पायी गयी है. इनके फलने-फूलने के लिये झुंड का होना जरूरी है. अकेला ब्लागर भटकी हुई आत्मा होता है जो हाथ में मोमबत्ती लेकर 'आयेगा आने वाला' या 'कहीं दीप जले कहीं दिल' वाली मुद्रा में बेचैन रहता है.

केजी गुरू - ब्लागर के लक्षण क्या हैं?
हम - ठीक-ठीक तो ज्ञानी जन भी नहीं बता पायेंगे. पर इस प्राणी का व्यवहार उसी प्रकार होता है जिस प्रकार किसी निमंत्रण में मुफ्त के मिष्ठान्न की आशा रखने वाला सदैव आतिथेय से बगल वाले अतिथि के लिये और मिठाई लाने को कहता है.
केजी गुरू - कृपया आशय स्पष्ट करें.
हम - जैसा कि फुरसतिया मुनि बतला चुके है ऐसी प्रजाति के लोग पहले दूसरे के ब्लाग की तारीफ करते हैं, फिर भाग कर अपना ब्लाग पूरा करते हैं.


केजी गुरू - किस तरह की ब्लागिंग ज्यादा लोकप्रिय होती है?
हम - ब्लागिंग वही लोकप्रिय होती है जो लोगों के 'तन'-मन को छू जाये. अभी-अभी एक कन्याराशि के अंगरेजी ब्लाग को लोगों ने पढ़ा, टिप्पणियाँ कीं, उसका हिंदी में अनुवाद किया, अनुवाद पर टिप्पणियाँ कीं, टिप्पणियों पर टिप्पणियाँ कीं, उसी ब्लाग पर आधारित स्वतंत्र ब्लाग लिखे, फिर उन पर भी टिप्पणियाँ कीं. कई लोग इस प्रक्रिया में ज्ञानी कहलाये, कई स्वघोषित मूढ . भलमनसाहत की हद हो गयी इन दिनों.


केजी गुरू - उस ब्लाग ने किस प्रकार लोगों के तन-मन को छुआ सो समझायें.
हम- कन्याराशि तो योंही लोगों के मन को छू लेती है, साथ में कविता में प्रेम की अभिव्यक्ति शरीर के स्तर पर हो तो पुरुष- मन भावुक हो जाता है, कमजोर हो जाता है. लोकप्रियता भाव-विह्वलता के इन्हीं क्षणों की साक्षी होती है.


कई गंभीर जन मजाकिया बने तो कई विदूषकों ने इम्प्रेशन मारने की हद तक मनहूसियत ओढ़ डाली. कइयों ने लिंग-परिवर्तन की सलाह दी तो कई फिरी-फण्ड की महिमा बखानते हुए अपने नाम का ही लिंग-परिवर्तन करने को तैयार हो गये.

केजी गुरू - 'यानी मैं तेरे प्यार में क्या-क्या न बना'.

इसके बाद केजी गुरू ज़िद पर अड़े कि उनको भी कविता पढ़ायी जाये. कविता पढ़ते वक्त उनकी आँखों में चमक थी. खीसें निपोरन की अवस्था को प्राप्त थीं. बीच में उनकी आँखें भी मुँ दीं तो हमने घबरा कर उन्हें जगाया. वह जगे फिर बोले अभी पाँच मिनट में आते है और वह अंत:पुर में अंतर्ध्यान हुए।


पौने पाँच मिनट में वह और उसके पौने पाँच सेकेण्ड के भीतर गुरूपत्नी का नेपथ्य से प्रवेश हुआ. केजी गुरू का मुँह फुरसतिया के शब्दों में झोले सा लटका था और गुरूपत्नी (हमार भौजी) की त्योरियाँ आसमान पर चढ़ी थीं. ऐसे मौके पर ज्ञानियों ने पतली गली का प्रयोग विधिसम्मत माना है. पर हम कुछ मूढ़तावश और कुछ जड़तावश वहीं जड़वत खड़े रह गये.

गुरूपत्नी ने धुँआधार सवा मिनट का जो लेक्चर झाड़ा उसमें 'बुढ़ापा', 'चोंचले', 'शरम', 'परलोक', 'बड़े बच्चों का लिहाज' इत्यादि का समावेश था. फिर वह केजी गुरू को हमसे 'कुछ तो' सीखने की हिदायत देकर अदृश्य हुईं. उनके जाते ही केजी गुरू ने हमको आँख मारी और कहा -
'वाह गुरू, धाँसू चीज है.'

यानी हम गुरू के गुरू हो गये यह बताकर, गुरूघंटाल की पदवी से थोड़ी ही दूर.


इस तनाव भरे दृश्य की पृष्ठभूमि यह थी कि केजी गुरू अंदर जाकर वही कविता गुरुआइन को सुना आये थे उन्हीं को संबोधित करके अपनी लिखी हुई बता कर. बस कविता में उन्होंने 'मैं' को 'तुम' और 'तुम' को 'मैं' से बदल दिया था.

केजी गुरू मंद-मंद मुस्काते हुए अभी-अभी सुने हुए लेक्चर को दूसरे कान से निकालते हुए बोले - तुम भी कुछ लिखोगे ज़रूर इस पर, ऐसा हमें लगता है.

अब जब 'ऐसा लगता है तो लगने में कुछ बुराई नहीं', सो हम बोले - गुरू की आज्ञा सर आँखों पर.

केजी गुरु बोले - अब तम्हारे पहले प्रश्न का उत्तर तुम्हें प्राप्त हो गया होगा, सो अब जाओ और सुखपूर्वक ब्लागिंग करो. हमारा आशीर्वाद तो तुम्हारे साथ हई है.

हमने आदरपूर्वक केजी गुरू को प्रणाम किया और घर की राह ली.

Thursday, October 21, 2004

वीरगति का अर्थशास्त्र - परदेस में - २

....गत भाग से आगे..

खैर फोन तो अपने ऊपर था, नहीं उठाया. लेकिन कुछ लोग ऐसे कलाकार होते हैं कि फिर टेक्नालाजी पर उतर आते हैं और दोस्ती का फायदा उठाकर ईमेल में सीधे पूछ डालते हैं कि क्या हुआ. वैसे तो 'जेन मित्र दुख होंहि दुखारी' का जाप करेंगे और फिर दोस्तों से पत्थर खाने के किसी किस्से पर सेंटी हो जायेंगे. मन तो ऐसे ही खराब है, लेकिन इससे क्या फरक पड़ना है ऐसे लोगों को.

हमारे मित्र हरजिन्दर ने हमको पट्टी पढ़ायी और कहा कि बात करो इंश्योरेंस कंपनी से और बताओ कि गाड़ी बनवा भी दोगे फिर भी उसकी कीमत पुरानी नहीं मिलेगी. ऐक्सीडेंट का ठप्पा तो लग ही गया है. लागा चुनरी में दाग! खरीदने वाला पहले ही बिदक जायेगा. बात करो और गाड़ी की डिमिनिश्ड वैल्यू का अंतर माँगो.

इस प्रकार सीख-पढ़कर हम दावा संयोजक (क्लेम ऐडजस्टर) से फिर बतियाये और बोले - क्यों भाई, बनवा तो दोगे, हम तैयार भी हैं, लेकिन गाड़ी की जो कीमत कम होगी उसका क्या?दावा संयोजक थोड़ी देर चुप हो गये, जिसका अर्थ हमने यह लगाया कि हमारी चतुराई के आगे इनकी बोलती बंद हो गयी है. (हमसे टक्कर!) फिर वह अपनी ईमानदारी की दुहाई देते हुए बोले ('टू बी आनेस्ट') कि हम चाहें तो यह क्लेम भी फाइल कर सकते हैं लेकिन कुछ होगा नहीं, काहेसेकि हमारी गाड़ी पुरानी है.

हमने थोड़ा भुनभुनाने की कोशिश की. यह उस तरह के ग्राहक के लक्षण हैं जिसके पास और कोई चारा न बचा हो. इस दशा में इस कोशिश का मतलब सिर्फ यह जताना था कि देखो हमारे पास शब्द तो ज्यादा नहीं हैं और तुम जो कर रहे हो वह कितना भी ठीक हो लेकिन इतना बताय देते हैं जिसको तुम भी सुन लो कि हम इस नये घटनाक्रम से बहुत खुश नहीं हैं.

इस प्रकार हमने कस्टमर- धर्म को इस घड़ी में निबाहा. उसने थोड़ी देर तो हमारा मान रखा लेकिन वह भी पुराना खुर्राट था. उसने कहा - आपके पास सिर्फ एक विकल्प और बचता है वह यह कि हमसे मरम्मत खर्च ले लें नकद और गाड़ी ले जायें जस की तस. फिर जो करना है करें. किसी कबाड़ी को भी बेंची जा सकती है जो शायद हजार-पाँच सौ दे दे.

चूँकि इंश्योरेंस वाला था सो जाहिर था वह कबाड़ियों में उसी प्रकार लोकप्रिय था जिस प्रकार ठेकेदारों-सप्लायरों के बीच किसी मलाईदार सरकारी विभाग का खरीद अधिकारी. सो उसने एक नम्बर भी दिया. फोन किया हमने वहाँ पर. निक से बात हुई, बोले हम गाड़ी देख कर आते हैं फिर बतायेंगे. एक घंटे में उसने वापस फोन किया और बताया कि ८०० तक दिये जा सकते हैं हमारी शान की भूतपूर्व सवारी को. हमने हिसाब लगाया कि मरम्मत खर्च और कबाड़ मिला कर हाथ में कुल ४८०० मिलेंगे. कहाँ ७००० और कहाँ ४८००. सारा फील-गुड फैक्टर धराशायी हो गया.

हमारे सामने कोई रास्ता नहीं बचा, झख मारकर हम गठबंधन की किसी संतुष्ट पार्टी के असंतुष्ट विधायक-सांसद की तरह ( 'जो मिल रहा है उसे दाब लो नहीं तो उससे भी हाथ धो बैठोगे' जैसी भावना के वशीभूत होकर) तैयार हो गये जनहित में पुरानी गाड़ी को ही बनवाने को.

हम इंश्योरेंस वाले की विजयी मुसकान फोन पर ही सुन रहे थे. चूँकि एक आदर्श अमरीकी उपभोक्ता के सारे दाँव हम खेल चुके थे और सामने वाला भी सारी जवाबी चालें चल चुका था और हम दोनों एक दूसरे से थोड़ा-थोड़ा ऊब चुके थे, इसलिये अब एक दूसरे को बाई-बाई किया गया.

अब लौट के आते हैं इन सब तमाशों के चश्मदीद गवाह पर जो हर पुलिसिया पूछताछ के समय घटनास्थल पर नहीं पाया जाता है यानी अपने भगवान जी पर. इतने सारे व्रत-उपवास, मंदिर विजिट, प्रसाद चढ़ावा और यह फल मिला भक्त को. हो कि नहीं हो? (अगर अपना भारतीय ठुल्ला एक डण्डा दिखाकर यही पूछ ले तो शायद भगवान भी 'नहीं' कह दें). नहीं होगे तो हमें दोषारोपण के लिये फिरी फण्ड का और कौन मिलेगा. अभी तो सहारा है - भगवान का, पिछले जनमों के कर्मों का. लोग परीक्षाओं में नकल करते हुए पकड़े जाते हैं और ऊँट की भाँति गर्दन ऊपर उठाकर कह देते हैं कि किस बात की सजा दे रहे हो. घर में दो लड़कियाँ पैदा होते ही लोग पिछले जनम के कर्मों का खाता खोल के किसी पाप अकाउंट मे डाल देते हैं.

हमने केजी गुरू के सामने दो-चार इस तरह के डायलाग बोले. केजी गुरू ने हमारे कंधे पर हाथ रखकर पुराना डायलाग रिपीट किया जो गाड़ी के ठुकने के तुरंत बाद मारा था - होनी को कौन टाल सका है. हमारा तो मन किया कि भगवान को सामने रख के डीवीडी पर 'दीवार' फिल्म चला दें. क्योंकि हमारे डायलाग तो बेअसर हो चुके थे. अब जब अमिताभ कहेंगे - 'आज तो तुम बहुत खुश होगे' तब सबसे ऊँची आवाज में ताली हमारी बजेगी. फिर सोचा इस ज़माने में इन सब दोषारोपणों से काम तो नहीं चलेगा. आजकल के ज़माने में हम किसी को 'दागी' कहेंगे तो उल्टा हमारे ऊपर ही आरोप आ जायेगा कि क्यों तुमने भी तो नौकरी लगने से पहले जो १२५ रुपये के प्रसाद का वादा किया था उसे पचास में ही निपटा गये.

फिर हमें कालेज का ज़माना याद आया कि हम भगवान को किस भाव से (और कब) याद करते थे. सूरदास सखा भाव से देखते थे तो मीरा प्रियतमा के रूप में और तुलसी बाबू तो दास ही बन गये. हम तो जब भी दूसरे दिन कोई कठिन पर्चा होता था, एक ब्लैकमेलर की भाँति देखते थे और इसके लिये ज्यादा दूर नहीं अपने जलोटा साब को याद करके गाते थे -
कभी-कभी भगवान को भी भक्तों से काम पड़े (हाँ, समझ लेना)
जाना था गंगा पार, प्रभू केवट की नाव चढ़े (अब समझ में आया मामला कि ठीक से समझायें. ये डायलाग हमने चौबे जी से चुराया है, वो शुरू तो इसी वाक्य से करते हैं पर अंत में जो स्पेशल इफेक्ट डालते हैं वह जानमारू होता है और इलाहाबादी भाषा में तोड़ू होता है जब वह दूसरे को हड़काते हुए स्वयं को तमाम विशेषणों से संबोधित करते हैं जैसे कि 'हम बहुत कमीना इंसान हूँ' या पशु प्रेम में 'हम बहुत कुत्ती चीज हूँ'. यदा-कदा ब्रह्मास्त्र के रूप में इन विशेषणों में माताओं- बहनों के प्रति अनसेंसर्ड प्रेम भी झलकता है. जानकार बताते हैं कि उनका ये वार कभी खाली नहीं गया. सामने वाला बिना गाली खाये ही समझ लेता है समझने वाली बात.)

और हम देखते हैं कि इस कलिकाल में इससे बढ़कर कोई दवा नहीं है. किसी का काम अपने पास फँसा हो तो अपने सौ काम निकलवा लो, बंदा ही-ही करते हुए , दाँत निपोरते हुए करता जायेगा अपना काम निकने तक. (काम निकल जाने पर रोल की अदला-बदली शास्त्रसम्मत है.) इसका प्रूफ भी साक्षात् है, सारे सब्जेक्ट बिना लाली के निकाल ले गये.

फिलहाल गाड़ी जिसे हम प्रतिष्ठापूर्वक फोर्सफुली वीरगतिप्राप्त करार देने पर तुल गये थे अब पीठ पर घाव खाये हुए श्रीहीन योद्धा की भाँति इस हफ्ते घर वापस आ रही है. हमको चिंता हो रही है, हमारे पड़ोसी जो हमेशा ज़ल्दी में ही रहते हैं इस बीच एक दिन दूर से ही हमें आते देख कर खड़े हो गये लेकिन हम भी अब थोड़ा चतुर हो गये हैं सो दाँव देकर निकल गये.पर अब तो हमको भी लगने लगा है कि हमसे कुछ नहीं हो सकता.यहाँ ब्लागजगत में बड़े-बड़े सूरमा हैं जिनकी गाड़ियाँ इज्जत से शहीद हुईं, कुछ फंडे हमें भी बताओ यार!

Thursday, October 14, 2004

भारतीय होने के मायने - अमरीका में

पोर्टलैंड में हर साल अगस्त में भारतीय स्वतंत्रता-दिवस समारोह ने एक परंपरा का रूप धारण कर लिया है. भारतीय समुदाय इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है. यह समारोह खुले आकाश के नीचे पायनियर कोर्ट हाउस स्क्वायर में सम्पन्न होता है. दिन भर के इस समारोह में रंगारंग गीत-संगीत नृत्य इत्यादि की बहुलता रहती है. कहना न होगा इसमें बम्बइया फिल्मों का असर ज्यादा होता है.

खैर, तो इस बार लेख प्रतियोगिता का भी आयोजन था तीन आयु वर्गों में और अपने-अपने आयु-वर्गों में हमारे पुत्र (Topic - What does being an Indian mean to you?') और पुत्री (Topic - Improving Indo-Pakistan relationship) ने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किये.

हमारे सुपुत्र पैदायशी अमरीकी नागरिक हैं परंतु उन्हें अपने भारतीय होने पर कुछ ज्यादा ही घमंड है. इन्हें अगर अमरीकी बताया जाय तो हिंसा पर उतारू हो जाते हैं. दाल-चावल इनकी फेवरिट डेलिकेसी है. किसी युद्ध के दृश्य को देखते हुए इनका पहला प्रश्न भारतीय दारोगा की मुद्रा में यही होता है कि अगर भारतीय और अमरीकी सेना में युद्ध हो जाय तो कौन जीतेगा. उत्तर भारतीय सेना के पक्ष में देने पर संतुष्ट होकर अपने काम में लग जाते हैं. अगर दूसरा कुछ जवाब मिले तो सामने वाले को दूसरी पार्टी का समझ कर शत्रुगत व्यवहार करते हैं और यह तनातनी समाप्त करने में और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण स्थापित करने में कई चाकलेट और कैंडियाँ अकाल मृत्यु को प्राप्त होती हैं. अपने विषय पर लिखवाने में मुझे जब नाकों चने चबवा दिये, कई वादे करवा लिये, आइसक्रीम और वीडियो पार्लर के चक्कर लगा आये तब अपने अनमोल विचार इन्होंने किस्तों में प्रकट किये जो हमने नोट किये. लीजिये, हाजिर हैं -



WHAT DOES BEING AN INDIAN MEAN TO YOU
By Devanshu Awasthi (8)
Grade 2nd


What do I mean by being an Indian? When my dad asked me this, I thought “Nothing”.
Then I thought it must be something.

My dad says being an Indian means being respectful to elders.
My mom says being an Indian means being polite and well mannered.
My grandpa say being an Indian means being part of an ancient culture.
My grandma says being an Indian means being part of a big family.

Being an Indian, I speak Hindi. Being an Indian, I can also speak English.

I like to watch Pokemon. Being an Indian, I love stories of Hanuman.

Being an Indian, I call my dad’s friends uncles.
Being an Indian, I call my mom’s friend’s aunties.

Being an Indian, I love Pizza. Being an Indian, I love Roti-Daal.
I like French fries. I love Bhelpuri.

Being an Indian, I can sing “This land is my land!”
Being an Indian, I love to sing “Vande Maataram!”

I say Hi to my American friends. I say Namaste to my uncles and aunties.

I love to play soccer. I have begun to like cricket too. ( I know that Sachin dude!)

I am proud of Indian Army. Being an Indian, I do not like fights (except on the video games).

I love to have gifts on Diwali. I just can’t wait for Santa on Christmas.

Now I think - being an Indian, I AM PROUD CITIZEN OF THE WORLD.



Tuesday, October 12, 2004

एक कविता

कोयल की कूक

जब जगाये हृदय में हूक

समझ लेना निमंत्रण है मेरा

मौन मूक

Monday, October 11, 2004

वीरगति का अर्थशास्त्र - परदेस में

बहुत दिनों से हम छिपे छिपे घूम रहे थे नज़रें बचाते हुए. यहाँ तक कि बचाने की जरूरत भी नहीं पड रही थी क्योंकि डाउट हो रहा था कि हम तो गिर ही गये हैं नजरों से. बच्चे तक बाजार भाव गिरा चुके थे. हमें कई बार जता दिया गया था कि अब हमसे कुछ नहीं होना.

हर आने जाने वाले की निगाह हमको अंदर तक भेदती लगती जैसे पूछ रही हो - इतना भी नहीं कर पाये. हमको तो इस लोक की छोडो परलोक तक में अकाउंट आडिट कैसे होगा इसकी चिंता सताने लगी थी.

महीने भर पहले जब सुना कि फलाने की गाड़ी ठुक गयी है तो कई लोग बधाई देने पहुँचे. सब पूछने लगे कि अब कौन सी खरीदनी है तो साँप सा लोट गया मन में. एक सज्जन तो इधर-उधर देखने के बाद आँख बचा के नयी गाडी और नयी बीवी की तुलना करने लगे. हम चुप बैठे रहे. हमने शोक प्रकट किया लेकिन जिनकी गाड़ी ठुकी थी उनकी खिली हुई बाँछों के आगे ऐसा लगा ज्यों हमीं ठुक गये.

खैर, भगवान हैं और जब लोगों के पापों का घड़ा तानों से भर गया तो एक जीप चालिका के रूप में १५ मील प्रति घंटे की रफ्तार से प्रकट हुए. हुआ यों कि हमारे ७ वर्षीय सुपुत्र बोले कि आज हम बस से स्कूल नहीं जायेंगे और हम बापपने में उनको ज्ञान देने में उतारू हो गये कि बस से जाना किस प्रकार एक सामाजिकता की निशानी है. बहुत दिन बाद कोई हमारी सुन रहा था ऐसा हमको लगा, इस चक्कर में हम कुछ ज्यादा ही समझा गये और फाइनली बस छूट ही गयी.

भुनभुनाते हुए हम और मुस्कुराते हुए हमारे सुपुत्र सवार हुए हमारी टोयोटा कोरोला में. स्कूल पहुँच कर पुत्र को उतारा और बाई बाई करते हुए गाड़ी बढ़ाने लगे. इतने में हमसे आगे वाले ने भी अपने बालक को उतार कर गाड़ी आगे बढ़ानी शुरू कर दी, लिहाज़ा हम रुके. हमारे वीर बालक ने अभी तक हमको बाई-बाई करना नहीं छोड़ा था सो हम भी फिर से बाई कर ही रहे थे कि अवतरण एक धड़ाम की आवाज के साथ हो गया. हमें पीछे से आदर्श तरीके से शास्त्र- सम्मत विधि से ठोंक दिया गया था.

सब कुछ उपयुक्त था. गाड़ी ९ साल पुरानी हो चुकी थी, सो समय उचित था. हमें ठोंका गया सो अवसर उपयुक्त था. ठोंकने वाली 'I am so sorry' का अखंड पाठ कर रही थी सो मामला भी चकाचक था. हम अपने को परंपरागत तरीके से चुटकी काट कर वास्तविकता कन्फर्म भी कर चुके थे, सो जो हुआ था, वह अवश्य ही हुआ था. बकौल श्रीलाल शुक्ल हमारी बाँछें भी जहाँ कहीं थीं खिल पड़ीं थीं. हमने आकाश की तरफ देखा शायद इस दुर्लभ अवसर का दर्शन करने देवगण भी पधारें हों. तभी हमारे कानों में चिंगलिश आवाज पड़ी - ' If you need any assistance, you may take my phone numer'. यानी एक चीनी महिला इस क्षण की साक्षी बनने को भी तैयार थीं.

अब अमरीका में यही होता है. कहीं कुछ हो जाय और गवाह अगर है तो वह अपना काम छोड़ कर आपको अपना कार्ड या फोन नंबर थमा जायेगा. कई बार तो मुजरिम को भी आफर दे जाते हैं जिसे नम्रतापूर्वक रिफ्यूज करने का रिवाज है क्षमाप्रार्थी बनकर. इसपर 'नेवर माइंड' का प्रसाद भी प्राप्त होता है.

खैर हमने गवाहश्री या सुश्री (चौबे जी हमेशा इसे सुसरी उच्चारित करते हैं) का नंबर लिया और धन्यवाद ज्ञापित कर बढ़े श्री १००८ जीप चालिका की ओर. उसने पहले हमारा लाख शुक्रिया अदा किया कि हम क्रुद्ध नहीं हुए उस पर. इसपर हमने भी गंभीरता का तानाबाना ओढ़ते हुए कुछ फिलासफी झाड़ी जिसका तात्पर्य घिसा पिटा था जैसे कि जब-जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है इत्यादि.फिर बीमा, लाइसेंस इत्यादि सूचनाओं का आदान प्रदान हुआ फिर हम चल पड़े घर की तरफ सीना फुलाए हुए.

गाड़ी चल-फिर सकती थी, सिर्फ पिछवाड़े का बेड़ा गर्क हुआ था. रास्ते भर हम गर्दन उचका के इधर उधर ताकते रहे कि मिले अब कोई हमें यह सब बताने को पर लानत हो इस जगह पर जहाँ पर पान की दुकानें तक नहीं होतीं, जहाँ पर हम जाकर छाती ठोंक कर कह सकते कि देखो हमने भी गाड़ी ठुकवा ली है, अब बोलो क्या कहते हो.

घर पहुँच कर हमने चाय माँगी (खुद नहीं बनायी) और हमें अपनी आवाज में गरज का भी आभास हुआ. और थोड़ी देर गंभीरता ओढ़े चुप भी बैठे रहे, पर हमेशा की तरह इस बार भी इस भावखाऊ अवस्था में हमें अकेला ही छोड़ दिया गया तो हमसे रहा नहीं गया और हम टप्प से बोल पड़े - अरे सुनती हो , आज गाड़ी का ऐक्सीडेंट हो गया.
हमें अविश्वास भरी नजरों से देख के सवाल पूछा गया - तुमने किया या किसी और ने.
हमने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा - हमारे होते हुए मजाल है जो और कोई ठुकवा ले.
इस पर हमें 'चल झूठे' जैसी नजरों से देख के फिर पत्नी ने पूछा - सच?जिसपर हम किसी फिल्म से सीखे संवाद तुरंत बोल दिये - मुच!
फिर हमने सारी कहानी सुनायी और पाया कि बीच-बीच में गैर-जरूरी ढंग से हमारे मुँह से कई बार 'खी-खी' 'ही-ही' जैसी निरर्थक ध्वनियाँ भी उत्सर्जित हुई।

हमारा भाव अचानक बढ़ गया था. चाय के साथ पराठे और गुलाब-जामुन भी मिले. हमने भी मौका पाकर कहा कि भई पराठे तो हम गरम ही खाते हैं और लो भैया गरम पराठे भी हाजिर.

अभी सुबह के ९:१५ ही हुए थे. हालांकि दफ्तर को देर हो रही थी, मगर हमसे बिना बाहर निकले रहा न गया शायद कोई शिकार मिल जाये जिसे हम ये जो कथा है पुरुषार्थ की उसे सुना सकें. जैसे ही निकले हमारे देसी पड़ोसी बाहर गराज की तरफ आते हुए दिखायी पड़े. उनकी गाड़ी बाहर ही खड़ी थी. वह हमें बिना देखे ही गाड़ी में घुसे जा रहे थे कि हमने लगभग दौड़ते हुए उनको टोका - 'क्यों भाई, आज देर हो गयी क्या?'
वो जल्दबाजी में बोले - 'हाँ' , फिर पूछा - छुट्टी ले रखी है आज?
इसी मौके के इंतजार में हम थे. हमने जब तक भूमिका बनानी शुरू की -'नहीं भाई हमें भी देर हो रही थी लेकिन क्या करें...' लेकिन वो तबतक कार के शीशे चढ़ाने लगे थे. हमने जल्दी में बताने की कोशिश की लेकिन तबतक वो बाई करके निकल गये.

हम बड़े अनमने ढंग से लौटे, तैयार हुए दफ्तर जाने को. वहाँ से अपनी इंश्योरेंस कम्पनी को फोन किया, सारे विवरण लेते समय कम्पनी ने बड़ी चिंतातुर आवाज में यह भी पूछा कि हम ठीक तो हैं जिसके उत्तर से सिर्फ इतना तात्पर्य होता है कि इलाज में तो पैसे नहीं खर्चने पड़ेंगे.
फिर दफ्तर में सबको देर से आने का कारण बताया. वहाँ कइयों ने दुख प्रकट किया, तो कई आँख मारते हुए बोले - 'सही है'. लेकिन गोरों के साथ वो मजा कहाँ. यहाँ तो लोग बड़े निर्लिप्त भाव से दुख प्रकट करते है, या धन्यवाद करते हैं. अगले ही पल गियर बदल कर दूसरी बात करने लगते हैं. ठुकी हो किसी कि कार तो इनकी बला से. न वो मन ही मन खुजली न वो आँखों में ईर्ष्या. कुछ मजा न आया. किसी देसी को रस लेकर बताओ तो पहले हाथ मलते हुए वह सुनेगा, फिर ईर्ष्या को छिपाते हुए बधाई देगा, फिर घंटे-दो घंटे टहल-वहल कर आयेगा और घुमा-फिरा कर इधर उधर की बातें करने के बाद टोह लेने की कोशिश करेगा कि सचमुच ऐसा कुछ हुआ था और हम इन सब हरकतों को देखते हुए अनदेखा करते हुए मन ही मन एक सुख भोगते रहेंगे. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. शाम को भारी मन से घर लौटे.

पर हमने लगता है अपनी पत्नी की कुशलता पर कुछ कम ही भरोसा किया था. यह समाचार दूर-दूर तक के देसियों में विविध भारती से भी ज्यादा तेजी से फैल चुका था और जब तक हम घर पहुँचे तब तक भारी भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी. देसी भाँति भाँति के कपड़ों में. ऐसे-ऐसे लोग दिखे जो पिछली दो-चार होलियों-दीवालियों में भी नहीं दिखे थे. जैसे ही हम घुसे शोर सा मचा - 'आ गये, आ गये'. हमारे अभिन्न मित्र केजी गुरू ने हमें गले लगा लिया. हमें कई ऐंगल से देखा जा रहा था, निहारा जा रहा था, घूरा जा रहा था.

अचानक किसी ने पूछा - 'चोट तो नहीं आयी?'. वाकई सुबह से किसी का ध्यान ही इस पर नहीं गया था. हमने फिर से भाव खाने की कोशिश की और पत्नी की तरफ ऐंठते हुए देखा. कई लोगों की साँसें थम गयीं. हम ऐंग्री यंग मैन के इस अवतार में अपने को सफल ही समझ रहे थे कि तुरंत उस पर पानी फेर दिया गया हमारी धर्मपत्नी द्वारा - 'अब जब सुबह से अभी तक कुछ नहीं हुआ तो ठीक ही होंगे.' इस दाँव के बाद हम फिर से नार्मल यानी बैकग्राउंड में हो गये थे और पत्नी सबको बता रही थी कि कैसे क्या हुआ था. हम चकित कि इतने विवरण कैसे पता, ये तो हम भी बताना भूल गये थे. पता चला हमारे सुपुत्र जो घटना के समय बाई-बाई कर रहे थे, सारी घटना के चश्मदीद गवाह थे और स्कूल से घर आकर सब कुछ बतला चुके थे और जो नहीं बतला पा रहे थे वह भी खोद कर उनसे उगलवा लिया गया था. इस तरह सारी घटना का श्रेय हमसे छीन कर जीप चालिका को पहले ही दिया जा चुका था.

इतने में किसी देसी के पिताजी जो आजकल भारत से पधारे थे, आ गये और बधाई दे डाली. हमने सुसंस्कृत भारतीय की भाँति कहा - 'सब आप बुजुर्गों का आशीर्वाद है'. हमारी विनयशीलता पर वह प्रसन्न हुए और आगे भी ऐसा होता रहे जैसा कुछ आशीर्वाद देकर चले गये. केजी गुरू थोड़ा गंभीर हुए और उदास स्वर में कहने लगे - 'भई कुछ भी हो, अच्छी गाड़ी थी'. सबने हाँ में हाँ मिलायी. केजी बोले - 'टोयोटा की बात ही अलग होती है, चलती थी तो सन-सन, पानी की तरह. लेकिन होनी के आगे किसकी चली है!'. केजी गुरू पूरे मूड में थे और सीरियस होने की नौबत आ पहुँची थी. हमने गुरू को कुहनी मार कर श्रद्धांजलि कार्यक्रम को अकाल समाप्त कराया.

दूसरे दिन दफ्तर पहुँच कर फिर इंश्योरेंस कं० को फोन किया तो पता लगा कि गाड़ी की मरम्मत का खर्च वर्तमान कीमत से ज्यादा लग रही है, अतएव वह वीरगति को प्राप्त हो गयी है यानी टोटल, लेकिन बाजार भाव का आधिकारिक रूप से पता किया जा रहा है, सो तब तक धैर्य धरें. हमने खुशी को छिपाते हुए इस सत्य को स्वीकार किया. सब कुछ आशानुरूप चल रहा था. हम अखबारों में नयी गाड़ियों के इश्तिहार देखने लगे थे.

लेकिन हाय री किस्मत ! दूसरे दिन फोन आया, बोले - कीमत तो गाड़ी की थोड़ी ज्यादा है. हम खुश हुए कि अब तो ज्यादा पैसे मिलेंगे. दावा-संयोजक (क्लेम ऐडजस्टर) बोले - 'अब हमें फिर से एस्टिमेट लेना पड़ेगा, यह देखने के लिये कि क्या मरम्मत खर्च अब भी ज्यादा है गाड़ी की वर्तमान कीमत से'.

हमारी सारी खुशी काफूर हो गयी. अब हम क्या मुँह दिखायेंगे. ऐक्सीडेंट का श्रेय तो जीप चालिका को मिल ही गया था, किंतु इस नये घटनाक्रम का ठीकरा तो हमारे ही सर फूटेगा. अब अगर मरम्मत को गयी गाड़ी तो पुरानी ही गाड़ी हाथ लगेगी, पैसे भी नहीं मिलेंगे, लोगों के ताने और बढ़ जायेंगे और यह स्वत:सिद्ध हो जायेगा कि हमसे तो कुछ नहीं हिलेगा.गाड़ी बेचारी भी वीर सावरकर और वोटशास्त्र की भाँति अर्थशास्त्र की इस बहस में फँस गयी थी कि अब इसे शहीद करार दिया जाय या नहीं.

हम बड़ी मुश्किल में हैं. फिलहाल तो लोगों के फोन नहीं उठा रहे है. यक्षप्रश्न - क्या भगवान हैं?

Thursday, September 16, 2004

इस सादगी पे कौन न मर जाय

विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ कि कहीं स्वागत हो गया हमारा. हम हो चुकने के बाद दौडे पहुँचे, लेकिन तंबू कनातें उखड चुकीं थीं. हम भी दुम दबाये पतली गलियोन्मुख हुए कि ऐसा न हो कि बाकी बिल हमसे वसूले जायें.

एक कथा याद आती है बिहार के आरा नामक पराक्रमी जिले के बाहुबली श्री लल्लन सिंह की, तो श्रम को भुलाने के लिये सुनें. वो किसी तथाकथित लफंगे से नाराज़ थे सो उसको एक दिन रास्ते में मिलने पर यों समझाये - 'भैया देखो अइसा है कि हम हर बात में तो असलहा निकालता नहीं हूँ. काहे हमरी राह में आते हैं? बतिया समझते हैं ना?'
वो सज्जन समझदार तो कम थे, मगर ई बतिया पूरी समझ गये और लल्लन जी के समझाने की अदा के भी कायल हो गये.

इस तरह की सादगी पर तो हम हमेशा कायल रहे हैं. खासकर बिना तलवार या असलहे का योद्‍धा या बिना 'ठेके' का ठेकेदार समझा रहा हो तो हथियार डालने के अलावा चारा कहाँ?

अपने मोरार जी के बारे में हमारे एक मुहल्लीय विद्वान बताते थे कि वो डा. राजारामन्ना को इसलिये चुप करा देते थे कि मोरार जी ने जब अपना बी. एस सी. खतम किया तब राजारामन्ना इस धरती पर अवतरित भी नहीं हुए थे.(बडे ससुर साइंटिस्ट बने हो, हमरे सामने अइसे ही घूमा करते थे).
हम तो 'सबै भूमि गोपाल की' समझ के उतरे हैं यह जानते हुए कि भूमाफिया यहाँ पहले से धमाचौकडी मचाये हैं. अब ये तो अपने यहाँ ही होता है न कि किरायेदार भी जहाँ घुस के बैठ जाता है, वहाँ के चूहे तक बिल छोड जाते हैं पर किरायेदार की सात पुश्‍ते नहीं. आते ही नयी बहुरिया समझ के कम दहेज मिलने के कारण खौरियाई हुई ऐनक चढायी हुई सास की भाँति नुक्‍ताचीनी भी हुई दम लेने से पहले ही, दामन संभालने से पहले ही. अब कैसे समझाँय कि आदमी भात की हँडिया थोडे न होता है कि एक दाना देखा, उँगली में मसला और कर दी आकाशवाणी.अब यही तो मौज है. पर अब जब आय गये हैं हैं तो कुछ खेलेंगे कुछ खिलायेंगे, कुछ झेलेंगे कुछ झेलायेंगे, कुछ मौज तुम लेना कुछ हम लेंगे. इसमें कोई अडचन हो तो 'दुई रोटी और खा लेना'.

ये होली की भाषा वाला मामला समझने में अपना कोर डम्‍प हो गया. बकौल फुरसतिया 'एतना में छटके लगलू !' कहीं बनारस की होली की भाषा सुन लें...

हमारी माताजी अभी तक ट्रेन पकडने के समय टीका लगाते समय हमको बता देती हैं - 'देखो, खिडकी से हाथ बाहर न निकालना और जो है हर स्टेशन पर नीचे पान खाने न उतरना'. हम तो झेल जाते हैं पर हमारे एक मित्र नहीं, जिनकी दादी उनको अब भी दिशा-मैदान जाते देख लें तो उनके मुखमंडल से वात्सल्यपूर्वक छलक पडता है - 'डब्बे में पानी भर लेना पहले'. मित्र बडे दुखी स्वर में बताते हैं कि १२ वर्ष की नादान उमर में जोश (और थोडा कमजोर क्षणों में जब अपने ऊपर नियंत्रण न रहा हो) में बिना पानी लिये चले गये थे, उसकी सजा आजतक भुगत रहे हैं.

तो हम ये कह रहे हैं कि जब उतरे है बेलाग ढंग से ब्लागिंग करने तो हम खिडकी से हाथ बाहर नहीं निकालते और सबकी तरह हमारा डब्बा भी पी सी सरकार के 'वाटर आफ इंडिया' की तरह फुल है सो जानना.

पर एक बात जिस पर मुझे न्‍यूटन के नियमों से भी ज्‍यादा सत्‍य नज़र आता है वह यह कि ट्रिनिटी (किशोर, अमिताभ, आर डी) का कोई भी पंखा होगा वो सीरियसली ठलुआ होगा, इसी लिये चलते- चलते अपन भी मुफ्‍त की सलाह उछाल जाते हैं कि भैया कभी इतने गंभीर न बनना कि मनहूसियत की हदें पार कर जाना. (नहीं तो माँ अपने बेटे से कहेगी कि सोजा नहीं तो उसका ब्‍लाग आ जायेगा)

बाकी भूल चूक लेनी देनी

संतों के मत की प्रतीक्षा में.
(लिखना जरूर, चाहे खुश हो या नाराज, खुश तो मोगाम्‍बो खुश, नाराज तो कौनो बात नाहीं फिर मना लेंगे. काहे सेकि हम मानते हैं कि 'दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये' - यानी जाने कब दिल मिल जाये?)

Tuesday, September 14, 2004

सावधानी हटी, दुर्घटना घटी - १


हम बहुत सोचे और ऐसा हुआ जैसा कि ठेलुहों के साथ परंपरा रही है, सोचते-सोचते पाये कि हम सो गये. ये भी तब जाने जब हमें जगा के बताया गया कि खर्राटे बजाय सोफे के अपनी खटिया में मारे जायें तो ध्वनि प्रदूषण कम होता है और हम नखरेपूर्वक मान गये. लेकिन जब उठे तो देखे कि हम अब भी चिंतन मुद्रा में हैं तो हमें चिंता हुई और हमारे ठेलुहा-धर्म ने हमें धिक्कारा.

तब तक चाय-वाय पीकर हम अपने को उद्धार करने की मुद्रा में आ चुके थे सो जानना. अब जरा चित्त को संभाल मूंगफली टूंगते हुए हम बैठे इस पर चिंता करने कि हम चिंतित क्यों रहे. फिर खतरा भांप के कि ये लगता है फिर चिंतित होने की निशानी है हम चालाकीपू‌र्व‍क फिर कंपोज्ड हुए.

इसी बीच हमारे एक मित्र फुनियाये और छूटते ही पूछे वही सनातन प्रश्न -' का गुरू, क्या मौज हो रही है?' ठेलुहई के इस प्रश्न के पीछे जो 'अत्र कुशलं तत्रास्तु' दर्शन छिपा होता है वह यह कि हम तो मौज कर रहे हैं और मान कर चलते हैं कि तुम भी मौज ही कर रहे होगे और जो नहीं कर रहे हो तो कनपुरिहा इश्टाइल में 'कोई बात हो तो बताना गुरू' जैसा कुछ फेंकने पर क्या उखाड लोगे.

हमारे पिताजी कहते हैं -
ठेलुहों के तीन नाम
गुरू, उस्ताद, पहलवान


अब इस छंद में 'ठेलुहों' वाले स्थान में समय-धर्म अनुसार जो विशेषण बदल लेते हैं, वही इस कलिकाल में ज्ञानी कहाते हैं और ऐसे हमने कई सबूत जुटाये हैं, सो जानना.

देखा जाय तो हमारे ऋषि-मुनि कोई कम ठेलुहा नहीं थे. ये जो हर भजन-पाठ के बाद नारा लगाने की परंपरा रही है - 'सुखिनौ भवन्तु' यानी हम भी मौज करें और तुम भी क्यों चूको? और भी कुछ ऐसा कि सौ शरद जियो और जो है सबकी छाती पर मूंग तो दलो ही. 'निरोग रहो' अ‍र्थात्‍ जब तक मुस्टंडेपन की अवस्था को न प्राप्त होगे तो बाकी सब कार्य कइसे संपन्न होवेंगे, बहरहाल पैकेज डील में यह भी लिये जाओ.

तो हम बता रहे थे कि इसी ऋषि-परंपरा में जो फोन पर 'का गुरू, क्या मौज...' वाला प्रश्न पूछा जाये तो उसका उत्तर देना सामान्य ठेलुहाचार-विरुद्ध माना गया है काहेसेकि वसुधैव कुटुंबकम्‍ के तहत मान लिया गया है कि तथाकथित 'गुरू' मौजरस लीन हैं, सो हम भी घाघपने का परिचय देते हुए उत्तर दाब गये और जवाबी डाक से पूछे कि कहाँसे बोल रहे हो, जबकि इस पर संदेह करने का कारण तो नहीं था कि वो मुँह के अलावा और कहीं से नहीं बोले. बोले हों तो हम सुने नहीं.


..... खतम नहीं हुआ है (इतनी ज़ल्दी?)


Saturday, September 04, 2004

ठलुआपने के मारे ये मुहल्‍लों के नाम


कभी-कभी तो हद हो जाती है ठलुआपने की । कर जाते हैं मौज में लोग और झेलती हैं आने वाली नस्‍लें ।

अब कौन भनभनाता है भन्‍नाना पुरवा, कानपुर में ?

कुछ बेचारे तो घर का गद्‍दा तक खरीदने में शरमाते हैं कि कोई ठेलुहई में ही न पूछ बैठे कि भैया घर तो है चटाई मोहाल में और सोओगे गद्‍दे में ।

एक सज्‍जन जिनके बारे में दंतकथा आज तक मशहूर है कि किस प्रकार एक चूहे के सामने उनकी धोती की लांग नामक गांठ खुल गयी थी और कालांतर में वह नंगू पाण्‍डे के नाम से लोकप्रिय हुए । अब उनसे पता पूछो तो मिमियाने से कुछ मिलती जुलती आवाज में लाठी मुहाल ही बतायेंगे । आखिर बाप- दादाओं ने और कोई चारा ही जो नहीं छोडा ।

अगर मेरी स्‍मृति साथ दे रही है तो जबलपुर जैसे गैर-ठलुहा शहर में भी एक बाज़ार है जो गडबडा कहलाता है।

कलकत्‍ते में एक मकान है जिसमें व्‍यापारियों की गद्‍दियां हैं और जहां सारा काम सब बहुत मिल जुल कर करते हैं, उसका नाम झगडा कोठी है

अब सब हमीं बतायेंगे कि बाकी ठेलुहे भी कुछ करेंगे?







Wednesday, September 01, 2004

आइये न, ठलुअई करें

Theluwa
योंही ठलुहई का जब बैठे-बैठे विचार बना तो पाया कि संसार में कमी तो है नहीं ठलुओं की । बकौल गालिब
एक ढूँढो हजार मिलते हैं
बच के निकलो टकरा के मिलते हैं (किसी ठलुए का ऐडीशन)।
तो हम सोचे कि काहे नहीं इस प्रजाति के लोगों को इकट्‍ठा किया जाये ।
कहना न होगा कि हमारे मित्र शुकुल बड़े बेचैन थे कुछ इस तरह की गतिविधि के बिना । और अगर सच्ची बात बतायें तो हमारी तबियत भी ठीक तो नहियै लग रही थी ।
तो निमंत्रण है तमाम ठलुओं को इस यज्ञ में शामिल होने के लिये इस शपथ के साथ कि
- 'यहाँ पर ठलुअई और मात्र ठलुअई होगी और इसके सिवा अन्य कुछ न होगा' ।

अब प्रश्न यह उठता है कि ठलुअई की परिभाषा क्या है -
एक परिभाषा सन्तों की सेवा में सादर प्रस्तुत है,
'ठलुअई मानसिक चेतना की देश, काल, जाति, धरम, आयु से परे वह अवस्था है जिसको प्राप्त होकर प्राणी ठलुआ कहलाता है । इस दशा को प्राप्त व्य‍क्ति की संगति के गुणों के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ इसे कल्याणकारी बताते हैं एवं कुछ मूढता वश ऐसे लोगों से दूर रहने की राय देते हुए भी पाये गये हैं ऐसा भी यदा कदा सुनने में आया हैः किन्तु वास्तविक ठलुआ इन सब गुत्थियों से विरक्त‍ होकर ठलुअई के आदर्श कर्म में लीन रहता है। ऐसे कर्म‍योगी को हम सबका शत-शत प्रणाम स्वीकार हो '
तो आइये न !