Thursday, September 16, 2004

इस सादगी पे कौन न मर जाय

विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ कि कहीं स्वागत हो गया हमारा. हम हो चुकने के बाद दौडे पहुँचे, लेकिन तंबू कनातें उखड चुकीं थीं. हम भी दुम दबाये पतली गलियोन्मुख हुए कि ऐसा न हो कि बाकी बिल हमसे वसूले जायें.

एक कथा याद आती है बिहार के आरा नामक पराक्रमी जिले के बाहुबली श्री लल्लन सिंह की, तो श्रम को भुलाने के लिये सुनें. वो किसी तथाकथित लफंगे से नाराज़ थे सो उसको एक दिन रास्ते में मिलने पर यों समझाये - 'भैया देखो अइसा है कि हम हर बात में तो असलहा निकालता नहीं हूँ. काहे हमरी राह में आते हैं? बतिया समझते हैं ना?'
वो सज्जन समझदार तो कम थे, मगर ई बतिया पूरी समझ गये और लल्लन जी के समझाने की अदा के भी कायल हो गये.

इस तरह की सादगी पर तो हम हमेशा कायल रहे हैं. खासकर बिना तलवार या असलहे का योद्‍धा या बिना 'ठेके' का ठेकेदार समझा रहा हो तो हथियार डालने के अलावा चारा कहाँ?

अपने मोरार जी के बारे में हमारे एक मुहल्लीय विद्वान बताते थे कि वो डा. राजारामन्ना को इसलिये चुप करा देते थे कि मोरार जी ने जब अपना बी. एस सी. खतम किया तब राजारामन्ना इस धरती पर अवतरित भी नहीं हुए थे.(बडे ससुर साइंटिस्ट बने हो, हमरे सामने अइसे ही घूमा करते थे).
हम तो 'सबै भूमि गोपाल की' समझ के उतरे हैं यह जानते हुए कि भूमाफिया यहाँ पहले से धमाचौकडी मचाये हैं. अब ये तो अपने यहाँ ही होता है न कि किरायेदार भी जहाँ घुस के बैठ जाता है, वहाँ के चूहे तक बिल छोड जाते हैं पर किरायेदार की सात पुश्‍ते नहीं. आते ही नयी बहुरिया समझ के कम दहेज मिलने के कारण खौरियाई हुई ऐनक चढायी हुई सास की भाँति नुक्‍ताचीनी भी हुई दम लेने से पहले ही, दामन संभालने से पहले ही. अब कैसे समझाँय कि आदमी भात की हँडिया थोडे न होता है कि एक दाना देखा, उँगली में मसला और कर दी आकाशवाणी.अब यही तो मौज है. पर अब जब आय गये हैं हैं तो कुछ खेलेंगे कुछ खिलायेंगे, कुछ झेलेंगे कुछ झेलायेंगे, कुछ मौज तुम लेना कुछ हम लेंगे. इसमें कोई अडचन हो तो 'दुई रोटी और खा लेना'.

ये होली की भाषा वाला मामला समझने में अपना कोर डम्‍प हो गया. बकौल फुरसतिया 'एतना में छटके लगलू !' कहीं बनारस की होली की भाषा सुन लें...

हमारी माताजी अभी तक ट्रेन पकडने के समय टीका लगाते समय हमको बता देती हैं - 'देखो, खिडकी से हाथ बाहर न निकालना और जो है हर स्टेशन पर नीचे पान खाने न उतरना'. हम तो झेल जाते हैं पर हमारे एक मित्र नहीं, जिनकी दादी उनको अब भी दिशा-मैदान जाते देख लें तो उनके मुखमंडल से वात्सल्यपूर्वक छलक पडता है - 'डब्बे में पानी भर लेना पहले'. मित्र बडे दुखी स्वर में बताते हैं कि १२ वर्ष की नादान उमर में जोश (और थोडा कमजोर क्षणों में जब अपने ऊपर नियंत्रण न रहा हो) में बिना पानी लिये चले गये थे, उसकी सजा आजतक भुगत रहे हैं.

तो हम ये कह रहे हैं कि जब उतरे है बेलाग ढंग से ब्लागिंग करने तो हम खिडकी से हाथ बाहर नहीं निकालते और सबकी तरह हमारा डब्बा भी पी सी सरकार के 'वाटर आफ इंडिया' की तरह फुल है सो जानना.

पर एक बात जिस पर मुझे न्‍यूटन के नियमों से भी ज्‍यादा सत्‍य नज़र आता है वह यह कि ट्रिनिटी (किशोर, अमिताभ, आर डी) का कोई भी पंखा होगा वो सीरियसली ठलुआ होगा, इसी लिये चलते- चलते अपन भी मुफ्‍त की सलाह उछाल जाते हैं कि भैया कभी इतने गंभीर न बनना कि मनहूसियत की हदें पार कर जाना. (नहीं तो माँ अपने बेटे से कहेगी कि सोजा नहीं तो उसका ब्‍लाग आ जायेगा)

बाकी भूल चूक लेनी देनी

संतों के मत की प्रतीक्षा में.
(लिखना जरूर, चाहे खुश हो या नाराज, खुश तो मोगाम्‍बो खुश, नाराज तो कौनो बात नाहीं फिर मना लेंगे. काहे सेकि हम मानते हैं कि 'दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये' - यानी जाने कब दिल मिल जाये?)

Tuesday, September 14, 2004

सावधानी हटी, दुर्घटना घटी - १


हम बहुत सोचे और ऐसा हुआ जैसा कि ठेलुहों के साथ परंपरा रही है, सोचते-सोचते पाये कि हम सो गये. ये भी तब जाने जब हमें जगा के बताया गया कि खर्राटे बजाय सोफे के अपनी खटिया में मारे जायें तो ध्वनि प्रदूषण कम होता है और हम नखरेपूर्वक मान गये. लेकिन जब उठे तो देखे कि हम अब भी चिंतन मुद्रा में हैं तो हमें चिंता हुई और हमारे ठेलुहा-धर्म ने हमें धिक्कारा.

तब तक चाय-वाय पीकर हम अपने को उद्धार करने की मुद्रा में आ चुके थे सो जानना. अब जरा चित्त को संभाल मूंगफली टूंगते हुए हम बैठे इस पर चिंता करने कि हम चिंतित क्यों रहे. फिर खतरा भांप के कि ये लगता है फिर चिंतित होने की निशानी है हम चालाकीपू‌र्व‍क फिर कंपोज्ड हुए.

इसी बीच हमारे एक मित्र फुनियाये और छूटते ही पूछे वही सनातन प्रश्न -' का गुरू, क्या मौज हो रही है?' ठेलुहई के इस प्रश्न के पीछे जो 'अत्र कुशलं तत्रास्तु' दर्शन छिपा होता है वह यह कि हम तो मौज कर रहे हैं और मान कर चलते हैं कि तुम भी मौज ही कर रहे होगे और जो नहीं कर रहे हो तो कनपुरिहा इश्टाइल में 'कोई बात हो तो बताना गुरू' जैसा कुछ फेंकने पर क्या उखाड लोगे.

हमारे पिताजी कहते हैं -
ठेलुहों के तीन नाम
गुरू, उस्ताद, पहलवान


अब इस छंद में 'ठेलुहों' वाले स्थान में समय-धर्म अनुसार जो विशेषण बदल लेते हैं, वही इस कलिकाल में ज्ञानी कहाते हैं और ऐसे हमने कई सबूत जुटाये हैं, सो जानना.

देखा जाय तो हमारे ऋषि-मुनि कोई कम ठेलुहा नहीं थे. ये जो हर भजन-पाठ के बाद नारा लगाने की परंपरा रही है - 'सुखिनौ भवन्तु' यानी हम भी मौज करें और तुम भी क्यों चूको? और भी कुछ ऐसा कि सौ शरद जियो और जो है सबकी छाती पर मूंग तो दलो ही. 'निरोग रहो' अ‍र्थात्‍ जब तक मुस्टंडेपन की अवस्था को न प्राप्त होगे तो बाकी सब कार्य कइसे संपन्न होवेंगे, बहरहाल पैकेज डील में यह भी लिये जाओ.

तो हम बता रहे थे कि इसी ऋषि-परंपरा में जो फोन पर 'का गुरू, क्या मौज...' वाला प्रश्न पूछा जाये तो उसका उत्तर देना सामान्य ठेलुहाचार-विरुद्ध माना गया है काहेसेकि वसुधैव कुटुंबकम्‍ के तहत मान लिया गया है कि तथाकथित 'गुरू' मौजरस लीन हैं, सो हम भी घाघपने का परिचय देते हुए उत्तर दाब गये और जवाबी डाक से पूछे कि कहाँसे बोल रहे हो, जबकि इस पर संदेह करने का कारण तो नहीं था कि वो मुँह के अलावा और कहीं से नहीं बोले. बोले हों तो हम सुने नहीं.


..... खतम नहीं हुआ है (इतनी ज़ल्दी?)


Saturday, September 04, 2004

ठलुआपने के मारे ये मुहल्‍लों के नाम


कभी-कभी तो हद हो जाती है ठलुआपने की । कर जाते हैं मौज में लोग और झेलती हैं आने वाली नस्‍लें ।

अब कौन भनभनाता है भन्‍नाना पुरवा, कानपुर में ?

कुछ बेचारे तो घर का गद्‍दा तक खरीदने में शरमाते हैं कि कोई ठेलुहई में ही न पूछ बैठे कि भैया घर तो है चटाई मोहाल में और सोओगे गद्‍दे में ।

एक सज्‍जन जिनके बारे में दंतकथा आज तक मशहूर है कि किस प्रकार एक चूहे के सामने उनकी धोती की लांग नामक गांठ खुल गयी थी और कालांतर में वह नंगू पाण्‍डे के नाम से लोकप्रिय हुए । अब उनसे पता पूछो तो मिमियाने से कुछ मिलती जुलती आवाज में लाठी मुहाल ही बतायेंगे । आखिर बाप- दादाओं ने और कोई चारा ही जो नहीं छोडा ।

अगर मेरी स्‍मृति साथ दे रही है तो जबलपुर जैसे गैर-ठलुहा शहर में भी एक बाज़ार है जो गडबडा कहलाता है।

कलकत्‍ते में एक मकान है जिसमें व्‍यापारियों की गद्‍दियां हैं और जहां सारा काम सब बहुत मिल जुल कर करते हैं, उसका नाम झगडा कोठी है

अब सब हमीं बतायेंगे कि बाकी ठेलुहे भी कुछ करेंगे?







Wednesday, September 01, 2004

आइये न, ठलुअई करें

Theluwa
योंही ठलुहई का जब बैठे-बैठे विचार बना तो पाया कि संसार में कमी तो है नहीं ठलुओं की । बकौल गालिब
एक ढूँढो हजार मिलते हैं
बच के निकलो टकरा के मिलते हैं (किसी ठलुए का ऐडीशन)।
तो हम सोचे कि काहे नहीं इस प्रजाति के लोगों को इकट्‍ठा किया जाये ।
कहना न होगा कि हमारे मित्र शुकुल बड़े बेचैन थे कुछ इस तरह की गतिविधि के बिना । और अगर सच्ची बात बतायें तो हमारी तबियत भी ठीक तो नहियै लग रही थी ।
तो निमंत्रण है तमाम ठलुओं को इस यज्ञ में शामिल होने के लिये इस शपथ के साथ कि
- 'यहाँ पर ठलुअई और मात्र ठलुअई होगी और इसके सिवा अन्य कुछ न होगा' ।

अब प्रश्न यह उठता है कि ठलुअई की परिभाषा क्या है -
एक परिभाषा सन्तों की सेवा में सादर प्रस्तुत है,
'ठलुअई मानसिक चेतना की देश, काल, जाति, धरम, आयु से परे वह अवस्था है जिसको प्राप्त होकर प्राणी ठलुआ कहलाता है । इस दशा को प्राप्त व्य‍क्ति की संगति के गुणों के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ इसे कल्याणकारी बताते हैं एवं कुछ मूढता वश ऐसे लोगों से दूर रहने की राय देते हुए भी पाये गये हैं ऐसा भी यदा कदा सुनने में आया हैः किन्तु वास्तविक ठलुआ इन सब गुत्थियों से विरक्त‍ होकर ठलुअई के आदर्श कर्म में लीन रहता है। ऐसे कर्म‍योगी को हम सबका शत-शत प्रणाम स्वीकार हो '
तो आइये न !