tag:blogger.com,1999:blog-81382672024-03-06T23:12:02.971-08:00ठलुआठलुआ
(उर्फ ठेलुहा उर्फ ठलुहा)इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.comBlogger29125tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-24917345264967035942020-05-31T11:13:00.001-07:002020-06-03T11:14:01.321-07:00दुख प्रतियोगिता<p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">कुछ व्यक्ति स्वभाव से आहें भरने वाले होते हैं । वह दुःख ओढ़ने को गरिमायुक्त बनाते हैं, सुख को छिछोरपने के मुहल्ले में पहुँचा देते हैं</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">साधारणतया उनके वाक्यों में ठंडी साँसों के पंक्चुएशन के साथ बातों में पीड़ा से जुड़े शब्द सब्ज़ी के ऊपर धनिया से छितरे होते हैं</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">वह दुःख ढूँढ लाते हैं - सुख के भीड़ भरे बाज़ार में किसीकूचे से उठा लाते हैं एक दुःख को , उस दुःख को भी जो पहले सुखी हुआ करता था । समाज, देश , ब्रह्मांड - कोई भी परे नहीं उनके दुखान्वेषी कोलंबस से</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">वह आपको कभी भी रोक के कह सकते हैं कि “गुरू देखा? हमसे तो देखा नहीं जाता |” वह समोसे को चटनी में डुबो कर खाते आपको हुए यह भी बतलाते हैं कि ऐसा ज़ुल्म देख कर उनकी आँखें भर आती हैं और हम यहाँ समोसे टूँग रहे हैं | वह कई बार रोते रोते रुक सकते हैं, उनके आंसू छलक-छलक जाने को आतुर होकर वापस अपने बिल में चले जा सकते हैं |</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">वह वीरतापूर्वक आपके पहाड़ को लांघ कर अपने राई भरे दुःख को यों गगनचुंबी बना सकते हैं कि आह करते हुए भी आप वाह कर बैठते हैं</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">सफल किस्म के दुःख -प्रकाशक इतना दुःख प्रकट कर सकते हैं , कि आपके दुःख का स्तर आपको बड़े टुच्चे किस्म का प्रतीत होने लगता है और आप उसको एक अपराध बोध के साथ अंदर जज़्ब कर लेते हैं और आप अपना समोसा नीचे रख देते हैं (जबकि आपका मन उसे दूर फेंक देने का हो रहा होता है )|</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">इस ७० मिमी हाई डेफ़िनिशन क्वालिटी दुःख प्रकाशक उपलब्धि के बाद आपके ऊपर उनकी दृष्टि की शक्ति जो होती है वह आपसे यही कहती प्रतीत होती है कि रे पापी, यह सब होते हुए भी तू स्वस्थ है, खड़ा है, और निर्लज्ज भावपूर्वक आनंद से है, आएँ ?</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">आप मन ही मन धन्यवाद दे सकते हैं कि आप कलियुग में है, वरना सतयुग जैसे बीहड़ इन्टॉलरेंट काल में तो धरती स्वयं फट जाती और आप उसमें अन्तर्ध्यान हो जाते |</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">उनसे मिलने के पश्चात आप स्वयं को धिक्कारते के मूड में आ जाते हैं | आप काल्पनिक जूते लाकर बिना आवाज़ के अपने ऊपर १००-२०० लगा लेते हैं , फिर भी आपको वह शांति नहीं मिल पाती कि आप स्वयं से कह सकें कि हो गया पहलवान, अब बस करो | ग्लानि एक कब्ज़ियत के अटकाव की भांति कहीं फँसी रहती है|</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">आप होंगे पहले से दुखी - हुआ करें , दुःख प्रकाशक तो उसके ऊपर अपना दैदीप्यमान दुःख लाद के निकल लेंगे, हल्के होकर</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px 0px;">हम दुखी रहते हैं कि हमारा दुःख छोटा निकलता है - वह सुखी कि उनके दुःख जीत जाते हैं</p><div><p style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px 0px;"><br /></p></div>इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-15028858556138410822017-05-21T19:39:00.002-07:002017-05-21T19:47:27.393-07:00व्यंग की जुगलबंदी - बिना शीर्षक <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बिना बात की बात है , बिना काम का काम </span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बिना सीरसक लेख है, बिन कौड़ी या दाम </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">नाम वाम के चक्कर में बड़ी घटनाएं या बड़े लोग पड़ते तो कभी भी नहीं थे | सेव ससुरा जाने कब से पेड़ से टपकता रहा , मकान भी गिरते रहे , ऊपर उछाली गई गेंद वापस गिरती रही , आदमी गिरता रहा , तो क्या ये न्यूटन की प्रतीक्षा करते रहते कि पहले हमारे गिरने को नाम दो गुरुत्वाकर्षण का , तभी गिरेंगे , नहीं तो अपनी जगह पर हम धरने पर बैठे रहेंगे | ना - ये सब गिरते रहे | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">वह तो कहो न्यूटन नारियल के पेड़ के नीचे नहीं बैठा था , नहीं तो शायद सौ - डेढ़ सौ साल और निकल जाते इस गुरुत्व-फुरूत्व को नाम देने में | कितने वीर बालक इस चक्कर में ज़्यादा पास हो गए होते | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">कोई कवि , जो विज्ञान विषय द्वेषी रहा होगा, कह भी गया है कि ‘प्यार को प्यार ही रहने दो , इसे नाम न दो ‘ |काहे बवाल में पड़ो | क्यों खुजली हो रही है | ठीक से एक जगह बैठ के शान्ति से बीड़ी नहीं पी जा सकती या ऐसा ही कोई संत टाइप का काम नहीं किया जा सकता | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">सारे होशियार पति इसको अच्छी तरह समझते हैं | पत्नी द्वारा बनाये गए तरल द्रव्य को किसी नाम का इलज़ाम देने से पहले झांक झूँक कर और टोह लेकर जानकारी प्राप्त कर लेते हैं कि जिसको दिल दाल समझ के खाये जा रहा है , कहीं वह मूलतः पत्नी अनुसार साम्भर गोत्र का तो नहीं था | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">अब १८५७ को ही ले लिया जाय | मंगल पांडे ने बन्दूक चला दी, तात्या टोपे, लक्ष्मी बाई आदि सबने बवाल काट डाला, बहादुरशाह दिल्ली में जी भड़भड़ा के बैठे रहे कलम में स्याही भरते हुए कि जैसे ही थोड़ा खाली हुए, शायरी झेला डालेंगे , इस बीच कई अँगरेज़ शहीद हो गए | इतना सब हुआ, पर यह सब होने के पहले कोई इस चक्कर में नहीं पड़ा कि इस पूरे घटनाक्रम को क्या नाम दिया जाय | जब सब हो गया तो इस बेगाने बवाल में सारे इतिहासकारों में सिर - फुटौव्वल मची | और मची क्या अभी तक एक दूसरे का पजामा खींचे पड़े हैं | एक बोले कि इसे ‘पहला स्वाधीनता संग्राम ‘ कहा जाय | दूसरे पक्ष ने बहुत बुरा माना और कहा कि परिभाषा ‘सिपाही विद्रोह ‘ वाली सही बैठती है | तीसरा मध्यमार्गी निकला, ‘१८५७ की ग़दर’ का नाम चिपका दिया | अभी तक कौआरार मची है | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बवाल साहित्य में भी मचा करता है | प्रेमचंद जन चेतना के साहित्यकार थे या भारतीय मूल्यों वाले खेमे के ? निराला तो प्रगतिवादी थे ही , ये पता नहीं ‘सरस्वती वंदना’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ क्यों लिख गए कि सारे दढ़ियल , झोला छाप वाले कन्फ्यूज हो गए कि बेटे को अच्छा ख़ासा शीशे में उतार लिया था, लेकिन ये जान को कलेश छोड़ गया | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">तुलसी बाबा और झाम पाले थे | उस ज़माने के विद्वान् जब संस्कृत में लिखते थे तो ये अवधी चुन लाये, एक जनभाषा को | गाली उस समय के पंडितों से भी खाई होगी और उनको उस समय भी कम्युनिस्ट कह दिया गया होगा | लेकिन बाबा तो बाबा , जब तक लोगों की समझ की मिटटी न पलीद कर दें | लिखा भी तो क्या , भक्ति काव्य | अब पंडितों की गति सांप छछूंदर को प्राप्त हुई | उससे ज़्यादा महर्षि मार्क्स के स्वयंसिद्ध चेलों की हुई | न जनभाषा उगलते बने और न भक्ति काव्य पचाते | अउर ल्यो ससुर - देव नाम इनको | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">देखिये ऐसा है - कितना भी किसी व्यक्ति की असंयमित ध्वनि ऊर्जा के कारण सामने वाले की रासायनिक ऊर्जा </span><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">में </span><span style="font-family: arial; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;">खुदबुदाहटपूर्ण परिवर्तन के फलस्वरूप ऊष्मा और फिर गतिक ऊर्जा में परिवर्तन से आवेगमयी सटाक ध्वनि और ऊष्मा के उत्पन्न होने वाली प्रक्रियाओं को सारे वैज्ञानिक सिद्धांतों के नाम दे डालिये , जनप्रिय उक्ति इस घटनाक्रम को इसी तरह बताएगी कि “क्या तौल के कंटाप पड़ा है “ और यह भी कि ज़्यादा इस प्रकार का ज्ञान बघारने पर “आपको भी परशाद मिल सकता है इसलिए तनिक हवा आने दें “</span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">इसलिए कोई विद्वान् पहले ही बता गए है कि ‘नाम-वाम में कुछ नहीं धरा है ‘ | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">तब फिर शीर्षक की क्या औकात ?</span></div>
<br />
<br />
<br />
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"> </span></div>
</div>
इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-12943078592336798762017-05-17T15:30:00.000-07:002017-05-17T15:50:08.312-07:00व्यंग की जुगलबंदी - टेलीफोन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<br /></div>
<b id="docs-internal-guid-730eda9b-1887-a878-ed25-a468ddfe41c7" style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">इस घोर कलियुग में टेलीफोन का नाम लेने पर कुछ लोग उसी प्रकार की एक्टिंग करते पाए जाते हैं जैसा कि किसी टाइट जीन्स धारिणी, जस्टिन बीबर बलिदानिनी, ‘ओह माय गॉड’ शपथ धारिणी , शून्य आकार अभिमानिनी नायिका को कलकत्ते के बड़ाबाजार में पान मसाला लसित द्रव्य से भरे हुए मुंह से दुकानदार </span><span style="font-family: Arial; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;"> द्वारा </span><span style="font-family: arial; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;">‘बहन जी’ नाम से सम्बोधित कर डालने पर तथाकथित ‘बहन जी’ दिखा डालती हैं | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">खैर, टेलीफोन तो था - और एकपाए में दोपाया प्रकार का अस्तित्व रखता था - द्वैत और अद्वैत वाद दोनों के बीच की कड़ी था टेलीफोन | उपयोगी अवस्था में एक पाया कान से संलग्न दूसरा सिरा टेलीफोन उपभोगकर्ता की शातिरपने की मात्रा और सुविधा के हिसाब से मुंह से पास या दूर रखा जाता था | अनुपयोगी अवस्था में यह चोंगे पर उन दो पिन पर लटका दिया जाता था जिनमें कोई धार तो नहीं होती थी, पर जिनके बारे में यह मशहूर था कि कितना बड़ा भी फ़ोन हो, काटा यहीं से जाता है | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">फ़ोन अमूमन कृष्ण वर्ण का श्रेष्ठ माना जाता रहा था | कुछ नए चलन के लोगों ने लाल , हरे और कुछ और रंगों का प्रयोग तो किया किन्तु कालांतर में ऐसे लोगों की कोई ख़ास इज़्ज़त कृष्ण वर्ण टेलीफोन उपभोक्ताओं में नहीं हुई </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">फ़ोन के चोंगे पर एक गोलाकार डायल हुआ करता था जिसे घुमाकर नंबर मिलाने में एक किर्र-किर्रात्मक संतुष्टि की अनुभूति होती थी | नंबर मिलाने वाला क्षण बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता था और इस कारण नंबर मिलावक व्यक्ति डिस्टर्ब किये जाने पर सामने वाले को डाँट सकता था या उसके ऊपर आँखे तरेर सकता था और इसके बाद व्यवधान उत्पन्न करने वाले को फर्दर डांटने वाला काम आस-पास बैठे लोग संभाल लेते थे |</span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">सारे नंबर डायल करने के बाद नंबर मिलावक सबको ऊँगली से चुप रहने का इशारा कर सकता था और जैसे ही वह यह कहता “घंटी बज रही है” , सबके चेहरे पर चमक और मन से उच्छ्वास की मिली जुली प्रतिक्रिया एक साथ प्रकट होती थी </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">किसी ने सिखाया नहीं होता था, पर परंपरा यह थी कि नंबर जितनी दूर का मिलाया गया है , बात करने वाले की डेसिबेल मात्रा उतनी ही ऊंची रखी जाय और जो कि एक परम शिष्टाचार भी का प्रतीक था | ऐसा न करने वालों को बुजुर्ग यह कह कर लसेट सकते थे कि “अब हर चीज़ तो स्कूल में नहीं सिखाई जायेगी “</span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">किर्र-किर्रात्मक डायल का उपयोग रामसे नामक भूत-प्रेत और भयंकर रस प्रेमी निर्देशक अक्सर अपनी फिल्मों में कर लिया करते थे और जैसा कि मेरे एक मित्र, जो ‘सत्यकथा ‘ और ‘मनोहर कहानियां’ पत्रिकाओं के नियमित पाठक टाइप थे, बताया करते थे कि ऐसे दृश्यों में सिनेमा हालों में कइयों की फूंकें यहाँ वहाँ सरक जाया करती थी और जिसके वह चश्मदीद गवाह हुआ करते थे | उनके इस तरह की कथाएं सुनाने का परिणाम होता यह था कि कुछ दिनों तक मोहल्ले के चिल्लर बच्चे फ़ोन के आसपास रात में नहीं फटकते थे | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">फ़ोन के साथ महिमामय तार भी लगा होता था जो कि बात बेबात कुछ दिनों बाद बल खा जाया करता था और उसके (और किसी के भी) कस बल को ठीक करने का शास्त्रसम्मत उपाय यह था कि तार से पकड़ कर फ़ोन को हवा में लटका दिया जाय और बेचारा फ़ोन हेलीकाप्टर बना इस थर्ड डिग्री से त्रस्त होकर खुद ही अपने कस बल ठीक करने लगता था | यह काम मक्खी मारने वाले जैसे कामों से ज़्यादा टेक्निकल माना जाता था और इसको करने को घर का हर बच्चा या जवान, जिसका मन होमवर्क या घर के कामों में मन कम लगता था, तत्पर रहता था | कुछ असंतुष्ट किस्म के बुजुर्ग , जिनका सिद्धांत था कि अगर किसी काम में किसी को आनंद आ रहा है तो ज़रूर कुछ ऐसा है जो गलत हो रहा है और ऐसा कत्तई नहीं होने देना चाहिए, ऐसे लोगों पर कड़ी निगाह रखते थे और आनंद लेने का ज़रा ही सबूत मिलते ही उनके हाथ से यह काम छीन लिया करते थे या फिर ऐसा वातावरण बना देते थे कि आनंद लेने वाला भ्रमित हो जाय कि बैठ के नाक में दम करवाना ज़्यादा उचित होगा या इन तानों से विरक्त होकर अपने काम में आनंद लेते रहना | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">कई बार या ज़्यादातर फ़ोन तो एक ही होता था , पर अपने नंबर के रूप में ३-४ लोगों के और पी पी रूप में ३००-४०० लोगों के विजिटिंग कार्ड या लेटर पैड में सुशोभित होता था | कई बार लोग एक दुसरे को कार्ड देते लेते और नंबर मिलाते समय ध्यान आता कि पी पी रूप में वहीँ नम्बर दोनों के कार्ड में सुसज्जित है | इस तरह के फ़ोन वाले घरों में एक आध बच्चा इसी काम के लिए नियुक्त होता था कि फ़ोन आने पर पी पी प्रकार के लोगों को ललकार कर बुलाये | जो अच्छे पी पी प्रकार के लोग होते थे वह बुलाने में देर होने पर ज़्यादा बुरा नहीं मानते थे | </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">अब नास्टैल्जिया इससे आगे नहीं जा पा रहा है, बहुत सारे मैसेज व्हाट्सप्प और फेसबुक पर इकठ्ठा होते जा रहे हैं , बाकी फिर कभी </span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">काटते है अभी !</span></div>
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
<br />
<div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">
<br /></div>
</div>
इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-60203411908107901002016-08-27T02:57:00.001-07:002016-08-27T03:02:14.397-07:00शुक्लागंज के पथ पर - "बेवकूफी का सौंदर्य" का मित्रार्पण - सनसनी खेज किन्तु सत्य कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<i>निराला के ज़िले में निराला की तर्ज़ पर निराला से क्षमा याचना सहित </i></div>
<div style="text-align: center;">
---------------------------------------------------------------------------<br />
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZPIrNUcsNSIZUzUUBxoiHmNqMyMqzwE5m8IoOeZAiRs-HQ9n9tVmEPLImoII9Th0IqyLIs3XN8Wessm38LPLCo2jtZ1H5b96yu8Ldm9N_NQAmiuFct1DLM4Ykl39GqKl_NO4GoQ/s1600/FullSizeRender+%25284%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZPIrNUcsNSIZUzUUBxoiHmNqMyMqzwE5m8IoOeZAiRs-HQ9n9tVmEPLImoII9Th0IqyLIs3XN8Wessm38LPLCo2jtZ1H5b96yu8Ldm9N_NQAmiuFct1DLM4Ykl39GqKl_NO4GoQ/s320/FullSizeRender+%25284%2529.jpg" width="240" /></a></div>
<div style="text-align: center;">
तब प्रकट हुए शुकुल शुक्लागंज के पथ पर</div>
<div style="text-align: center;">
सड़क भर के कुचलते हुए गिट्टी पत्थर</div>
<br />
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Georgia, serif; font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
कोई न छायादार<br />
पेड़ वह जिसके तले खड़े हुए स्वीकार;<br />
गेहुंआ तन, कुछ बँधा , कुछ जा चुका यौवन,<br />
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,<br />
गुरू पुस्तकें हाथ,</div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Georgia, serif; font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
<br />
करते बार-बार मुझ पर व्यंग प्रहार</div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Georgia, serif; font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
उसी प्रकार </div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Georgia, serif; font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
जैसे किसी बीमा एजेंट के सामने कस्टमर ना हो तैयार </div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: georgia, serif; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #333333; line-height: 20.8px; text-align: left;">सामने तरु - मालिका, अस्पताल अट्टालिका, प्राकार ।</span></div>
</div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Georgia, serif; font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
जा चुकी थी धूप;<br />
बरसात के दिन<br />
शाम का टपटपाता रुप;<br />
उठी उमसाती हुई पवन ,<br />
कीचड युक्त सड़क जो अनादि काल से न पाई थी बन ,<br />
अब बातों में व्यंग के साथ बकैती छा गई,<br />
प्राय: समाप्त हो रहा था रात्रि का पहला प्रहर :<br />
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: small; line-height: normal; text-align: left;">और वह फिर भी खड़े रहे सड़क भर के कुचलते हुए गिट्टी </span><span style="font-family: "times new roman"; font-size: small; line-height: normal; text-align: left;">पत्थर </span>।</div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Georgia, serif; font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
देखते देखा मुझे तो एक बार<br />
उस अस्पताल भवन की ओर देखा, छिन्नतार;<br />
देखकर कोई नहीं,<br />
देखा मुझे उस दृष्टि से<br />
जो तर माल खा दोपहर नींद सोई नहीं,<br />
सजा सहज सितार,<br />
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी टंकार<br />
एक क्षण के बाद वह लेकर ७ प्रतियां सुघर,<br />
ढुलक मेरे माथे से गिरे सीकर,<br />
लीन होते खीसें - निपोरण कर्म में फिर ज्यों कहा<br />
शुक्लागंज की सड़क पर कुचलते हुए पत्थर -</div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Georgia, serif; font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
"ले जाओ ये सारी प्रतियां घर पर "<br />
-------------------------------------------</div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Georgia, serif; font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAmbRTfPV3DF51PWJavfx036V5fnXsFAbPek6XiUHR8LBOOZaG3c7Il2QTC84izM_K_HViuaIZBY-L0JnRwDV5SIrGQEMssBG_DPDS0EgA624zhF-is1vwi2Fd_524iKJWJ0qMzw/s1600/FullSizeRender+%25285%2529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="309" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAmbRTfPV3DF51PWJavfx036V5fnXsFAbPek6XiUHR8LBOOZaG3c7Il2QTC84izM_K_HViuaIZBY-L0JnRwDV5SIrGQEMssBG_DPDS0EgA624zhF-is1vwi2Fd_524iKJWJ0qMzw/s320/FullSizeRender+%25285%2529.jpg" width="320" /></a></div>
----------- ० ---------------</div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Georgia, serif; font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px; margin-bottom: 1.1em; outline: 0px; padding: 0px; text-align: center; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: left;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4Fw5WZBz14uBrLEAn06FbacBLCNprL63r65JF_TyIonbhigijjuxZLOSRKzwVnffBZ8UItYwy7Z36L6us1seJYDQqnbvAVR9zJheRj9VdF4l_8nZAsDehAISoBjKOeGFTAMdfWg/s1600/FullSizeRender+%25286%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4Fw5WZBz14uBrLEAn06FbacBLCNprL63r65JF_TyIonbhigijjuxZLOSRKzwVnffBZ8UItYwy7Z36L6us1seJYDQqnbvAVR9zJheRj9VdF4l_8nZAsDehAISoBjKOeGFTAMdfWg/s320/FullSizeRender+%25286%2529.jpg" width="240" /></a></div>
इस हादसे के बाद हम शुक्लागंज, ज़िला उन्नाव , के राजपथ पर सरे आम अनूप शुकुल की "बेवकूफी का सौन्दर्य" की ७ प्रतियां खरीद कर विदा हुए - अपनी समझ में सस्ते में छूटते हुए - यह जान कर भी कि सारे लेख हम पहले ही फेसबुक पर पढ़ चुके हैं और यहां तक कि उन पर टिपिया भी चुके हैं और यह भी कि दिमाग का बर्बाद-ए -गुलिस्तां करने के लिए एक ही प्रति काफी है और तिस पर भी जब अगली बार शुकुल महाराज मिलेंगे तो मेरी सारी प्रतियां पलटेंगे और कहेंगे कि इस ६ नम्बर वाली प्रति में कोई निशान नहीं लगा है , इसको खोले नहीं हो क्या ।<br />
<br />
हमें पुस्तक समर्पित करते हुए शुकुल की आंखों में हमने वह भाव देखे जो हर लेखक की शातिर निगाहों में आते हैं जब वह हस्ताक्षर करता है - कुछ आशीष या हमें अच्छा लिखते रहने के आशीर्वाद देने के भाव जो हमने अपने निजी शातिरपने से पहले ही ताड़ लिए और आँखों से ही हतोत्साहित किया उनको इस मार्ग में और बढ़ने से - लेकिन शुकुल तो शुकुल ठहरे , शुभकामनाएं फिर भी चिपका गए<br />
<br />
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHXAoLmBGRU7hqPN4Tcdok3FNKaVBopnLCT5P6v6XVfp63or5Xr0rH7WmatUPOU6y_C4vzXpLQcBAG5D9v_CbGWuzjp0Ikt_cr-lDJ0Nm3xMC7_D3nQragFRqIx33RcmN_XCl1aA/s1600/FullSizeRender+%25287%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHXAoLmBGRU7hqPN4Tcdok3FNKaVBopnLCT5P6v6XVfp63or5Xr0rH7WmatUPOU6y_C4vzXpLQcBAG5D9v_CbGWuzjp0Ikt_cr-lDJ0Nm3xMC7_D3nQragFRqIx33RcmN_XCl1aA/s320/FullSizeRender+%25287%2529.jpg" width="320" /></a><br />
यह तो सत्यनारायण कथा जैसी कथा हो गई जिसमें अंत तक पता ही नहीं चलता कि आखिर कथा क्या थी यानी पुस्तक कैसी थी - <span style="font-size: 15.3472px; line-height: 21.4861px;">लेकिन अभी इतने से ही नहीं उबर पाए हैं सो पुस्तक के बारे में बाद में ......</span><br />
<br />
यह रही अच्छी वाली फोटो दुबारा मित्रार्पण की । पहले की शाम वाली फोटो के बारे में (जो ऊपर लगाईं है) जब हमने सुना कि हमारी फोटो शुकुल से भी खराब आई है तो हमने खुरपेंच की अपनी सुधारने और शुकुल की बिगाड़ने की - शुकुल की खैर हम और क्या बिगाड़ पाते , अपनी भी न सुधार पाए - तो ये रही थोड़ा और चौकस दिन के समय वाली - घटना स्थल वही , पात्र वही </div>
</div>
</div>
इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-40263033900847269712016-08-25T11:28:00.002-07:002016-08-25T11:39:09.914-07:00अथ श्री व्यापकं कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">व्यापकं व्यापमं </span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">कांग्रेसं भाजपं </span><br />
<br style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;" />
<span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">सत्तर लक्ष लाभान्वितं </span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;"><br />रहे कई आशान्वितं<br /><br />पंद्रह सौ जेल शोभितं<br />आठ-नौ सौ पलायितं<br /><br />पैंतालीस ना जीवितं<br />सीटी फूंकक शंकितं</span><br />
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;"><br /></span>
<span style="color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif;"><span style="font-size: 12px; line-height: 16.08px;">बाबू गौर सुभाषितं </span></span><br />
<span style="color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif;"><span style="font-size: 12px; line-height: 16.08px;">यदि आगत निश्चित गतं </span></span><br />
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;"><br />एल के शर्मा जेलितं<br />महामहिम उद्वेलितं<br /><br />हज़ार अयोग्य प्रमाणितं<br />मेडिकल से निष्कासितं<br /><br />जनता पूरी शंकितं<br />उमा भी अति आतंकितं<br /><br />वांट्स टु नो ये नेशनं<br />चीखें रविशं अर्नबं<br /><br />घटनाक्रम कुछ शापितं<br />व्यापम रक्षति रक्षितं<br /><br />बात तो निकली निश्चितं<br />यद्यपि अंत अनिश्चितं</span><br />
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;"><br /></span>
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;"><i>(७ जुलाई २०१५ को फेसबुक पर प्रकाशित)</i></span></div>
इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-43786986468980693202016-08-23T17:25:00.000-07:002016-08-23T17:25:27.488-07:00चील गिद्ध कौओं का इतना ही याराना है <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; float: none; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.08px; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;"></span><div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; color: black; font-family: "Times New Roman"; font-size: medium; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; margin: 0px; orphans: 2; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; float: none; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.08px; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;"><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">चील गिद्ध कौओं का इतना ही याराना है </span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; float: none; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.08px; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;"><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">एक ज़िंदा कौम को बस लाश सा बनाना है </span></span><br />
<span style="color: #1d2129; font-family: Helvetica;"><br /></span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; float: none; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.08px; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;"><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">लाश बनते तक ज़रा माहौल भी बनाना है </span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; float: none; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.08px; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;"><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">चिल्ल-पों कांव-कांव नारा लगाना है </span></span><br />
<span style="color: #1d2129; font-family: Helvetica;"><br /></span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; float: none; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.08px; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;"><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">मरते हुए को और ये एहसान भी जताना है </span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;"><br />कि इस तरह से उनको आज़ाद ही कराना है<br /><br />इक दूसरे को तब तलक धीरे से कुहनियाना है<br />और साथ साथ आँखों में चुपके से मुस्कियाना है<br /><br />सियार भेड़ियों को भी इस खेल में मिलाना है<br />और भोंपुओं के बीच भी , लोथड़ा गिराना है<br /><br />आप ना मायूस हों, ये यूं ही आना जाना है<br />शुक्रवार है आपको वीकेंड भी मनाना है<br /></span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; float: none; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.08px; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;"><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;"><br />तो मनाते हैं वीकेंड किशोर कुमार के साथ -----</span></span></div>
<span style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; float: none; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.08px; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; color: black; font-family: "Times New Roman"; font-size: medium; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; margin: 0px; orphans: 2; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;"><span class="fwb" style="color: #365899; cursor: pointer; font-weight: bold; line-height: 16.08px;"><a href="https://www.youtube.com/watch?v=BhZvU3mTZR4" rel="nofollow" style="color: #365899; cursor: pointer; line-height: 16.08px; text-decoration: none;" target="_blank">Cheel Cheel Chillake - Half Ticket (good quality)</a></span></span></div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; color: black; font-family: "Times New Roman"; font-size: medium; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; margin: 0px; orphans: 2; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
<br /></div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; color: black; font-family: "Times New Roman"; font-size: medium; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; margin: 0px; orphans: 2; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">- फेसबुक पर प्रकाशित (४ मार्च २०१६)</span></div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; color: black; font-family: "Times New Roman"; font-size: medium; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; margin: 0px; orphans: 2; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;"><br /></span></div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; color: black; font-family: "Times New Roman"; font-size: medium; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; margin: 0px; orphans: 2; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16.08px;">(सन्दर्भ - JNU प्रकरण में राष्ट्रीयता की खिल्ली उड़ाने की हद तक पहुँच जाने वाले प्रगतिशीलों के लिए)</span></div>
</span><br /></div>
इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-9950142418876516052016-08-23T17:12:00.001-07:002017-05-02T16:14:41.070-07:00केजरि - कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px;">
<span style="font-size: 14px;">केजरि कथा</span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px;">
दिल्ली व्यथा<br />
जो भी हुआ<br />
होना न था</div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px;">
<div style="margin-bottom: 6px;">
मोदी का डर<br />
आठों पहर<br />
आलोचना<br />
लें अन्यथा</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ट्वीटें करें<br />
कुंठा हरें<br />
बस ना करें<br />
जो काम था</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गाली बकें<br />
पर ना थकें<br />
स्तर गिरा<br />
है सर्वथा</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अब क्या करें<br />
ये दिन फिरें<br />
दिल्ली यथा<br />
राजा तथा</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
(लिखते लिखते फील हुआ कि इसको येशुदास के गीत 'माना हो तुम ' की धुन पर गाया जा सकता है, गायें , कोई रोक टोक नहीं है )</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
- फेसबुक पर प्रकाशित (२७ जुलाई २०१६)</div>
</div>
</div>
इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-43790873071651831592013-10-21T10:25:00.002-07:002013-10-21T10:25:48.767-07:00एक शरीफ चिंता <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h5 class="uiStreamMessage userContentWrapper" data-ft="{"type":1,"tn":"K"}">
<span class="messageBody" data-ft="{"type":3,"tn":"K"}"><span class="userContent"><div class="text_exposed_root text_exposed" id="id_526562443d17c2a30105918">
सीएटल
के शानदार कवि सम्मलन 'झिलमिल २०१३' के लिए लिखी गई कविता । किसी वजह से
मेरे फ़ोन पर पूरी डाउनलोड नहीं हो पाई , इसलिए कवि सम्मलेन में पूरी नहीं
पढी <i class="_4-k1 img sp_fuslt2 sx_88de95"></i> अब पूरी कविता यहाँ !<br />
<br />
<br />
------------------------------------------------------------------------<br />
<span class="text_exposed_show"><br /> मित्रों मैं चिंतित होता हूँ<br /> <br /> खा पी कर मन भर जाता है, पीना सर पर चढ़ जाता है<br /> तब मन थोडा भर आता है, कुछ जगता हूँ कुछ सोता हूँ<br /> मित्रों मैं चिंतित होता हूँ<br /> <br /> ये घोटाला वो घोटाला, इन भ्रष्टों का हो मुंह काला <br /> सुरसा सा मुख घूस खोर का, मांगे हरदम बड़ा निवाला <br /> सौ में काम जहां होता था दो हजार अब देता हूँ<br /> देकर मैं चिंतित होता हूँ<br /> <br /> राह चले जब किसी मनचले, की सीटी जब बजती है<br /> सच्ची मुट्ठी भिंचती मेरी, नथुनों से आग बरसती है<br /> मन ही मन गुस्सा होता हूँ<br /> उचित प्रतिक्रिया और शराफत बीच कहीं मैं खोता हूँ<br /> फिर भी मैं चिंतित होता हूँ<br /> <br /> गर्मी में ए सी को चलाकर, बोरा भर पेट्रोल जला कर<br /> प्लास्टिक के टुकड़े छितरा कर, गंगा में गंदगी बहा कर<br /> महंगाई और ग्लोबल वार्मिंग इन सब पे मैं रोता हूँ<br /> मित्रों मैं चिंतित होता हूँ<br /> <br /> <br /> जगद्गुरु भारत का रुपया , गिरा देख शर्माता हूँ<br /> ७० तक जायेगा ये सोच , मैं दो हफ्ते रुक जाता हूँ<br /> ६१ पर डॉलर भेजूं तो , दस हज़ार मैं खोता हूँ<br /> मित्रों मैं चिंतित होता हूँ<br /> <br /> ख़त्म हुआ देखो शटडाउन, कितने बिजी थे सारे क्लाउन<br /> मैं कन्फयूज्ड था, वो कन्फयूजिंग, अमरीका की वैल्यू डाउन<br /> मैं जगता था रात-रात भर वो सोते थे<br /> कहते थे चिंतित होते थे<br /> वो भी तो चिंतित होते थे <br /> <br /> हे चिंतित ना होने वालों , क्या चिंतित को सम्मान न दोगे ?<br /> कम से कम चिंतित तो हुआ ,अब क्या बच्चे की जान ही लोगे?<br /> <br /> चिंता मेरी सदा संगिनी, मैं बंदी वो मेरी बंदिनी <br /> चिंता की चिंता में रहता, नित इक चिंता बोता हूँ <br /> मित्रों मैं चिंतित होता हूँ<br /> <br /> चलिए सब चिंतित हो जाएँ, ताली हर कविता पे बजाएं<br /> चाय समोसे और पकौड़ी, खाकर हम चिंतित हो जाएँ<br /> गप्प चुटकुले सुनें सुनाएँ , अपने पेट पे हाथ फिराएं <br /> फिर थोडा चिंतित हो जाएँ <br /> चलिए सब चिंतित हो जाए</span></div>
</span><span class="userContentSecondary"><span class="fcg"></span></span></span></h5>
</div>
इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-88209018629264718622012-09-19T17:06:00.000-07:002012-09-19T17:10:33.226-07:00 मेकिंग ऑफ़ अ व्यंगकार !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेरा आजकल प्रेरित होने का टाइम चल रहा है| घूम-घूम के, छांट-छांट के,
चुन-चुन के प्रेरित हो रहे हैं| कुछ काम नहीं था तो एक व्यंगकार जी से २-४
छटांक प्रेरणा काटी और चढ़ा लिए कुछ घूँट! <br />
<br />
अब लो झेलो, प्रेरणा
अन्दर और कुछ कवितायें कूद के बाहर| कसम से - रोकने की कोशिश बहुत की, मगर
जब दिमागी डायरिया होता है तो ऐसे ही प्रवाहमान होता है | <br />
<br />
हमारे एक मित्र ने कह दिया - क्या चीज़ हो? तो हमने जवाब यों दिया- <br />
<br />
<blockquote class="tr_bq">
<div style="margin-left: 80px;">
<span style="color: blue;"> क्या चीज़ हो?<br /> अरे, तो ये नाचीज़ भी कोई चीज़ है !<br />अगर कोई चीज़ चीज़ न हो<br />तो क्या नाचीज़ होती है?<br /><br />चीज़ बन जाऊंगा<br /> तो क्या मेरा मोल लग जाएगा?<br />क्या दूकान पर बिक जाऊंगा?<br />जो ज्यादा बिक गया<br />तो क्या सर्वोत्तम चीज़ का पुरस्कार ले आऊँगा?</span></div>
</blockquote>
अहाहा ! लिख कर मैं खुद पर मुग्ध हुआ | मित्र न हुए, न सही - खुद न लिख पाने का अहसास कचोट गया होगा उनको |<br />
<br />
अब
चलें, दो-चार ब्लॉगर जन के यहाँ टीप आयें, उनको अपने ब्लॉग का लिंक दे
आयें| उम्मीद करते हैं ऐसा करने का बाद, 'अद्भुत' , 'करारा व्यंग' ,
'ज़बरदस्त चपत' और 'बहुत ही प्यारा' आदि की प्रति-टीप देखने को मिलेगी<br />
<br />
ठीक है, अब जब इतना पढ़ लिया है तो और मुलाहिजा -<br />
<br />
<blockquote class="tr_bq">
<span style="color: blue;">मेरे कविता चलती नहीं<br />क्योंकि इसके पैर नहीं होते<br />मेरी कविता बोलती नहीं <br />इसके अपना (सा) मुंह भी नहीं है<br />मुंह नहीं है इसलिए </span><span style="color: blue;">कि इसके पास सर नहीं है<br /><br />तो क्या मेरी कविता बेसिरपैर की है?</span></blockquote>
<br />
वाकई अद्भुत!! <br />
<br />
<blockquote class="tr_bq">
<div style="margin-left: 40px;">
<span style="color: purple;">प्रेरणा सप्लाई ज़ारी है,</span><br />
<span style="color: purple;"> ये की बोर्ड ही धीरे चलता है |</span><br />
<span style="color: purple;">विचार तेज़ आते हैं|</span><br />
<span style="color: purple;"><br /></span>
<span style="color: purple;">विचार को अगर ज़ल्दी यूज़ ना करो,</span><br />
<span style="color: purple;">तो विचार अचार बन जाते हैं|</span><br />
<span style="color: purple;">फिर हमारे आचार-विचार को प्रभावित करते हैं |</span><br />
<span style="color: purple;">और हमारा यों प्रचार करते हैं</span><br />
<span style="color: purple;">कि हम लाचार हो जाते हैं </span><br />
<span style="color: purple;">कि हम समाचार हो जाते हैं</span></div>
</blockquote>
<br />
ई ल्यो , फिर कविता ससुरी निकल पड़ी| <br />
लिख तो दिए हैं, न समझ पाए हो तो कोई पुरस्कार दिलवाओ न इसपर !!<br />
(और जो समझ गए तो हमको भी भी बताना कि ई का भरा है हमरे अन्दर )</div>
इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-90780227122820482462011-11-29T01:53:00.000-08:002011-11-29T01:53:43.700-08:00एक ब्लागर मीट जो महान होते-होते बची !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">समय - <a href="http://shiv-gyan.blogspot.com/" target="_blank">शिव कुमार मिश्र</a> जी का कार्यालय, कोलकाता (समय के साथ कोलकाता इसलिए कि कोलकाता समय और काल से परे हो चुका है)<br />
स्थान - १५ नवम्बर, २०११ - करीब ८ बजे ( स्थान के साथ समय इसलिए कि कोलकाता नगरी का ये इस समय का स्नैप शाट है)<br />
भीड़ - अनूप शुक्ल उर्फ़ फुरसतिया, शिव कुमार मिश्र 'दुर्योधन की डायरी' वाले, इन्द्र अवस्थी उर्फ़ ठेलुवा अर्थात माइसेल्फ़, बिनोद गुप्ता (एक नान ब्लॉगर किस्म के जीव), प्रियंकर पालीवाल (अनुपस्थित) <br />
<br />
वैसे तो शुकुल ज़्यादातर कानपुर में पाए जाते हैं लेकिन ऐसा संयोग बना कि इलाहाबाद स्थित अपने कॉलेज में अपने बैच का रजत जयंती समारोह मनाने के बाद हम और बिनोद इलाहाबाद से और शुकुल अपनी तथाकथित आधिकारिक यात्रा पर कानपुर से एक ही दिन कोलकाता में डाउनलोड हुए !<br />
<br />
बिनोद के बारे में पहले - बिनोद हमारे वह मित्र हैं जिनके बार में हम दोनों यह अफवाह उड़ाया करते हैं और उड़ाते - उड़ाते मानने भी लगे हैं कि नर्सरी से इंजीनियरिंग कॉलेज तक हम साथ ही पढ़े हैं. एक बार बहुत गौर से हमने अकेले बैठ के सोचा भी तो पाया कि कक्षा १० में हम एक साथ नहीं थे. हमने दबी जबान बिनोद से इसका ज़िक्र भी किया. बिनोद ने जवाब में हम पर आँखों ही आँखों में तरस खाते हुए पुरानी अफवाहों को बदस्तूर जारी रखा. <br />
<br />
खैर, नियत समय पर <a href="http://hindini.com/fursatiya" target="_blank">शुकुल </a>का फ़ोन आते ही हम और बिनोद मुंह उठाये मिश्र जी के ऑफिस पहुँच गए. वहाँ शुकुल कुर्सी पर तोंद ताने, बकौल के पी सक्सेना, लादेन की तरह लदे थे. यह शाम का वह आदर्श समय था जब शास्त्रों के अनुसार समोसा खाने से कई जन्मों के पाप कट जाते हैं.<br />
<br />
पता लगा प्रियंकर जी नहीं आ पायेंगे.<br />
<br />
खैर , परिचय-वरिचय हुआ, बिनोद ने मौका ताड़कर नर्सरी से इंजीनियरिंग वाली बात मिश्र जी को झेला दी थी. चूंकि मिश्र जी एक विनम्र आतिथेय थे, सो उन्होंने प्रत्युत्तर में आश्चर्य जताया जैसे कि इस घोर कलियुग में भी ऐसा कैसे हो सकता है और इस प्रकार विनोद को उन्होंने अपने हिसाब से संतुष्ट किया. <br />
<br />
हम और बिनोद चूंकि ताजे-ताजे कॉलेज से आ रहे थे और वहाँ हमारे सिल्वर जुबिली कार्यक्रम के एक-आध लोकल पेपर वालों ने हमसे कुछ पूछा और हमारे जवाब को उन्होंने हेडिंग के रूप में भी चौथे पेज के कोने में छाप दिया था, सो हम ओवर कांफिडेंस से सराबोर थे. हमको लग रहा था कि अब इस ब्लॉगर मीट में भी हमारे मुंह से छपने वाले और कम से कम हेड लाइन वाले उदगार तो निकलेंगे ही. हम तो बिलकुल ही तैयार थे. शुकुल भी हमारी इस अदा से आतंकित लग रहे थे.<br />
<br />
जिस चीज़ का हमने अनुमान नहीं किया था और जो बिलकुल अप्रत्याशित थी, वह थी किसी नान-ब्लागर की हमारे बीच उपस्थिति. बिनोद ने नर्सरी-इंजी. काण्ड के बाद तो मैदान पूरा अपने हाथ में ले ही लिया था. <br />
<br />
अब नान -ब्लागर को ब्लागर की दशा के बारे में क्या पता. यहाँ तो 'आप कितना अच्छा लिखते हैं' , 'और लिखिए न' कहकर अपनी ओर बातों सिरा मोड़ने की कला का कितनी बार अभ्यास कर चुकने के बाद फंस गए एक नान-ब्लॉगर के चक्कर में. बिनोद ने ब्लागिंग के अलावा मिश्र जी का सारा इतिहास पूछ डाला और उनके बारे में इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया जितना एक पुलिस वाला किसी हिस्ट्री शीटर के बारे में ३-४ सालों के अथक प्रयास के बाद कर पाता है. बीच में शुकुल ने बात संभालने का असफल प्रयास किया मिनमिनाते हुए, एक उलाहने देते हुए कि 'हम लिखते क्यों नहीं?'<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh52KpyWFle-rhWOfSkv-Lm-zJyVMUcrfDaSmTjQO8kEecFomqMxSKdKMHge7-QVf7t-q7p5kIKTqcu4Ebi8llSpegXStXk2H8TgbuC_GCzN4Nf7RcBmBFLIgDecOvcgtLtA-sa_Q/s1600/Ind2011+286.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh52KpyWFle-rhWOfSkv-Lm-zJyVMUcrfDaSmTjQO8kEecFomqMxSKdKMHge7-QVf7t-q7p5kIKTqcu4Ebi8llSpegXStXk2H8TgbuC_GCzN4Nf7RcBmBFLIgDecOvcgtLtA-sa_Q/s320/Ind2011+286.JPG" width="320" /></a></div>लेकिन यह वह समय था जब समोसे आने की संभावना बढ़ गयी थी और स्पष्ट है कि इस संभावना ने हमको प्रोत्साहित किया कि हम शुकुल को थोड़े देर के लिए इग्नोर करें सो हम भी मिश्र जी के इतिहास पर आये. लेकिन तब तक समोसे आ गए, ढोकलों के साथ ढोलक बजाते हुए, साथ में सन्देश का मीठा संदेसा भी लाये. अब हमारे सामने इन सब पर टूट पड़ने के अलावा कोई चारा न रहा. <span id="goog_737420678"></span><span id="goog_737420679"></span><br />
<br />
इस बीच हमारे एक और मित्र ( नान-ब्लॉगर कहीं का) फोन पर प्रकट हुए और हमको और बिनोद दोनों को धमकाने लगे उनके घर पहुँचने के लिए. उन मित्र ने भी हमारा काफी फुटेज खाया तब जाकर अंतर्ध्यान हुए. शुकुल इस बीच हमारे समोसों को देखते हुए अपना खाते रहे. मिश्र जी इस सारे कंफ्यूजन का आनंद लेते रहे. बिनोद का काफी समय गुज़र चुका था हमारे फोन को मित्र को अपनी व्यस्तता जताने में.<br />
<br />
अब बिनोद फिर <a href="http://shiv-gyan.blogspot.com/" target="_blank">मिश्र जी</a> की तरफ घूमे, उनके कारोबार के बारे में और जानकारी इकठ्ठा की और फिर शेयर मार्केट के बारे में बचे १२ मिनट में २७ सवाल पूछे. अब मिश्र जी के सामने कोई रास्ता न बचा यह कहने के सिवाय कि उनको घर जाना है और 'हम लोगों को भी देर हो रही होगी'.<br />
<br />
तो हम बाहर निकले. मन में बहुत कुछ अटका लग रहा था. शुकुल से टोह ली तो वह भी खीसें निपोर कर रह गए. खैर, बाहर हमने कुछ फोटो-शोटो भी ली. बल्कि जाते हुए दो बच्चों को पकड़ के और एक के हाथ में कैमरा देकर और दूसरे को चालाकी पूर्वक अपने बगल में खड़ा करके फोटो भी खिंचवाई. उसके बाद शुकुल अपने होटल, मिश्र जी अपने घर और हम बिनोद के साथ बिनोद के घर चल पड़े अपनी नर्सरी से लेकर इंजीनयरिंग की यादों को ताज़ा करने.<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioSju26X6DF86dV2vehLJTUV5gQPIervUnXfoqec7S5HDh_PgQCzHAOpYCG7eR8Zkeh-vfjNuedCpKduzHE4Cfn_6fMEVExDVbKynoRX-YTYJqc4j7aLTo4RijWXlqKolfswT7sA/s1600/Ind2011+287.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioSju26X6DF86dV2vehLJTUV5gQPIervUnXfoqec7S5HDh_PgQCzHAOpYCG7eR8Zkeh-vfjNuedCpKduzHE4Cfn_6fMEVExDVbKynoRX-YTYJqc4j7aLTo4RijWXlqKolfswT7sA/s320/Ind2011+287.JPG" width="320" /></a></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpyf1owNSb72kUlzfJItj8CKVig-zIEeH3fnLxmT-IoL3T_qm-dhkEr77qlrfL3OcGi9gSbG8WDbO5-knTWykfBuKyoQtNJKOhTDYRK7XPl3DWFoXDrrSqKvR1ntePGdi__Jr0pg/s1600/Ind2011+282.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpyf1owNSb72kUlzfJItj8CKVig-zIEeH3fnLxmT-IoL3T_qm-dhkEr77qlrfL3OcGi9gSbG8WDbO5-knTWykfBuKyoQtNJKOhTDYRK7XPl3DWFoXDrrSqKvR1ntePGdi__Jr0pg/s320/Ind2011+282.JPG" width="320" /></a></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
<br />
इस प्रकार कोलकाता के समाचार पत्रों को बढ़िया हेड लाइन से और ब्लॉग जगत को एक महान ब्लाग र मीट से वंचित होना पड़ा. अच्छा ही हुआ, नहीं तो इस मीट के महान बनते ही कई और मीट कम्पीटीशन में आ खड़े होते और फिर ब्लॉग जगत में जो जूतम-पैजार होती. <br />
<br />
आखिर नर्सरी से इंजीनियरिंग की दोस्ती भी कोई चीज़ होती है. है कि नहीं? सो वो दोस्ती काम आ गयी नहीं तो... <br />
<br />
शुक्रिया बिनोद!<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
</div>इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-69717583617783527302008-10-01T14:51:00.001-07:002008-10-02T12:12:56.304-07:00किसी के उकसाने पर ब्लागियाने की ज़रूरत क्या थी?<strong><em><em><em><a href="http://www.hindini.com/fursatiya">शुकुल</a> को समर्पित -<br />बिन छन्द, बिन ताल, कुछ चिल्लर चिन्तन<br />:-१८ अप्रैल २००६ को प्रस्फुटित<br /></em></em></em></strong><br />---------------------------<br /><br />किसी के उकसाने पर ब्लागियाने की ज़रूरत क्या थी<br />काम अपना छोड़ के टिपियाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />माना हमारे साथ बनती नहीं तुम्हारी<br />पर किसी और के संग खिलखिलाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />अब जैसा भी है हमने यहाँ पे लिख दिया<br />पर इसपे भी ताली बजाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />माना कि दुनियावी भीड़ में हम भी हैं यूँ खड़े<br />पर हमको भीड़ में है कोई जताने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />यूँ दिखते हो बेखबर और हमसे अलग अलग<br />पर राह देखने को खिड़की पे जाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />बाहर हो बंद बोलती और फूक सरकती<br />तो घर में झूठी शान दिखाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />भागते भूत की लंगोटी भली सुना<br />पर अदृश्य भूत को लंगोटी लगाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />रिक्शेवाले की अठन्नी मार के हो खुश<br />पर मंदिर में रुपैया चढ़ाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />कहते हो जाओगे वापस वतन इक दिन<br />फिर ग्रीन कार्ड बनवाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />पेट्रोल के दामों को तुम रोते रहोगे यूँ<br />फिर दहेज में गाड़ी लाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />खुद तो रहे कुलच्छनी निकम्मे जहान के<br />सुंदर सुशील का इश्तिहार छपाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />भ्रष्ट नेताओं पे आक्रोश है बहुत<br />तो घूस दे के काम निकलवाने की ज़रूरत क्या थी<br /><br />जब ब्लाग में पड़े हैं सब सूरमा बड़े<br />ऐसे में ठलुअई दिखलाने की ज़रूरत क्या थी?इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1143071438799569432006-03-22T15:36:00.000-08:002006-03-22T15:50:38.846-08:00सररर... पोर्टलैंड मेंजब जीतू भैया और शुकुल ने होली का विवरण दे डाला तो हमने सोचा कि हमारा पोर्टलैंड क्यों पीछे रहे. हमलोगों ने भी यहाँ ११ मार्च को 'हिंदी संगम' के तत्वावधान में होली मना डाली.<br /><br />कार्यक्रम की शुरुआत हुई कवि सम्मेलन से. फिर हुआ सिलसिला होली की उपाधियों का. 'मिलिये मेहमान से' कार्यक्रम में लालू जी घुस आये. उनका साक्षात्कार हुआ. फिर हुआ समूह गान जिसमें लोग नाचे, ढोलक, मंजीरे बजाये और अपनी पसंद का गीत गाया.और हाँ, अंत में कवि सम्राट का पुरस्कार भी जनता के वोट द्वारा दिया गया.<br /><br /><br /><br />कुल मिला कर सफल रहा सब कुछ. करीब ३०० लोग इकट्ठा हो गये थे इस बार. <br /><br />लीजिये हाजिर है उपाधियाँ आपकी सेवा में. आप मदद करें इनको पहचानने में (सस्पेंस बनाने का प्रयास, सुना है जनता इससे थ्रिल्डावस्था को प्राप्त होती है)<br /><br /><br /><br />---------------<br /><br /><br />१. <br />जंगल में अब भी है भालू<br />और समोसे में है आलू<br />गुंडा तो अब भी है कालू<br />छोड़ गया पर हमको लालू<br /><br />२.<br />तीन देवियों के चक्कर में, फंस गया मैं बेचारा<br />शादी ही कर लेता भैया, क्यों रह गया कुंवारा<br />घुटने घिस गये इस चक्कर में, करना पड़ा रिप्लेस<br />पार्टी का बन गया मुखौटा, भूल गया मैं अपना फेस<br /><br />३.<br />फोटो सबके साथ खिंचाता, नेता हो या अभिनेता<br />पेज ३ से दोस्ती अपनी, सबसे पंगा लेता<br />हीरोइन से बातें मेरी, कर लीं किसने टेप<br />मंत्री संतरी को दूं गाली, कैसे मिटाऊं झेंप<br /><br />४.<br />ज़ुल्फ लहरायी तो, बालर को पसीना आ गया<br />रन की हो बरसात, सावन का महीना आ गया<br />बल्ले वाला धोबी है, बालर को कसके धोये<br />टीम सामने वाली, सर पीट-पीट के रोये<br /><br />५.<br />कह दो ना कह दो ना, यू आर माई बाप सोनिया<br />चरण पादुका तेरी लेकर, तेरे नाम से राज किया<br />वैसे तो स्कालर हूं, पर ऐसा भक्त हूं तेरा<br />तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा<br /><br />६.<br />जवां थे सुपर स्टार थे, अब तो हैं मेगा-स्टार<br />कजरारे नैना भी करें, इनसे अपना इकरार<br />पान खायें या रंग बरसायें, इनका ऊंचा काम <br />अब ये हैं तो इनके अंगने, नहीं किसी का काम<br /><br />७.<br />कभी असेम्बली भंग कराऊं, बंद खाते खुलवाऊं<br />हुकुम चलाऊं पीछे से मैं, सबपे मैं गुर्राऊं<br />घोटाले सब इंटरनेशनल, मुझसे कुछ जो कहियो<br />मैं मैके चली जाऊंगी, तुम देखते रहियो <br /> <br /><br /><br />उत्तर अगले अंक में.........<br />----------------इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1125039366097086852006-03-21T17:22:00.000-08:002006-03-21T17:23:14.243-08:00कम्युनिस्ट पर लेखतो कम्युनिस्ट एक प्रजाति है जो भारत के पूर्वी भाग में बंगाल और दक्षिण में केरल के तट पर पायी जाती है. इस प्रकार के जीव में कई तरह के मुंह, एक नाक और दूसरे के दिमाग से चलने वाला दिमाग, बेतरतीब दाढ़ी और कंधे पर झोला पाया जाता है. कभी - कभी बिना दाढ़ी वाली एक उपजाति भी दृष्टिगोचर होती है, परंतु दाढ़ी वाला प्रकार श्रेष्ठ माना गया है. इनका आकार-प्रकार मनुष्यों से मिलता जुलता है और सावधानी न बरतने पर पहचान का धोखा हो सकता है. <br /><br />हर चलने वाली चीज की गति से यह उसी प्रकार चिढ़ता है ज्यों मेरी भूतपूर्व गली में रहने वाला श्वान चलती हुई साइकिल या स्कूटर से चिढ़ता था और उसके पीछे दौड़ पड़ता था और अंत में उसके रुकने पर ही शांत होता था. सो उसी प्रकार यह जीव भी चलते हुए कारखाने, उद्योग और कभी - कभी तो चलते हुए ट्राफिक की गति से भी भड़कता है और बंद का ऐलान कर देता है. गति से चिढ़ने की यही प्रवृत्ति प्रगति वाद के नाम से लोकप्रिय है. <br /><br />पूर्वजन्म के कर्म सिद्धांत पर इस प्रजाति के लोग श्रद्धा की हद तक विश्वास करते है और मान कर चलते हैं कि ये इस जगत से कुछ लेने या मांगने आये हैं कुछ लौटाने या देने नहीं. इसीलिये झुंड में यह लोग ' देना होगा- देना होगा' या 'हमारी मांगें पूरी करो' नामक मंत्र का सामूहिक रूप से जाप करता दिखायी पड़ता है। कभी-कभी तो इन्हें यह भी नहीं पता होता है कि इन्हें लेना क्या है, लेकिन सच्चे कर्मयोगी की भांति ये तुच्छ वस्तुएँ इन्हें अपने मार्गसे विचलित नहीं करतीं.<br /><br /><br />इनके दिमाग में यह विचार इंजेक्शन से भर दिया गया है कि इतिहास और साहित्य इनके लिये वह गरीब की जोरू हैं जिससे ये जब चाहे छेड़ सकते हैं और रखैल भी बना सकते हैं. भूतकाल को ये भूत गाली देते हैं, वर्तमान में जीते नहीं और भविष्य बदलने का संकल्प लेकर चलते हैं और उसके न बदलने की सूरत में इतिहास को तोड़ मरोड़ कर बदल डालते हैं. वैसे इस प्रक्रिया में ये लोग कई जगह स्वयं इतिहास बन चुके हैं.<br /><br />यही हाल यह साहित्य का भी करते हैं. इन्होंने काफीहाउसों में बैठकें करके यह तय कर लिया है कि आम आदमी सिर्फ गाली-गलौज करता है.<br />जो लिक्खाड़ जितनी गाली गलौज करता है, उतना ही वह जन के नज़दीक, उसके लिये उतनी ही तालियाँ, और इस तरह वह उतना ही बड़ा साहित्यकार माना जाता है.<br /><br />झुंड में यह विश्वविद्यालयों, मिलों और सरकारी अनुदान से चलने वाले एन.जी.ओ. के आसपास पाये जाते हैं. इस प्रजाति के प्रलुप्त होने के खतरे को भांपकर जे एन यू नामक एक अभयारण्य भी स्थापित किया गया है जहां यह निर्भय होकर विचरते हैं.<br /><br />लुकाछिपी खेलने में ये माहिर होते हैं जिसमें डेमोक्रेसी को अक्सर चोर बनाया जाता है. डेमोक्रेसी इन्हें ढूंढ़ती रहती है और न ये पकड़ में आते हैं न उसकी पट्टी खोलते हैं। बीच-बीच में आकर कुकू क्लाक वाली चिड़िया की तरह ये डेमोक्रेसी के पास आकर 'चोर-चोर' चिल्लाकर दूर भाग जाते हैं. उसकी पट्टी पांच साल में आकर खोल जाते हैं, फिर दुबारा चोर बनाने से पहले कुछ दिनो तक 'दोस्त-दोस्त' खेलते हैं.<br /><br />ये बंगाल में १९७७ के चुनावो के बाद से लगे हैं, लगभग उसी साल जब मेरी कुछ पुस्तकों में दीमक लगी थीं.तो फरक यह है कि मेरी किताबों का कुछ अंश नष्ट करने के बाद दीमकों ने चुल्लू भर दवा में डूब कर मोक्ष की प्राप्ति कर ली थी.<br /><br />गरीबी, बेरोजगारी का वातावरण इनके पनपने के लिये बहुत मुफीद होता है. वैसे इस प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद है क्योंकि कुछ लोगों का मानना है कि इसका उल्टा सत्य है यानी इनका होना गरीबी और बेरोजगारी के लिये उपयुक्त है.<br /><br />इनके धर्मग्रंथ का नाम दास कैपिटल है जिसमें इनके लिये सब कुछ सोच लिया गया है और उस पर टीका टिप्पणी और व्याख्या का अधिकार इन लोगों ने इस वैश्वीकरण के दौर से बहुत पहले चीन और रूस को आउटसोर्स कर दिया था. इस तरह ये बची हई ऊर्जा का इस्तेमाल गाली - गलौज, हड़ताल, बंद, जुलूस इत्यादि रचनात्मक कार्यों में करते हैं.<br /><br />वैसे ज्यादातर लोग कह सकते हैं कि क्या करें ऐसे लोगों का, लेकिन हमारी बिनती यही है आपसे कि हो सके तो कुछ कीजिये, वरना ऐसा न हो कि आप बाद में कहें कि पहले क्यों नहीं बताया.<br /><br />..........लेख समाप्तइंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1127407848999018352005-09-22T09:50:00.000-07:002005-09-22T11:08:18.050-07:00बबुरी का बबुआ - भये प्रकट कृपालाबबुरी का बबुआ बढ़ गया एक साल और आगे, जहां था वहीं से (क्योंकि यही तो <a href="http://kalpavriksha.blogspot.com/2005/06/blog-post.html#comments">ललकार</a> थी उसकी). अहसान किया मान्य नियमों पर कि कि जहां था वहीं से आगे बढ़ा. अगर जहां नहीं था वहां से आगे बढ़ने की घोषणा कर देता तो क्या कर लेते.<br /><br />तो जहां था वहीं से आगे बढ़ गया. मर्द (या ठाकुर) की एक बात. कह दिया तो कह दिया. और सितंबर के महीने में बढ़ा. अब जैसा कि ठाकुर खुद बता चुके हैं कि सितंबर अवतार में इनका कोई दोष नहीं है उसी प्रकार एक साल और आगे बढ़ने में भी इनका कोई हाथ नहीं था. वैसे भी समय और ठाकुर कब एक दूसरे के साथ चले हैं.<br /><br />कविताएं कभी हमें पढ़ के समझ में नहीं आतीं. कोई प्लेट में सजा के लाये और बताये कि देखो इस प्रसंग में कितनी अच्छी बात कही गयी तो थोड़ा समझ में आती है. या कोई कवि फर्स्ट हैंड सुना रहा तो बाडी लैंगुएज के साथ जल्दी समझ आती है. ( अपवादस्वरूप वीर रस में बाडी लैंगुएज की जरूरत नहीं पड़ती, हम पढ़ के दूर से ही समझ जाते हैं). अब 'अतीत ज्यों तलहटी में पड़ा सिक्का' से हम क्या समझें? हमने बैठ कर कई तरह से सोचा. <br /> ठाकुर गरज रहे है - 'ऐ अतीत, तू बीत गया है. तेरी यह मजाल. जा तेरी गति फेंके हुए सिक्के सी हो, जिसे फेंककर हम भूल भी गये हैं कि इस पैसे के हम चने भी खा सकते थे. जा, मैं तेरा मुँह भी नहीं देखना चाहता (जैसे चाहते तो देख लेते)' <br /> ठाकुर मिमिया रहे हैं - ' हे आदरणीय अतीत, तुम चले गये, हम तुम्हारा इंतजार वर्तमान में करते रहे. अब तलहटी के सिक्के की भांति हाथ से फिसल गये हो और हमें टीज कर रहे हो कि देखओ इस पैसे की तुम बीड़ी फूंक सकते थे और दम हो तो अभी भी कूद के पा सकते हो. हा, तुम क्यों फिसले?'<br /> ठाकुर दार्शनिक होते हैं - 'जो आया है वह जायेगा. जो गया है वह आयेगा. जो खाया है वह निकलेगा, जो निकला है वह फिर खाया जायेगा. हे अतीत, तुम अतीत हो चुके हो, परंतु हमें तुम पानी के नीचे सिक्के की भांति दिखते हो. तुम्हें फिर से मुट्ठी में करके वर्तमान बनाया जा सकता है.'<br /><br /> हम ठाकुर की तरह-तरह की मुद्राऐं बनते और बिगडते देखते हैं, फिर अर्थ निकालते है.<br /><br /> ठाकुर कर शुभचिंतकओं की कमी नहीं. इनकी छोटी से छोटी बात पर लोगों की नींद हराम हो जाती है. बालक जब नया-नया इंडोनेशीया पहुंचा तो पहली फोटो ईमेल की, ठाकुर गन्ने के खेतों में अकेले खड़े हुए. जनता चिंतातुर होके टूट पड़ी प्रश्नों के साथ<br />- ठाकुर अकेले खड़े हैं.<br />- हाँ, लोटा तो नहीं दिखा हमें भी<br />- क्या है नहीं?<br />- क्या यह फोटो वारदात से पहले की है या बाद की?<br />- ठीक कहते हो, यह बाद की बात है, सारे सबूत मिटाने के बाद<br /><br />इस हादसे पर करीब १९ मेलों, ८ फोनों का १२-१२ परिवारों के बीच आदान-प्रदान हुआ. <br /><br />तो यह है ठाकुर की लोकप्रियता का प्रमाण. <br /><br /> बड़े बीहड़ किस्म का संवेदनशील जंतु है ठाकुर. जैसा फुरसतिया मुनि बतलाते हैं, बड़े हिसाब से पत्र लिखने पड़ते हैं ठाकुर को. पत्रों के सारे प्रश्नों का बाकायदे बही खाता मेंटेन करते हैं यह. तगादे यों हो सकते हैं, 'मेरे तीसरे पत्र के पांचवे पैरे में चौथे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला' (शुकुल से टोपा) या 'प्रियवर , (गुस्से में गुरुवर) आपने नंदू को जो उत्तर अभी भेजा है, वह मैंने मार्च १९८८ में रात को ७ बजे किदवईनगर में पूछा था'. कोई सुपारी ले तो बताना ये भाई फाइलें चोरी करवानी हैं ठाकुर की तिजोरी से.<br /><br />ठाकुर मोतीलाल नेहरू री. इं कालेज में हमारे जूनियर रह चुके है. ठाकुर कालेज में ही कवि निकल गये थे और तभी से हम अकवि लोगों पर इम्प्रेशन झाड़ते रहे हैं. इस प्रक्रिया में कुछ कविताएँ तो हम वाकई समझ भी चुके हैं. जूनियर परंपरानुसार पुत्रवत होता है (शुकुल अपवाद हैं, वैसे एक कारण यह भी बताया गया है और जिसकी जांच हम कर रहे हैं कि वह सीनियर थे). लिहाजा टाकुर को बधाइयाँ और जहाँ थे वहीं से आगे बढ़ते रहने के लिये शुभकामनाएँ.इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1126974465032908062005-09-17T08:57:00.000-07:002005-09-17T10:24:04.666-07:00तुलसी संगत शुकुल की - हैपी जन्मदिनबचपन में सुरसा की नाक और बडेपन (या बडप्पन??) में लोगों के फटे में उंगली करने वाला कल एक और साल बासी हो गया उसी पुरानेपन की ठसक के साथ जो चावल में है, दारू में है या फिर अचार में है.<br /><br /> बहुत झेलना पडता है शुकुल की वजह से. इनके साथ रहने पर कुछ इस तरह के भाव प्रकट किये जाते हैं सामान्य जन द्वारा , समय-काल और परिस्थितियों के हिसाब से कभी मेरे लिये (और कभी शुकुल के लिये)<br /><br />- भई , बडे-बडे आदमियों का साथ है<br />- ठलुआ की संगति और किससे?<br />- ल्यो आ गये ये भी!<br />- इन दोनों को बैठा रहने दो, हमलोग चलते हैं.<br />- इन लोगों की हंसी ही नहीं बंद हो रही है.<br />- तो ये कुछ काम-वाम भी करते हैं<br /><br /> सारी टिप्पणियों का बैलेंस-शीट बनाकर देखना है कि नफा-नुकसान कितना है.<br /><br /> शुकुल बडे महीन हैं, लखनऊ की गालियों की तरह - जो पडती हैं पर खाने वाले को समझ में नहीं आतीं और जब आती हैं तो बहुत देर हो चुकी होती है. शुकुल से कल बात हो रही थी तो पता चला कि शुकुल को आज २-४ ब्लाग और करीब १६ टिप्पणियां समर्पित की जा चुकी हैं. श्री शुकुल-शिकवा यह था कि किसी में खिंचाई नहीं है. (याद आयी जितेन्द्र की एक पुरानी फिल्म जिसमें बिना मार खाये उनके जोडों में दर्द रहता था). इस पर स्वाभाविक था कि किसी ने पूछा कि भई आप की खिंचाई कौन करेगा. अब जैसा कि शुकुल ने हमको सुनाया कि उन्होंने जवाब दिया था कि खिंचाई करने वाला अभी सो रहा है.<br /> हमने भी जवाबी महीनी दिखायी बिना धन्यवाद के खींचक का खिताब मन ही मन ऐक्सेप्ट किया. पहले तो मानसिक गुदगुदी का आनंद लिया इस इशारे को अपनी तरफ समझते हुए. हमारे आलसीपने को सब सूट भी कर रहा था कि देखो कुछ करना भी नहीं पडा इसके लिये. पर बत खत्म होने के २६ मिनट बाद आफिस के प्लास्टिक वाले नकली बोधि व्रिक्ष के नीचे सूजन रूपी सुजाता की बनाई हुई काफी पीकर यह ग्यान भी जगा कि अरे अग्यानी , अगर इशारा तेरी तरफ है तो जाहिर है तुझसे ब्लाग लिखना भी अपेक्षित है.<br /> तो इस बात को इग्नोर करते हुए कि हम चने की झाड में चढाये जाने वाले शास्त्रीय दांव में फंसा दिये गये हैं हमने सोचा कि चलो लिख ही डालते हैं. हमारे आलसीपने की छवि का हमको यह सहारा तो था कि फुरसतिया को आभास भी नहीं होगा कि हम लिख रहे हैं. विद्वान इसी तरह के इवेंट को किसी अग्यात पापड वाले को मारना बतलाते हैं.<br /><br /> बडे लस्सू किस्म के प्राणी हैं शुकुल. मिलो तो फीजिकली लसते हैं और न जाओ तो दिल और दिमाग के अंदर अपने लिक्खाडपने के कारण. मेरे ख्याल से आसपास के मुहल्ले से लेकर शहरों तक कोई ऐसा कवि, कथाकार, साहित्यकार नहीं बचा होगा जहां यह चिट्ठाकार अपनी कार से न पहुंच गया होगा.<br /><br /> कई चिट्ठाकारों द्वारा गुरुदेव के नाम से संबोधित यह गुरुघंटाल घंटी (साइकिल वाली) बजाते हुए भारत-यात्रा कर चुका है, यह शायद कम लोगों को मालूम होगा.<br /><br /> बनाने वाले का कम्प्यूटर क्रैश हो गया होगा (कम्प्यूटर लैंगुएज 'सी' की भाषा में कोर डम्प) ऐसे प्राणी को रचकर. शुकुल जसपाल भट्टी के वह ट्रैजिक एपिसोड हैं जिसका चयन पुरस्कार के लिये कामेडी की श्रेणी में हुआ हो.<br /><br /> खिंचाई को शुकुल ने कुटीर उद्योग का दर्जा दिला दिया है. हमें पता है कि कई ब्लागर बेताब हो रहे होंगे, शुकुल से अपनी खिंचाई करवाने को. इसके पहले लोगों को शायद पता भी नहीं होगा कि खिंचाई करवाने में भी इतना आनंद आता है. बकौल एक भुक्तभोगी - पहले तो थोडी तकलीफ होती है, धीरे-धीरे मजा आने लगता है.<br /><br /> 'माई री वा मुख की मुसकान संभारी न जैहें न जैंहे' लिख्नने वाले रसखान बतायें कि जिस मुख में सदा खीसें निपोरी रहती हैं, कितने समंद की मसि लें और कितने ग्रहों की धरती को कागद करें इसको बखानने में?<br /><br /> तो शुकुल दिवस पर यही कामना है कि वह दिन-पर-दिन इसी तरह बसियाते रहें जिससे इनकी चावल वाली महक, दारू वाली मस्ती और अचार का चटपटापन न केवल बरकरार रहे बल्कि बढता भी रहे.इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1124006709178737912005-08-23T23:55:00.000-07:002005-08-23T23:51:09.976-07:00हामिद का चिमटा बनाम हैरी की झाड़ूबहुत तर्क वितर्क के बाण चले. हम भी सोच रहे थे कि हमसे कैसे रहा गया बिना कुछ किये. <br /> <br />इसी ऊहापोह में दिन गुजरते जा रहे थे कि 'यदा यदा हि धर्मस्य' वाली शैली में चौबे जी अपनी रिमोट से लाक होने वाली गाड़ी में प्रकट हुए. चौबे जी जब अपनी गाड़ी से उतरकर दरवाजे बंद करते हैं और फिर आगे बढ़ते हुए फिर गाड़ी की तरफ बिना देखे और पीठ किये हुए रिमोट से दरवाजा लाक करते हैं तो उस समय चौबाइन के चेहरे पर देवदास की ऐश्वर्या का 'इश्श' वाला भाव परिलक्षित होता है.चौबे जी लाख दाबने पर भी इस इश्टाइल की प्रतिक्रिया स्वरूप उभरने वाली मुसकी<br /> नहीं रोक पाते<br /><br /><br />अब चौबे जी आते हैं तो आते हैं. फिर और कोई घटना, व्यक्ति या स्थान जो है उतने महत्व के लायक नहीं रह जाते. <br /><br />पत्नी चाय बनाने लगती है क्योंकि चौबे जी आये हैं, बेटे को धूम मचाने की आज़ादी मिल जाती है क्योंकि चौबे जी आये हैं, हम सेल्फ- कांशस हो जाते हैं कि चौबे जी आये हैं.<br /><br />चौबे जी बैठते हैं. चौबे जी बैठते हैं तो बैठते हैं. सोफे का सबसे आरामदेह हिस्सा अतिक्रमण करके, एक दो तकिये ऊपर से मंगा कर, आसपास अखबारों और पत्रिकाओं को तौहीन की नज़र से देख कर, पूरे घर को विशेषज्ञ दृष्टि से घूरकर फिर फाइनली ठंस कर बैटते हैं.<br />टीवी के सामने से कोई निकल नहीं सकता क्योंकि चौबेजी बैठे हैं. चाय के साथ समोसे तले जा रहे हैं क्योंकि चौबे जी बैठे हैं. लैपटाप पर बिहार के समाचार देखे जा रहे हैं क्योंकि चौबेजी बैठे हैं.<br /><br /><br />तो चौबे जी को भी हमने ब्लाग जगत में होने वाले शास्त्रार्थ का आंखों पढ़ा हाल सुनाया और ज़िद की उनकी प्रतिक्रिया जानने की.<br />चौबाइन ने बीच में झाड़ू और चिमटे की बात सुन उत्सुकावस्था में कान वैसे ही फड़फड़ाये जैसे अर्जुन के सामने गांडीव या कृष्ण के समक्ष सुदर्शन की या नानी के आगे नेनौरे (ननिहाल) की बातें हो रही हों, ज़रा देर तक उन्होंने दरशाया कि बात उनके अधिकारक्षेत्र की है और वहीं तक रहे तो बेहतर, फिर 'नासपीटे कहीं के' जैसाकुछ भाव फेंककर किचनोन्मुख हुईं.<br /><br />हम - अब देखिये ना हैरी पाटर इंस्टैंट क्लासिक मान लिया गया है<br />चौबे जी - अब क्लासिक भी कोई नूडल होता है कि लिखा और २ मिनट में पब्लिक में अनाउंसमेंट कि लो भैया आ गया बाजार में गरम-गरम.<br /><br />हम थोड़ा असंतुष्ट गतिविधियों में लगे, मिनमिनाये -<br />देखिये लोगों ने खरीदा तो है ८०० रु. में बाज़ार से. ऐसे थोड़े ही हल्ला हो जाता है.<br /><br />चौबे जी हंसे और इस प्रकार हम डायरेक्ट गाली खाने से बचे. <br />बोले - कौन खरीदा है ८०० रु. में. हमरे गांव में नगेसर जादव का लड़का <br />का? अरे खरीदा तो ओही लोग है ना. आई टी या फिर २४००० डैश १२५० डैश १३४५ डैश २९००० वाले ग्रेडवा वालों का लड़का का या फिर मैकडोनाल्ड में खाने वाला शहराती लोग?<br /><br />हम अब अटैकिंग मोड में आते हुए बोले - अब आप हामिद का चिमटा इतना बिकवा के देखिये, ई सब ब्लागर लोग का चैलेंज है!<br /><br />चौबेजी चकाचक चाय-चुस्की लेकर चौकस हो चुके थे. इस बाउंसर को दूसरी चुस्की की फूंक से उड़ाया और कहा - बचवा, ई सब है बजारवाद का दंभ. चलो अब हम बाजारू भाषा ही उवाचेंगे. माल तो पता लगा कि बिकाऊ है, रिन की तरह टिकाऊ है कि नहीं? क्लासिकवा ऐसे ही टेस्ट होता है. ई सब हैरी - वैरी ५-६ साल बाद कोई पूछे तब हमरे पास आना और अब तक जितने चाय-समोसे खिलाये हैं ऊ सब सूद समेत ले जाना. बजार का तो काम है जरूरत बनाना और जरूरत को कैश करके बेंच खाना. साबुन इसलिये खरीदो कि फलाने की कमीज हमसे कैसे ज्यादा सफेद, हमसे ज्यादा कैसे? टीवी लो तो इसलिये कि नेबरवा का एन्वी पहिले हो और ओनरवा का प्राइड बाद में.<br /><br /><br />हमने भी पाकिस्तानी सेना की तरह उधारी वाले अस्त्रों का सहारा नहीं छोड़ा. हम बोले -<br />तो क्या आपको नहीं लगता कि ये कहानी नैतिकवादी घोर और इसलिये बोर है?क्या हामिद का त्याग गिल्ट की फिलिंग नहीं पैदा करता?<br /><br />चौबेजी लग रहा था इसी प्रश्न के इंतज़ार में थे, बोले- तो ई कहनिया में कौन सा लंगोट कसने या ब्रह्मचर्य आश्रम के पालन करने के ऊपर गीताप्रेस टाइप की बात कही गयी है?<br />इसमें तो जीवन में सचमुच घट सकने वाली बात बाल मनोविज्ञान में उतरकर मनोरंजक ढंग से कही गयी है. इसमें कोई पलायनवाद का छौंक नहीं है. हामिद के तर्क बच्चों को सीधे और बड़ों को बच्चे के माध्यम से गुदगुदाते हैं.साथ ही सिखलाते हैं अपनी चदरिया की लेंथ और पैर पसारने का अनुपात. और ई काम हमिदवा ठंस के करता है. नैतिकतावादी होता या प्रवचन देने वाला होता तो कहता कि गरीब की गरीबी का मजाक उड़ाना पाप है. ऊपर वाला सब देख रहा है. उससे डरो. या हे प्रभो, ई मूरख लोग ई नहीं जानता कि क्या कर रहा है तो इनको हो सके तो माफ किया जाय. या फिर पुरानी हिंदी फिल्मों के हीरो की तरह सूखे पेड़ के नीचे खड़ा होकर बिसूरता नहीं कि 'ए दुनिया के रखवाले' या 'अरे ओ रोशनी वालों'.<br /><br />उसकी एही बतिया सिखाती है कि शादी में मारुति काहे नहीं लो और बच्चे की हर मांग पूरी कर पाने की सामर्थ्य ना होने पर गिल्टवा काहे नहीं पालो.<br /><br />अगर ई कहनिया गिल्ट पैदा करती है तो क्या करें हम? और क्या करे हमिदवा?हम ओही घिसा-पिटा डायलगवा फिर से मारूंगा कि सारी कहानियां ऐसी लिखी जायें जो गिल्ट पैदा करें कि हाय-हाय हम ऐसे काहे नहीं बन पाये?<br /><br />गुप्त जी जो कविता में कहते हैं कि माया के गर्भ से बुद्ध पैदा होता है और हर डाकू तरक्की कर के वाल्मीकि बनने के सपने देखता है, आगे लिखते हैं कि स्वतंत्रता हो तो हमिदवा चुनेगा हैरी पाटर ही.<br /><br /><br />तो ई गड़बड़ रमायन हमसे सुनो जो गिल्ट पैदा न करे. हमिदवा जा रहा है मेला. हैरी पाटर खरीदनी है और जेबवा में उतना पैसा नहीं है. तो क्या करे? बालमन! इक साथी की जेब से पैसे गिर जाते हैं, हमिदवा की जेब में पैसे पहुंच गये चुपके से. मेले में दूसरे मित्र की चापलूसी करके उसके पैसे की मिठाई खाता है तीसरे मित्र को आंख मारते हुए कि देखा कैसा फंसाया. पैसे अभी भी कम हैं, चौथे से उधार लेता है और लो हैरी पाटर आ गयी.<br /><br />जैसे उनके दिन बहुरे तैसे सबके दिन बहुरें ! कहानी खतम, बच्चा लोग बजाओ ताली और घर जाकर खुश हो कि देखो हम कितने अच्छे बच्चे हैं. मिठाई हम भी चापलूसी करके खाते हैं पर आंख तो नही मारते. और उधार लेकर हम भी नाइकी के जूते खरीद लाते हैं लेकिन हम कह आते हैं कि ई उधार हम चुकायेंगे. सारा गिल्ट हमिदवा के हिस्से गया. बिरबलवा की तरह अपने चरित्र की लइनिया बड़ा नहीं हुआ तो दूसरे का चरित्र की लइनिया छोटा कर आये.<br /><br />और दूसरी बतिया ये भी सुनो,इस कहानी के हैरी से भी लेखिका पैसे न होने पर हैरी पाटर न खरिदवाती.न भरोसा हो तो पहमे भाग में उसके कजिनवा का बर्थडे में देख लो. जो कहता है कि पिछला बर्थडे में छत्तीस गिफ्ट दिये थे, इस बार पैंतीसे दिये. तो हम दर्शक इसे बालमन का हठ मानकर का इग्नोर किये? हमलोग उसकी इस बात को दुष्टता मानकर मुस्कुराये. और हमरा छुटका ,जो कैंडी खाने को लेकर जब तब महाभारत मचाये रहता है ,तक 'हाऊ मीन' बोला.<br /><br />और छुटके को स्वतंत्रता मिले तो सारे मास्टरों को स्कूल में नौकरी से निकाल दे और लंच में सिर्फ चाकलेट खिलवाये. और हमको मिले स्वतंत्रता तो हम ससुरे कृष्णनवा को दुई कंटाप लगायें जो हमको एक्जाम में टोपने नहीं दिया और जिसमें हमने सप्ली खायी थी.<br /><br />सो ई गिल्ट वाली बतिया और ई डायलाग कि 'जमाने ने उसे कल्लू से कालिया बना दिया' में ज्यादा फरक नहीं है. ई सब है गड़बड़ का ग्लोरिफिकेसन. <br /><br />अब तक हम भी शहीदी मुद्रा में आ चुके थे, बोले - तो क्या ई कितबिया बिलकुल चौपट है?<br /><br />चौबे जी आखिरी समोसा टूंगते हुए और अपनी बातों में डिसक्लेमर (जैसा दोनों पक्ष के ब्लागर भी चिपका चुके हैं<br />)ठांसते हुए बोले - ई तो हम बोले नहीं, जबरदस्तिये हमरे मुंह में समोसे जैसा ठूंसे दे रहे हो. कितबिया मजेदार है, फिलम और भी जिसमें तकनीक के कमाल से सब चकाचक देखाया है, पढ़िये, देखिये , और इंजाय कीजिये. बकिया हम जो कह रहे थे कि स्वस्थ मनोरंजन और सिर्फ मनोरंजन के बीच में जो लाइन है ऊ तो रहबे करेगा. हम तो छोटका को कैंडी<br /> खिलाते हैं , पर रोटी - दाल को रिप्लेस तो नहीं न करते हैं. जरूरत पड़ने पर दवा देते हैं तो उसको समझ लो प्रवचन!<br /><br />अब हम हार कैसे मान लेते .अपनी ठंडी चाय सारी सुड़क गये फिर बोले - देखिये, लेकिन फिर भी लोग तो चिमटा इतना नहीं खरीदते हैं.<br /><br />चौबे जी मंद-मंद मुसकाये. बोले - कभी स्टेशन में देखा है कि कौन पत्रिका घमंड से क्लेम करती है 'भारत की सर्वाधिक बिकने वाली पत्रिका'? दुनिया में सिगरेट और शराब ज्यादा बिकते हैं कि फल? लेकिन सभी कोई न कोई जरूरत पूरी करते हैं.<br /><br />इन सबको अपने रेशियो में यूज करना चाहिये, सब्जी में मिरचा डालते हैं, मिरचा में सब्जी नहीं, ई समझ के काम करना चाहिये. रेशियो के साथ टाइम भी बेटाइम नहियै होना चाहिये. जैसे दिशा- मैदान और भोजन दोनों जरूरी है, लेकिन दिशामैदान के समय आप सब्जी की चटखारेदार चर्चा नहीं कर सकते और भाइसे भर्सा सब्जी खाते समय भी. रमायन और सेक्स की बात और स्वाद भी इसीलिये अलग-अलग है, बकिया भूल-चूक लेनी देनी. अब हम जा रहे हैं.<br /><br />कपप्लेट और समोसे की खाली तश्तरियां फैली हैं क्योंकि चौबेजी चले गये हैं. हम लैपटाप परबैठे हैं कि चौबेजी चले गये हैं.इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1110851159045327932005-03-16T11:45:00.000-08:002005-03-16T12:06:54.583-08:00बचपन के मेरे मीत<img src="http://pnarula.com/images/akshargram/anugunj.jpg" alt="Akshargram Anugunj" align="right" hspace="5" vspace="5" /><br /><br />हम कलकत्ते में रहने वाले अपने ममेरे भाई से फोन पर बतिया रहे थे. अचानक वह बोला - लीजिये लल्ला बाबा से बात कीजिये और जब तक हम संभलें फोन लल्ला बाबा के कब्ज़े में था.<br /> <br />लल्ला बाबा उवाचे - आलो (यानी हलो, ये लल्ला बाबा का यूनीक इश्टाइल है)<br />हमने भी हलो किया और पूछा - क्या खबर है लालदेव?<br />पूरी बातचीत में हाल-चाल लिये कम, लल्ला बाबा की डिमांड पर सुनाये ज्यादा. जब घर भर के बारे में तसल्ली ले ली, जान लिया हमारी भारत यात्रा के बारे में, तब वे बोले - बहुत बात कर ली, अब फोन रखो. हम सिर्फ इतना ही पूछ पाये थे - लल्ला, कहीं विवाह की बातचीत चल रही है तुम्हारी? लेकिन फोन तब तक कट गया था.<br /><br /><br />ऐसी किंवदंती है कि लल्ला बाबा हमसे सिर्फ १५ दिन बड़े हैं लेकिन इन १५ दिनों के फरक ने लल्ला अर्थात विनय कुमार शुक्ल के साथ १५ से ज्यादा विशेषण लगा दिये हैं. गाँव के रिश्ते से इनके पिताजी हमारे मामाओं के नाना लगते हैं, इस लिहाज से लल्ला हमारे मामा के भी मामा (मामा स्क्वायर) हैं, ममेरे भाइयों के लल्ला बाबा हैं, हमारे लल्ला नाना हैं. पोस्ता (जोड़ाबगान का एक व्यावसायिक केन्द्र) में लल्ला बाबू हैं. चूँकि बहुमत लल्ला बाबा कहने वालों का है, इसलिये लल्ला बाबा ही सबसे लोकप्रिय नाम है.<br /><br />स्ट्रैंड रोड पर जिस मकान में हम रहते थे वहाँ से बाहर नकल कर दाँये जाकर पहली गली में दाँये घूम जाओ, एक इस्तिरी वाला मिलेगा और उसके बाद जो बाँयी तरफ पाँच तल्ले (मंज़िल) का मकान है, उसी में तीन तल्ले पर लल्ला बाबा अपने पिताजी और बड़े भाई के साथ रहते हैं (थे - इसी बार पता चला कि लल्ला बाबा शिफ्ट कर गये हैं वहाँ से)<br /><br />जहाँ तक हमें याद है हम लोगों ने छोटी कक्षाओं में पढ़ाई एक साथ ही शुरू की थी. साथ - साथ ही स्कूल जाते थे. लल्ला बाबा हमारे परिवार के ही सदस्य थे और अभी तक हैं. ट्यूशन भी साथ -साथ पढ़ते थे. <br /><br />लल्ला बाबा कूल लोगों में से थे जो छुटपन से ही पान और पान-मसाला खाते थे और मुहल्ले का हर चायवाला, पनवाड़ी, मूड़ी (लैया) वाला, गन्ने के रस वाला, यहाँ तक मोड़ की मिठाई वाला तक उनको जानता था और श्रद्धा या सुविधानुसार उन्हें लाला, लल्ला बाबू, लाला बाबू पुकारता था. हम स्कूल एक साथ ही जाया करते थे. लल्ला बाबा आते-जाते गाय की पूँछ पकड़ कर लटक सकते थे, एकआध नेताछाप लोगों के साथ जीप या मोटरसाइकिल में घूम सकते थे, गली के लोफरनुमा लड़कों से दोस्ताना अंदाज़ में बातें कर सकते थे, यहाँ तक कंचे खेल सकते थे, पतंग खरीद कर उड़ सकते थे और लूट भी सकते थे. तात्पर्य यह कि लल्ला बाबा वह हर काम कर सकते थे जो कि हम पढ़ाई में तेज माने जाने की वजह से और अच्छे बच्चे होने की छवि का बोझ ढोने की वजह से नहीं कर सकते थे. इस तरह लल्ला बाबा हमलोगों के लिये वह खिड़की थे जो उस दुनिया की तरफ खुलती थी जो हमलोगों के लिये शायद निषिद्ध थी लेकिन लल्ला के स्वागत के लिये हमेशा पलक-पाँवड़े बिछाकर तैयार रहती थी.<br /><br />हम उत्सुकतापूर्वक उनसे सुनते थे कि किस प्रकार नोना ने हाथ घुमाकर बम चलाया और पुलिस के आते ही बहादुरीपूर्वक छिप गया था. या कौन सा नया थाना इंचार्ज आया है जोड़ाबगान या बड़ाबाजार थाने में. लल्ला हमें गर्व भरी निगाह से हमें देखते हुए ट्राफिक कांस्टेबल से जाकर टाइम पूछ सकते थे. <br /><br />लल्ला बाबा हमारे लिये शुरू से ही बड़े प्रोटेक्टिव थे. हम बचपन में लल्ला बाबा के साथ किसी पान की दुकान में खड़े थे कि उनके दो सड़कछाप मित्र आ गये फिल्मी अंदाज़ मे बड़े बाल, शर्ट की बटनें खुली हुई. एक तो लल्ला के साथ बातें करने लगा, दूसरा बोर होकर हमसे पूछने लगा कि यहाँ पास वाले कन्या विद्यालय में छुट्टी कब होती है. लल्ला की भौहें टेढ़ी हुईं, बोले - ए स्साला, तुम उससे ई सब बात नहीं करेगा, ऊ पढ़ने वाला लड़कालोग है, थोड़ा आदमी चीन्हके बात किया कर!<br />वह मित्र बोला - अरे हम कुछ अइसा- वइसा नहीं बोला, (हमसे), बोलो हम कुछ बोला क्या?<br />लल्ला पर इसका कोई असर नहीं पड़ा, बोले - ऊ सब हमको बताने का दरकार नहीं, आगे से हमसे बात करेगा ई सब.<br /><br />हमारे बचपन में कांग्रेस का शासन था. सो सरकार और पार्टी लल्ला बाबा की प्रतिभा पल्लवित होते देख रही थी. कभी-कभी चुनाव प्रचार में भी आने-जाने लगे थे और इस तरह उनकी श्रद्धा का ग्राफ दिन दूना और रात चौगुना ऊपर जा रहा था.<br /><br />लल्ला बाबा छुटपन से ही ज़िन्दगी का मर्म समझ चुके थे और हमें बतला चुके थे कि ई पढ़ाई - लिखाई से मिला है का कुछ भी किसी को. उस ज़माने में जब हमें स्कूल को मंदिर बताया गया था और पढ़ाई को सरस्वती, उनकी ऐसी विद्रोही बातें तो हमारा सिस्टम क्रैश कर देती थीं. <br /> हमलोग दूसरी-तीसरी कक्षा से साथ ही ट्यूशन पढ़ते थे. हमारे ट्यूटर बनारस की तरफ से थे और उनका नाम भी श्री लल्ला चौबे था. उन्हें अपने नाम और शिक्षा से बड़ा प्रेम था. लेकिन लल्ला बाबा को पढ़ाने के समय उनके सामने पहचान का संकट उपस्थित हो जाता था और शायद इस वजह से ही वह भी लल्ला बाबा को हर दो-चार दिनों में पीटने का बहाना खोज लेते थे.<br /> <br /> जैसा हम बता चुके हैं हमने पढ़ना साथ -साथ शुरू किया था और शुरुआती कुछ सालों तक हम साथ-साथ रहे. स्कूल वाले भी जी कड़ा करके लल्ला बाबा को हर साल खिसकाते रहे. लेकिन एक बार जब हम और लल्ला बाबा पाँचवीं का सालाना इम्तिहान दे चुके तो परिणामों की घोषणा से पहले प्रधानाचार्य ने लल्ला के पिताजी से बात की कुछ यों -<br />शुक्लाजी, विनय का प्रोमोशन तो बहुत मुश्किल है अगली कक्षा के लिये तो.<br />लल्ला के पिताजी तो एक क्षण के लिये सोच में पड़े फिर बोले - तो ठीक है आप जैसा समझें, न करें प्रोमोशन.<br />प्रधानाचार्य खँखारते हुए और थोड़ा हकलाते हुए बोले- नहीं, आप बात समझ नहीं रहे हैं, पाँचवीं कक्षा में नहीं फिट होगा ये.<br />लल्ला के पिताजी थोड़ा कनफुजिया गये, बोले - अभी तो आप कह रहे थे कि प्रोमोशन नही करेंगे!<br />प्रधानाचार्य जी ने कहने से पहले अपनी बात को तौला फिर बोले - मैं ये कह रहा था कि इसे चौथी कक्षा में डाल दिया जाय तो?<br />पढ़े-लिखे लोगों का तब से लल्ला बाबा की नज़रों में और पतन हो गया था. तब से याद नहीं कि लल्ला बाबा का स्कूल जाना कैसे कम होता गया, लेकिन एक बार हमने बैठ के सोचा तो पाया कि लल्ला बाबा अब स्कूल का रास्ता छोड़ चुके हैं.<br /><br />अब भी हर फंक्शन लल्ला बाबा के बिना अधूरा है, हर आयोजन लल्ला की सलाह से किया जाता है. कोई भी काम कहीं भी अटका हो लल्ला बाबा ही आखिरि शरण हैं, चाहे टिकट रिजर्व कराना हो, बड़ाबाजार से कपड़े खरीदने हों, किसी के बारे में जानकारी प्राप्त करनी हो या पुलिस केस फंसा हो या हावड़ा स्टेशन से रात-बिरात किसी को चढ़ाना-उतारना हो, एकबार चिंता लल्ला बाबा के सामने प्रस्तुत कर दो. बस, अब तो चिंता लल्ला बाबा की है. <br /><br />लल्ला बस खुश एक ही चीज़ से हो सकते हैं. हर काम के बाद या बहुत दिनों के बाद मिलने पर जब उनका हाथ प्रश्नवाचक मुद्रा में घूमता है और वही चिरंतन प्रश्न उनके मुखमंडल से फूटता है - क्या इंतज़ाम है? तो इसका मतलब होता है कि सोमरस का समय हो गया है.<br /><br />एक बात और कि लल्ला बाबा को नियंत्रण खोते हुए भी नहीं देखा गया सिवाय एकबार के जिसके हम चश्मदीद गवाह हैं. <br />तब की घटना का असर कुछ दिनों पहले तब दिखा, जब आशू (हमारे ममेरे भाई) ने कालेज के होमवर्क की प्राब्लम हल करते-करते गलती कर दी और उसके मुँह से निकला - <strong>हत्तेरे की</strong>. वह यह भूल गया कि लल्ला बाबा भी वहीं बैठे हैं. उसने लाख समझाया कि उसने जानबूझकर ऐसा नहीं किया पर लल्ला बाबा मानने को तैयार ही नहीं हुए. उसे जो हड़काया कि वह अभी भी याद करता है. <br /><br />लल्ला बाबा की उस घटना को मन को व्यवस्थित करके सब ब्लागरगण सुनें.<br /><br />हम तीसरी या चौथी कक्षा में होंगे और साथ ही स्कूल से लौट रहे थे. लल्ला बाबा की चाल में और दिनों की अपेक्षा अप्रत्याशित तेजी थी और किसी पानवाले, चायवाले के नमस्कार का जवाब नहीं दे रहे थे. हमलोग मामले की नज़ाकत समझ चुके थे और हमलोग भी तेज ही चल रहे थे कि घर से कुछ १ फर्लांग दूर अचानक लल्ला बाबा ने माथे पर जोर से हाथ दे मारे और उनके मुँह से निकला - <strong>हत्तेरे की</strong>.<br />यानी अनहोनी हो गयी थी, विज्ञान के गुरुत्वाकर्षण, द्रव के अपना तल ढूँढ लेने के सिद्धांत, दबाव और बल के आगे लल्ला हार बैठे. कहा भी है-<br /><blockquote>पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान.</blockquote><br /><br />सो समय ने अपना खेल दिखाया और कुछ क्षणों की नज़ाकत ने लल्ला बाबा के रथ को जो उनके तेज से हमेशा ज़मीन से ३ इंच ऊपर चला करता था, ज़मीन पर ही ला धरा.<br /><br /><br />तो अगली बार अगर आप लल्ला बाबा से मिलें तो याद रखियेगा, 'क्या इंतज़ाम है?' का जवाब तैयार होना चाहिये.इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com75tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1108898990632906842005-02-20T03:28:00.000-08:002005-02-20T03:50:29.370-08:00सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान<p>भवानी प्रसाद मिश्र कहते हैं -<br /><span style="COLOR: rgb(51,0,51); FONT-STYLE: italic"><blockquote>कुछ लिख कर सो, कुछ पढ़ कर सो</blockquote></span><br /><br />सो आजकल हम बहुत पढ़ रहे हैं. जब भी मौका मिलता है हम पढ़ लेते हैं.<br /><p></p><p>हममें और पठनीयता में ऐसी ट्यूनिंग ('ट्यूनिंग' लिखने से पढ़ा-लिखा होने की बू आती है वैसे हमें पता है कि इसे सामंजस्य भी कह सकते हैं) हो गयी है कि थोड़ी देर तक सोचा कि कुछ पढ़ा नहीं है कि इसी बीच पठनीय सामग्री हाजिर हो जाती है.<br /></p><p><br />कहना न होगा इसमें सबसे बड़ा योगदान ट्रक साहित्य का है. साहित्य को सर्वसुलभ बनाने में ट्रक साहित्य का अमूल्य योगदान है. हर मन:स्थिति और अवसर के किये यहाँ सामग्री उपलब्ध है.<br /></p><p><br />अब इस आलेख का शीर्षक ही देखिये, किसी राष्ट्रवादी उससे भी ऊपर आशावादी ट्रक पर यह लिखा था. पर इसके पीछे छिपा हुआ दर्द भी काबिले-गौर है.</p><p><br />कितना फरक आ गया है पहले और आजकल के चोरों-बेईमानों में. पहले चोर के पीछे पब्लिक 'चोर-चोर' कहते हुए दौड़ती थी तो चोर भी अपने पेशे को पूरा सम्मान देते हुए जान बचाने के लिये 'चोर-चोर' करता हुआ उन्हीं में मिल जाता था. आजकल तो बेईमानी की हद हो गयी है. किसी को चोर या 'दागी' कहो तो वह और कुछ नहीं तो 'कम्यूनल-कम्यूनल' ही करता हुआ उल्टे कहने वाले के पीछे दौड़ पड़ता है.<br /></p><p><br />गोवर्धनलाल जी जितने जुगाड़ू थे नहीं उससे ज्यादा अपने को मानते थे और सबके सारे काम कराने का ठेका ले लेते थे औरचूँकि वादों का बोझ ढोते-ढोते अक्सर बेचारे इतने क्लांत हो जाया करते थे कि उन्हें पूरा करने की संभावना कम ही रह जाती थी. कुछ वादे ही बेचारे ऊबकर खुद ही पूरे हो जाया करते थे जिसका श्रेय लेने में यह कभी कोई कोताही नहीं बरतते थे.<br /></p><p>इस प्रकार के गुणों से सज्जित लोगों को हमारे यहाँ नेता मानने की आदर्श सनातन परंपरा रही है सो यह सज्जन भी लोकप्रिय होकर 'लीडर जी' कहलाये जाने लगे.<br />किसी पुराने ट्रक पर इनकी नीयत डोल गयी और उसको सस्ते में खरीदने के चक्कर में टटोल रहे थे. पीछे जाकर जब झुककर देखने लगे तो बदतमीज़ ड्राइवर ने ट्रक को स्टार्ट कर दिया. पुराना ट्रक, घटिया डीजल सो उसने काला धुँआ लीडर जी के ऊपर सीधे उनके मुँह पर ही झोंक दिया. प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि उस बार साधु ट्रक का श्राप (बुरी नज़र वाले..) लगा था उनको. वैसे नेताजी ने आदत के अनुसार इसका खंडन किया और बतलाया कि न तो उनकी नज़र बुरी थी और न ही उनका मुखमंडल पुता था जैसा कि सारे लफंगे बता रहे थे.<br /></p><p><br />कुछ बेवकूफ किस्म के लोग यह कहते हुए भी पाये गये कि इस छुटभैये की जगह कोई असली नेता होना चाहिये था. इन लोगों को कौन समझाये कि हे बांगड़ुओं, असली नेता ट्रक और उसके डीजल से थोड़े ही मुँह काला करवायेगा. उसके लिये तो बी एम डबल्यू या मर्सिडिज चाहिये. कुछ कम फैशनेबल और सुविधा व सावधानीपूर्वक 'माटी क लाल' बने हुए नेता चारा और पशुपालन केंद्रों में ही मुँह मार लेते हैं और इस तरह अपनी धरती से उनका जुड़ाव भी प्रदर्शित हो जाता है.<br /></p><p><br />अब तो ईमानदार होने में भय लगता है. किसी ने सुन लिया कि यह शख्स भ्रष्ट नहीं है तो उसे पूरा विश्वास हो जायेगा कि यह बंदा तो अवश्य ही कम्यूनल होगा. इस डर से कई लोग भ्रष्ट बन जाते हैं. क्योंकि हमारे यहाँ ऐसा नियम है कि आप भ्रष्ट हैं तो भ्रष्ट और सिर्फ भ्रष्ट हो सकते हैं. और फिर आप सेकुलर कहलाये जाने के अधिकारी हो जाते हैं. हाथों की अंगुलियों को वी अक्षर जैसा बना कर ठुड्डी और दांये गाल के बीच में फंसा कर फोटू खिंचाकर बुद्धिजीवी कहलाये जाने वाले लोग आपको सर्टिफिकेट भी दे देते हैं. फिर उसमें साम्प्रदायिकता का स्थान कहाँ! कहा भी है -</p><p><span style="FONT-STYLE: italic"><blockquote>जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं</blockquote></span><br /><br />मूल्यों वाली गली इतनी 'सांकरी' हो गयी है कि 'वा में' भ्रष्टता के अलावा और किसी नेतासुलभ गुण का स्थान कहाँ हो सकता है. महाभारत में भीष्म का वध करने के लिये शिखंडी का प्रयोग ढाल की तरह किया गया था. उसी आदर्श परंपरा में आप अपने पिछड़ी जाति के या अल्पसंख्यक या महिला होने को ढाल बना सकते हैं. अब अपने अज़हर भाई को देखिये ना. जैसे ही मैच-फिक्सिंग में पकड़े गये, उनकी गजब की याददाश्त ने साथ दिया और वो बोले मैं मुसलमान था न, इसलिये पकड़ा गया. हम तो फैन हो गये इस मासूमियत के. मायावती उर्फ बहनजी को इस बात का रोना है कि अगड़ी जातियों ने उनसे ज्यादा पैसे पीटे और सी बी आई मायावती के पीछे पड़ी है. क्या होगा इस देश का कोई ठीक से खाने-पीने भी नही देता.<br /><br />हमें लगता है कि भ्रष्टाचार का भी आरक्षण होना चाहिये. बैठ कर हिसाब लगाना चाहिये कि किन जातियों ने कितने पैसों का भ्रष्टाचार किया है, तौल के उतने ही अनुपात में अन्य जातियों ( जिनको अवसर नहीं मिले) को अगली पंचवर्षीय योजना में स्वीकृत कर देना चाहिये. <p></p><p>चौबेजी इन बातों पर हमेशा कूद पड़ते है - जिहदवा का कोटा भी हिंदुओं को कम्पलसरियै न कर देना चाहिये. दुइ - तीन किलो पर फेमिली.</p><p><br />साम्प्रदायिकता का तमगा बचाने के लिये ज़रूरी है कि आप भ्रष्ट हों , बेईमान हों या 'फोरेन' में 'फेम' पाने के लिये कम्यूनलिज्म से कम्बैट या वीमेन्स लिब के ऊपर कोई दुकान खोल सकते हैं जिसे आम भाषा में एन जी ओ भी कह सकते हैं.<br /></p><p>छेदीलाल जी बहुत चतुर व्यापारी हैं. हमेशा गरम लोहे पर हथौड़ा मारने के आदी रहे हैं. लाइसेंस-परमिट काल में खूब पैसा कमाया, अब समाज सेवा की चिंता चढ़ी है. हाथों में प्रस्ताव और चेहरे पर मुस्कराहट लेकर आये और उवाचे - लड़के अपने-अपने बिजनेस में सेटल हो गये हैं. बड़का 'रियल स्टेट' में कमा रहा है. छुटका रेलवे, डिफेंस में सप्लायर है, गोटी फिट किये है. हमारा मन कर रहा है और जैसा कि फैशन भी है कि थोड़ी समाजसेवा कर ली जाय. कुछ आइडिया दीजिये.<br /><br />हमने बाबा आमटे जैसा कुष्ठ रोगियों के लिये कुछ या गरीब बच्चों की पढ़ाई, चिकित्सा इत्यादि कई रास्ते बताये जो चालू फैशन के अनुसार कमजोर सिद्ध हुए. बातों-बातों में एन जी ओ का नाम आते ही उनकी आँखों में वही चमक झलकी जो केश्टो मुखर्जी की आँखों में दारू की बोतल देख कर आती थी </p><p>बोले - तो ऐसा न करें कि एक एन जी ओ खोल लेते हैं. इसमें फायदा लगता है (कहते - कहते उनकी एक आँख न चाहते हुए भी दब गयी) </p><p>अचानक वो हड़बड़ी में आ गये और खिसकने की मुद्रा बनाकर बैठे, फिर सचमुच खिसक लिये. </p><p><br />सो अगर आप पालिटिकली करेक्ट जाति या धर्म या लिंग (फिर फुरसत यह देखने की किसे है आप भ्रष्टवीरचक्र प्राप्त हैं या मंथरा या शकुनि मामा का नंबर आपके बाद आता है) सारा 'पालिटिकली करेक्ट' तंत्र आपसे सहानुभुति व्यक्त करता है. दो-चार अंगरेजी अखबार आपको दबे-कुचले लोगों की आवाज बना देते हैं। और यदि आप बहुसंख्यक बिरादरी से हैं या और पुरुष हैं या और ईमानदार देशभक्त हैं. अगर आप सब हैं तो... आपकी हिम्मत कैसे हुई ऐसा होने की? करेला और नीमचढ़ा !<br /></p><p><br />गुजरात में कितने मुस्लिम बेघरबार हुए. धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस सरकार के समय भी इससे भी भयंकर दंगे हुए. लेकिन मेधा से लेकर तीस्ता तक सारी वीरांगनाऐँ इस दंगों पर अपनी सहानुभुति लेकर टूट पड़ीं. </p><p>जावेद आनंद <a href="http://www.sabrang.com/">सबरंग कम्युनिकेशन्स </a>नामक 'पोलिटिकली करेक्ट' प्रतिष्ठान चलाया करते हैं और अभी २-३ साल पहले तक उसमें भारत का नक्शा दिखाया करते थे और कुछ ज्यादा ही करेक्ट होते हुए कश्मीर के हिस्से उससे गायब दिखाया करते थे. करेक्ट लोग देश के लिये कुर्बान होते हैं और बिचारे पोलिटिकली करेक्ट जावेद साहब ने देश के हिस्से को ही कुरबान कर दिया. इतने बड़े त्यागी का <a href="http://www.indiacause.com/Cause/IC13_Idrf_Sabrang_Map.htm">कुछ मूढ़ लोग</a> विरोध करने पर उतर आये तो मजबूरी में नक्शे को दिखाये जाने की इच्छा को ही कुरबान कर दिया.<br /><br /></p><p>अरुंधती राय गुजरात-दंगों में किसी मुस्लिम और भूतपूर्व सांसद की काल्पनिक पुत्री पर न हुए अत्याचारों से इतनी व्यथित हुईं कि उन्होंने परिश्रम के साथ पूरी रिपोर्ट लिख डाली.चूँकि रिपोर्ट में भारत में न्याय-व्यवस्था की दुर्दशा और साम्प्रदायिकता के चढ़ते बुखार के ऊपर लेखिका की तीखी टिप्पणियाँ हैं और अपने देश के बारे में बुरा लिखने वाले सदैव पुरस्कृत होते रहे हैं, इसलिये उम्मीद है कि इन्हें भी पुरस्कार मिले.</p><p>(अगली बहस इस बात पर होनी चाहिये कि इनकी इस रिपोर्ट को पुरस्कार 'फिक्शन' श्रणी में मिलना चाहिये या 'नान-फिक्शन' में).<br /></p><p><br />रायबहादुर की तब भी बड़ी वाहवाही हुई थी क्योंकि जनहित में इन्होंने 'कांटेम्प्ट आफ कोर्ट' जैसा दुस्साहस कर दिखाया. वैसे इस तरह के लोगों के न्याय व्यवस्था का प्रति प्रेम देखना है तो देखिये जाकर मंदिर - मस्जिद मसले को सुलझाने के मामले को देखिये.<br /><br />अब यह दिन भी देखना है जब श्रीराम सिंह वल्द श्री दशरथ सिंह को वारंट जारी किया जायेगा इस दीवानी मुकदमे में कि हाजिर हों अपना फैजाबाद मुंसीपाल्टी में घूस देकर बनवाया हुआ बर्थ सार्टीफिकेट लेकर. और हाँ, अपने जायदाद के रजिस्ट्री कागजात न लाना भूलें. स्टांप पेपर तेलगी छाप हों तो भी चलेगा.<br /></p><p><br />हमें तो नहीं लगता कि इनमें से कोई भी जम्मू में अपनी ही ज़मीन से ही बेघर कर दिये गये कश्मीरी पंडितों के आँसू पोंछने भी पहुँचा हो. तब इनकी कम्यूनलिज्म से अकेले कम्बैट करने वाली दुकान (माफ कीजियेगा, प्राइवेट लिमिटड यानी नान-प्राफिट नहीं, जैसा एक अदालत में ही बताया गया) नहीं चलेगी न?<br /><br /></p><p>यही सारा मुखर गैंग सहसा मौन हो जाता है द्रौपदी के चीरहरण के समय की तरह जब सहसा पता चलता है की झाबुआ में हुए नन-कांड का कार्यक्रम खाकी निकर वालों के मुख्यालय में नहीं बना था और उसमें स्थानीय (और वह भी ईसाई समुदाय के लोगों) की भूमिका थी. यही नहीं चर्चों पर हमला भी काफी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय खबर बनी और उसमें भी जब दीनदार- अंजुमन का हाथ पाया गया तो सारे गांधी जी के बंदरों के परंपरागत रोल में आ गये. </p><p><br />यह सब लोग अपने-अपने ब्रांड की क्रांति करने में पिले पड़े हैं और सच पूछो तो काफी व्यस्त हैं. सस्ता, मजबूत और टिकाऊ है यह बिजनेस. गोपाल सिंह कहते हैं-<br /><br /></p><p style="FONT-STYLE: italic"></p><blockquote><p style="FONT-STYLE: italic">करने को तो हम भी कर सकते हैं क्रांति</p><p style="FONT-STYLE: italic"><br />अगर सरकार हो कमजोर</p><p><br /><span style="FONT-STYLE: italic">और जनता समझदार</span></p></blockquote><p><span style="FONT-STYLE: italic"></span><br /></p><p><br />अभी गुजरात में आतंकवादियों में एक महिला इशरत जहाँ को पुलिस एनकाउंटर में सुबह ४ बजे कुछ आतंकवादियों के साथ मारा गया तो कई दिनों तक 'हिंदुत्व' वादी सरकार के अल्पसंख्यकों पर हमले के बारे में प्रगतिशील लोग व अंगरेजी समाचारपत्र, एन जी ओ प्रा. लि. वाले चिंतित रहे. कोई कांग्रसी नेता तो महाराष्ट्र में इशरतजहाँ के घर कुछ लाख रुपये भी भेंट कर आये. साम्प्रदायिकता से संघर्ष में शहीद का दर्जा भी शायद कुछ लोगों की सिफारिश से मिलने वाला था (अब महाराष्ट्र में चुनाव हो रहे थे न) कि कांग्रेस सरकार की ही कृतघ्न और दो कौड़ी की पुलिस ने खुलासा कर दिया कि इशरत के वाकई आतंकवादियों से संबंध थे. (लाखों रुपये देने वाले नेता अपना पैसा वापस ले आये होंगे. अरे भाई संतुष्ट न होने पर पैसे वापस हो जाते हैं कि नहीं, ऐसा अंधेर थोड़े ही है)<br /></p><p><br />बंगाल में चुनावोपरांत हुई हिंसा में नारायणपुर में कितने लोगों पर अत्याचार हुए, लोगों के हाथ काट डाले गये. इस प्रकार इस प्रक्रिया में वहाँ की प्रगतिशील सरकार द्वारा साम्प्रदायिकता के हाथ काट डाले गये. तत्कालीन मुखिया ज्योति बाबू क्रुद्ध हो रहे थे बाद में केन्द्र में किसी 'बर्बर' सरकार के ऊपर क्योंकि कुछ लोगों द्वारा कोई मस्जिद कहीं गिरा दी गयी थी. </p><p><br /></p><p>हम सोच रहे हैं कि एक करेक्ट (नाट नेसेसरिली पालिटिकली) पार्टी या एन जी ओ खोल लें. बाहर साइनबोर्ड पर एक ट्रक पर लिखी पंक्ति चुरा कर डाल सकते हैं-<br /><br /></p><p style="FONT-STYLE: italic"></p><blockquote><p style="FONT-STYLE: italic">भोले बाबा <em style="FONT-WEIGHT: bold">भुल</em> ना जाना<br /></p><p><span style="FONT-STYLE: italic">गाड़ी छोड़ कर </span><em style="FONT-WEIGHT: bold; FONT-STYLE: italic">दुर</em><span style="FONT-STYLE: italic"> ना जाना</span></p></blockquote><p><span style="FONT-STYLE: italic"></span><br /></p><p><br />पर इसमें न तो सरकार , न पेट्रोडालर और न प्रोग्रेसिव लोग पैसा लगाने को तैयार हैं. आप लोग लगाइयेगा?<br /></p><p>वैसे साहित्य को सर्वसुलभ बनाने में रेलवे तथा अन्य सार्वजनिक शौचालयों का योगदान कम करकर आँकना तो कृतघ्नता होगी. पर इस पर चर्चा फिर कभी. </p>इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1101866767261632212004-12-02T13:05:00.000-08:002004-12-13T15:48:11.463-08:00इनविटेशन - आइये, अपनी नेशनल लैंगुएज को रिच बनायें <p>जस्ट अभी ब्रेकफास्ट फिनिश करके उठे थे. थोड़ा हेडेक था, प्राबेबली ओवरस्लीपिंग इसका रीजन था.
<br />
<br /></p> <p>एक फ्रेंड का फोन आ गया, काफी इंटिमेट हैं, लेकिन अपने को टोटल अमेरिकन समझते हैं. पूरे टाइम इंगलिश में कनवरसेशन! अरे अपनी भी तो कांस्टिट्यूशन में रिकग्नाइज़्ड एक नेशनल लैंगुएज है. लेकिन एजुकेटेड होने का यही प्राब्लम है, स्टेटस सिंबल की बात हो जाती है. ब्रिटिश लोग तो चले गये बैग एंड बैगेज, स्लेव मेंटालिटी यहीं छोड़ गये.
<br /></p> <p>
<br />इन मैटर्स में हम भी बहुत स्ट्रेटफारवर्ड है. हम कांटीन्युअसली अपनी मदर टंग में बोलते रहे. भई, हम तो इरिटेट हो जाते हैं इस काइंड के लोगों से.</p> <p>अभी एक कमर्शियल वाच कर रहे थे बासमती राइस के बारे में जिसमें किट्टू गिडवानी अपनी डाटर से कहती है - 'होल्ड इट सीधा. इफ यू वांट टू डू इट प्रापरली, योर प्रेपरेशन हैज टू बी बिलकुल पक्का.' कैसी लंगड़ी लैंगुएज है ये! लोग प्राउडली इसे हिंगलिश बताते हैं. कितना रिडिक्युलस फील होता है जब कोई अपना फैमिली मेम्बर ही ऐसे बोलता है.
<br /></p> <p>अरे ऐड को ऐसे भी प्रेजेन्ट कर सकते थे - 'इसको स्ट्रेट होल्ड करो, प्रापरली करने के लिये प्रेपरेशन बिलकुल सालिड होनी चाहिये.'</p> <p> इसे कहते हैं 'मैकूलाल चले माइकल बनने'.</p> <p>
<br />अब देखिये न, जैसे पंकज बहुत ही करेक्ट लिखते हैं कि अपनी लैंगुएज में टाक करना आलमोस्ट अपनी मदर से टाक करने के जैसा है. कितना अच्छा थाट है! यही होता है कल्चर या क्या कहते हैं उसको- संस्कार (अब इसके लिये कोई प्रापर इंगलिश वर्ड ही नहीं है, यही तो प्रूव करती है अपने कल्चर की रिचनेस )
<br /></p> <p>
<br />सिटीज की तो बात ही छोड़ दो, विलेजेज में भी बड़ा क्रेज़ हो गया है. बिहार से रीसेंटली अभी एक मेरे फ्रेंड के फादर-इन-ला आये हुए थे, बताने लगे - 'एजुकेसन का कंडीसन भर्स से एकदम भर्स्ट हो गया है. पटना इनुभस्टी में <span style="font-size:100%;">सेसनै बिहाइंड चल रहा है टू टू थ्री ईयर्स. कम्प्लीट सिस्टमे आउट-आफ-आर्डर है. मिनिस्टर लोग का फेमिली तो आउट-आफ-स्टेटे स्टडी करता है. लेकिन पब्लिक रन कर रहा है इंगलिश स्कूल के पीछे.</span><span style="font-size:100%;"> </span><span style=";font-family:Arial;font-size:100%;" >रूरल एरिया में भी ट्रैभेल कीजिये, </span><span style="font-size:100%;">देखियेगा </span><span style=";font-family:Arial;font-size:100%;" > इंगलिस स्कूल का इनाउगुरेसन कोई पोलिटिकल लीडर कर रहा है <span style="font-style: italic;">सीज</span></span><span style=";font-family:Arial;font-size:100%;" ><span style="font-style: italic;">र</span> </span><span style="font-size:100%;"></span><span style=";font-family:Arial;font-size:100%;" >से रिबन कट करके.</span><span style="font-size:100%;">किसी को स्टेट का इंफ्रास्ट्रक्चरवा का भरी नहीं, आलमोस्ट निल.'</span> (अपने ग्रैंडसन से भी आर्ग्युमेंट हो गया, सीजर-सीजर्स के चक्कर में उनका. मुँगेरीलाल जी डामिनेट कर गये इस लाजिक के साथ - 'हमको सिंगुलर-पलूरल लर्न कराने का ब्लंडर मिस्टेक तो मत ट्राई करियेगा, हम ई सब टोटल स्टडी करके माइंड में फिल कर लिया हूँ और हम नाट इभेन अ सिंगल टाइम कोई लीडर का राइट हैंड में सीजर देखा हूँ मोर दैन भन. सो हमसे तो ई इंगलिस बतियायेगा मत, नहीं तो अपना इंगलिस फारगेट कर जाइयेगा.' लास्ट सेंटेंस में हिडेन थ्रेट को देखकर ग्रैंडसन साइलेंट हो गये )</p> <p>
<br />कभी लेजर में बैठ के सोचो कितना ऐनसिएंट कल्चर है इंडिया का . लैंगुएज, कल्चर, रिलीजन डेवेलप होने में, इवाल्व होने में कितने थाउजेंड इयर्स लगते हैं. </p> <p>हमारे वेदाज, पुरानाज, रामायना, माहाभारता जैसे स्क्रिप्चर्स देखिये, क्रिश्ना, रामा जैसे माइथालोजिकल हीरोज को देखिये, बुद्धिज्म, जैनिज्म, सिखिज्म जैसे रिलीजन्स के प्रपोनेन्ट्स कहाँ हुए? आफ कोर्स इंडिया में.
<br /></p> <p>होली, दीवाली जैसे कितने कलरफुल फेस्टिवल्स हम सेलिब्रेट करते हैं. क्विजीन देखिये, नार्थ इंडिया से स्टार्ट कीजिये, डेकन होते हुए साउथ तक पहुँचिये, काउण्टलेस वेरायटीज. फाइन आर्ट्स ही देखिये क्लासिकल डांसेज. म्यूजिक, इंस्ट्रूमेंट्स - माइंड ब्लोइंग!</p> <p>अरे हम इंडियन्स को तो तो ग्रेटफुल होना चाहिये कि हेरिटेज में हमको यह सब मिला, फिर भी एक रैट-रेस मची हुई है कि कौन मैक्सिमम एक्सटेंट तक फारेनर बन सकता है. नेशनल प्राइड भी कोई चीज है या नहीं?
<br /></p> <p>
<br />हम तो एक सिंसियर अपील ईशू कर सकते है कि सारे ब्लागर लोग तो एजुकेटेड क्लास से है. अच्छी जेन्ट्री यहाँ आती है, डेली ब्लागिंग के लिये आप हिन्दी स्क्रिप्ट यूज करते हैं, आप लोग ऐट लीस्ट केयर करें, रेगुलर कनवरसेशन में हिंदी बोलें, किड्स को मिनिमम रीड और राइट करना तो टीच कर ही सकते हैं. अब मिडिल-क्लास ही तो नेशन के फोरफ्रंट पर होता है, यह चेंज एलीट-क्लास की कैपेसिटी के बाहर का मैटर है. इस मिशन के लिये नेसेसरी है डेडिकेशन, डिवोशन, कोआपरेशन, कनविक्शन, ऐम्बीशन. और इन केस आपके कुछ सजेशन हों तो मेल करें, हेजिटेट न करें.
<br />
<br /></p> <p>हमारे हार्ट में जो काफी टाइम से कलेक्ट हो रहा था, उसको तो पोर कर दिया और ट्रू इंडियन की तरह जेनुइनली इवेन होप भी कर रहे हैं कि रिजल्ट अच्छा होगा.
<br />
<br /></p> <p>बट क्या ये एनफ होगा?</p>इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com36tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1100913813369621282004-11-22T11:14:00.000-08:002004-11-22T12:17:07.570-08:00ब्लागिंग के इस घाट पर, भई संतन की भीड़<p>भाँति-भाँति के प्राणी चिट्ठा-संसार में विचरते हैं. कोई इसकी नकेल कानपुर से संभाल रहा है तो कोई इंडोनेशिया से. कोई कुवैत की माटी ( अररर... बालू) खोदे है तो कोई मुंबई-पूना मार्ग में ही कैफे ढूँढ़ रहा है कि वहीं से ब्लागिंग के बाण चला दिये जायें. किसी ने रतलाम के चूहों को चुनौती दे रखी है कि देखें कौन ज्यादा अखबार कुतरता है तो अंबाला से सैन होजे, कानपुर से डलास, कलकत्ता से पोर्टलैंड पधारने वाले आमों, जलेबियों और पापड़ों से फुरसत पाते ही ताल ठोंक देते हैं. अभी तत्काल एक्सप्रेस भी पलेटफारम पर लेट से आ लगी है. आओ ठाकुर आओ!
<br />
<br />'यह सब ऐसा किस प्रयोजन से करते हैं और इनके मन में क्या है?' - ऐसा प्रश्न हमने उत्सुक होकर केजी गुरू से किया था. उल्टे केजी गुरू ने हमसे प्रतिप्रश्न किया कि हे वत्स ब्लागिंग क्या है.
<br /></p> <p>
<br />हम बोले कि हमरी मूढ़मति हमको यही बताती है और जो कि फुरसतिया को हम और हमसे टोप कर फुरसतिया दुनिया को बतला चुके हैं कि ब्लागिंग एक प्रकार की पेंचिश है जो गाहे-बगाहे लोगों से न्यूनाधिक मात्रा में लीक होती रहती है और थोड़ी-थोड़ी होती रहे तो सबके लिये हितकारी होती है.
<br />
<br />केजी गुरू - तो ये ब्लागर कहाँ बसते हैं?
<br />हम - ये मनुष्यों के बीच ही पाये जाते हैं. इंटरनेट पर इनमें झुण्ड में होने की प्रवृत्ति भी पायी गयी है. इनके फलने-फूलने के लिये झुंड का होना जरूरी है. अकेला ब्लागर भटकी हुई आत्मा होता है जो हाथ में मोमबत्ती लेकर 'आयेगा आने वाला' या 'कहीं दीप जले कहीं दिल' वाली मुद्रा में बेचैन रहता है.
<br />
<br /></p> <p>केजी गुरू - ब्लागर के लक्षण क्या हैं?
<br />हम - ठीक-ठीक तो ज्ञानी जन भी नहीं बता पायेंगे. पर इस प्राणी का व्यवहार उसी प्रकार होता है जिस प्रकार किसी निमंत्रण में मुफ्त के मिष्ठान्न की आशा रखने वाला सदैव आतिथेय से बगल वाले अतिथि के लिये और मिठाई लाने को कहता है.
<br />केजी गुरू - कृपया आशय स्पष्ट करें.
<br />हम - जैसा कि फुरसतिया मुनि बतला चुके है ऐसी प्रजाति के लोग पहले दूसरे के ब्लाग की तारीफ करते हैं, फिर भाग कर अपना ब्लाग पूरा करते हैं.</p> <p>
<br />केजी गुरू - किस तरह की ब्लागिंग ज्यादा लोकप्रिय होती है?
<br />हम - ब्लागिंग वही लोकप्रिय होती है जो लोगों के 'तन'-मन को छू जाये. अभी-अभी एक कन्याराशि के <a href="http://www.alkadwivedi.net/archives/000099.shtml">अंगरेजी ब्लाग</a> को लोगों ने पढ़ा,<a href="http://www.alkadwivedi.net/mtype/cgi-bin/mt-comments.cgi?entry_id=99"> टिप्पणियाँ </a>कीं, उसका हिंदी में अनुवाद किया, अनुवाद पर <a href="http://hindi.pnarula.com/haanbhai/archives/2004/11/14/55">टिप्पणियाँ </a>कीं, टिप्पणियों पर <a href="http://hindi.pnarula.com/haanbhai/archives/2004/11/16/56#comments">टिप्पणियाँ </a>कीं, उसी ब्लाग पर आधारित <a href="http://fursatiya.blogspot.com/2004/11/blog-post_110074141339807049.html">स्वतंत्र ब्लाग </a>लिखे, फिर उन पर भी <a href="http://fursatiya.blogspot.com/2004/11/blog-post_110074141339807049.html#comments">टिप्पणियाँ </a>कीं. कई लोग इस प्रक्रिया में <a href="http://fursatiya.blogspot.com/2004/11/blog-post_110074141339807049.html#c110082374059281553">ज्ञानी </a>कहलाये, कई <a href="http://fursatiya.blogspot.com/2004/11/blog-post_110074141339807049.html#c110082374059281553">स्वघोषित मूढ</a> . भलमनसाहत की हद हो गयी इन दिनों.</p> <p>
<br />केजी गुरू - उस ब्लाग ने किस प्रकार लोगों के तन-मन को छुआ सो समझायें.
<br />हम- कन्याराशि तो योंही लोगों के मन को छू लेती है, साथ में कविता में प्रेम की अभिव्यक्ति शरीर के स्तर पर हो तो पुरुष- मन <a href="http://hindi.pnarula.com/haanbhai/archives/2004/11/14/55/trackback/">भावुक</a> हो जाता है, कमजोर हो जाता है. लोकप्रियता भाव-विह्वलता के इन्हीं क्षणों की साक्षी होती है.
<br /></p> <p>
<br />कई गंभीर जन मजाकिया बने तो कई विदूषकों ने इम्प्रेशन मारने की हद तक मनहूसियत ओढ़ डाली. कइयों ने लिंग-परिवर्तन की सलाह दी तो कई फिरी-फण्ड की महिमा बखानते हुए अपने नाम का ही लिंग-परिवर्तन करने को तैयार हो गये.
<br />
<br />केजी गुरू - 'यानी मैं तेरे प्यार में क्या-क्या न बना'.
<br />
<br />इसके बाद केजी गुरू ज़िद पर अड़े कि उनको भी कविता पढ़ायी जाये. कविता पढ़ते वक्त उनकी आँखों में चमक थी. खीसें निपोरन की अवस्था को प्राप्त थीं. बीच में उनकी आँखें भी मुँ दीं तो हमने घबरा कर उन्हें जगाया. वह जगे फिर बोले अभी पाँच मिनट में आते है और वह अंत:पुर में अंतर्ध्यान हुए।</p> <p>
<br />पौने पाँच मिनट में वह और उसके पौने पाँच सेकेण्ड के भीतर गुरूपत्नी का नेपथ्य से प्रवेश हुआ. केजी गुरू का मुँह <a href="http://fursatiya.blogspot.com">फुरसतिया </a>के शब्दों में झोले सा लटका था और गुरूपत्नी (हमार भौजी) की त्योरियाँ आसमान पर चढ़ी थीं. ऐसे मौके पर ज्ञानियों ने पतली गली का प्रयोग विधिसम्मत माना है. पर हम कुछ मूढ़तावश और कुछ जड़तावश वहीं जड़वत खड़े रह गये.
<br />
<br />गुरूपत्नी ने धुँआधार सवा मिनट का जो लेक्चर झाड़ा उसमें 'बुढ़ापा', 'चोंचले', 'शरम', 'परलोक', 'बड़े बच्चों का लिहाज' इत्यादि का समावेश था. फिर वह केजी गुरू को हमसे 'कुछ तो' सीखने की हिदायत देकर अदृश्य हुईं. उनके जाते ही केजी गुरू ने हमको आँख मारी और कहा -
<br />'वाह गुरू, धाँसू चीज है.'
<br />
<br />यानी हम गुरू के गुरू हो गये यह बताकर, गुरूघंटाल की पदवी से थोड़ी ही दूर.
<br /></p> <p>
<br />इस तनाव भरे दृश्य की पृष्ठभूमि यह थी कि केजी गुरू अंदर जाकर वही कविता गुरुआइन को सुना आये थे उन्हीं को संबोधित करके अपनी लिखी हुई बता कर. बस कविता में उन्होंने 'मैं' को 'तुम' और 'तुम' को 'मैं' से बदल दिया था.
<br />
<br />केजी गुरू मंद-मंद मुस्काते हुए अभी-अभी सुने हुए लेक्चर को दूसरे कान से निकालते हुए बोले - तुम भी कुछ लिखोगे ज़रूर इस पर, ऐसा हमें लगता है.
<br />
<br />अब जब 'ऐसा लगता है तो लगने में कुछ बुराई नहीं', सो हम बोले - गुरू की आज्ञा सर आँखों पर.</p> <p>केजी गुरु बोले - अब तम्हारे पहले प्रश्न का उत्तर तुम्हें प्राप्त हो गया होगा, सो अब जाओ और सुखपूर्वक ब्लागिंग करो. हमारा आशीर्वाद तो तुम्हारे साथ हई है.
<br />
<br />हमने आदरपूर्वक केजी गुरू को प्रणाम किया और घर की राह ली.</p>इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1098319317635279352004-10-21T23:55:00.000-07:002004-10-22T01:26:03.273-07:00वीरगति का अर्थशास्त्र - परदेस में - २ <a href="http://theluwa.blogspot.com/2004/10/blog-post.html">....गत भाग से आगे..</a>
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<br />खैर फोन तो अपने ऊपर था, नहीं उठाया. लेकिन कुछ लोग ऐसे कलाकार होते हैं कि फिर टेक्नालाजी पर उतर आते हैं और दोस्ती का फायदा उठाकर ईमेल में सीधे पूछ डालते हैं कि क्या हुआ. वैसे तो 'जेन मित्र दुख होंहि दुखारी' का जाप करेंगे और फिर दोस्तों से पत्थर खाने के किसी किस्से पर सेंटी हो जायेंगे. मन तो ऐसे ही खराब है, लेकिन इससे क्या फरक पड़ना है ऐसे लोगों को.
<br />
<br />हमारे मित्र हरजिन्दर ने हमको पट्टी पढ़ायी और कहा कि बात करो इंश्योरेंस कंपनी से और बताओ कि गाड़ी बनवा भी दोगे फिर भी उसकी कीमत पुरानी नहीं मिलेगी. ऐक्सीडेंट का ठप्पा तो लग ही गया है. लागा चुनरी में दाग! खरीदने वाला पहले ही बिदक जायेगा. बात करो और गाड़ी की डिमिनिश्ड वैल्यू का अंतर माँगो.
<br />
<br />इस प्रकार सीख-पढ़कर हम दावा संयोजक (क्लेम ऐडजस्टर) से फिर बतियाये और बोले - क्यों भाई, बनवा तो दोगे, हम तैयार भी हैं, लेकिन गाड़ी की जो कीमत कम होगी उसका क्या?दावा संयोजक थोड़ी देर चुप हो गये, जिसका अर्थ हमने यह लगाया कि हमारी चतुराई के आगे इनकी बोलती बंद हो गयी है. (हमसे टक्कर!) फिर वह अपनी ईमानदारी की दुहाई देते हुए बोले ('टू बी आनेस्ट') कि हम चाहें तो यह क्लेम भी फाइल कर सकते हैं लेकिन कुछ होगा नहीं, काहेसेकि हमारी गाड़ी पुरानी है.
<br />
<br />हमने थोड़ा भुनभुनाने की कोशिश की. यह उस तरह के ग्राहक के लक्षण हैं जिसके पास और कोई चारा न बचा हो. इस दशा में इस कोशिश का मतलब सिर्फ यह जताना था कि देखो हमारे पास शब्द तो ज्यादा नहीं हैं और तुम जो कर रहे हो वह कितना भी ठीक हो लेकिन इतना बताय देते हैं जिसको तुम भी सुन लो कि हम इस नये घटनाक्रम से बहुत खुश नहीं हैं.
<br />
<br />इस प्रकार हमने कस्टमर- धर्म को इस घड़ी में निबाहा. उसने थोड़ी देर तो हमारा मान रखा लेकिन वह भी पुराना खुर्राट था. उसने कहा - आपके पास सिर्फ एक विकल्प और बचता है वह यह कि हमसे मरम्मत खर्च ले लें नकद और गाड़ी ले जायें जस की तस. फिर जो करना है करें. किसी कबाड़ी को भी बेंची जा सकती है जो शायद हजार-पाँच सौ दे दे.
<br />
<br />चूँकि इंश्योरेंस वाला था सो जाहिर था वह कबाड़ियों में उसी प्रकार लोकप्रिय था जिस प्रकार ठेकेदारों-सप्लायरों के बीच किसी मलाईदार सरकारी विभाग का खरीद अधिकारी. सो उसने एक नम्बर भी दिया. फोन किया हमने वहाँ पर. निक से बात हुई, बोले हम गाड़ी देख कर आते हैं फिर बतायेंगे. एक घंटे में उसने वापस फोन किया और बताया कि ८०० तक दिये जा सकते हैं हमारी शान की भूतपूर्व सवारी को. हमने हिसाब लगाया कि मरम्मत खर्च और कबाड़ मिला कर हाथ में कुल ४८०० मिलेंगे. कहाँ ७००० और कहाँ ४८००. सारा फील-गुड फैक्टर धराशायी हो गया.
<br />
<br />हमारे सामने कोई रास्ता नहीं बचा, झख मारकर हम गठबंधन की किसी संतुष्ट पार्टी के असंतुष्ट विधायक-सांसद की तरह ( 'जो मिल रहा है उसे दाब लो नहीं तो उससे भी हाथ धो बैठोगे' जैसी भावना के वशीभूत होकर) तैयार हो गये जनहित में पुरानी गाड़ी को ही बनवाने को.
<br />
<br />हम इंश्योरेंस वाले की विजयी मुसकान फोन पर ही सुन रहे थे. चूँकि एक आदर्श अमरीकी उपभोक्ता के सारे दाँव हम खेल चुके थे और सामने वाला भी सारी जवाबी चालें चल चुका था और हम दोनों एक दूसरे से थोड़ा-थोड़ा ऊब चुके थे, इसलिये अब एक दूसरे को बाई-बाई किया गया.
<br />
<br />अब लौट के आते हैं इन सब तमाशों के चश्मदीद गवाह पर जो हर पुलिसिया पूछताछ के समय घटनास्थल पर नहीं पाया जाता है यानी अपने भगवान जी पर. इतने सारे व्रत-उपवास, मंदिर विजिट, प्रसाद चढ़ावा और यह फल मिला भक्त को. हो कि नहीं हो? (अगर अपना भारतीय ठुल्ला एक डण्डा दिखाकर यही पूछ ले तो शायद भगवान भी 'नहीं' कह दें). नहीं होगे तो हमें दोषारोपण के लिये फिरी फण्ड का और कौन मिलेगा. अभी तो सहारा है - भगवान का, पिछले जनमों के कर्मों का. लोग परीक्षाओं में नकल करते हुए पकड़े जाते हैं और ऊँट की भाँति गर्दन ऊपर उठाकर कह देते हैं कि किस बात की सजा दे रहे हो. घर में दो लड़कियाँ पैदा होते ही लोग पिछले जनम के कर्मों का खाता खोल के किसी पाप अकाउंट मे डाल देते हैं.
<br />
<br />हमने केजी गुरू के सामने दो-चार इस तरह के डायलाग बोले. केजी गुरू ने हमारे कंधे पर हाथ रखकर पुराना डायलाग रिपीट किया जो गाड़ी के ठुकने के तुरंत बाद मारा था - होनी को कौन टाल सका है. हमारा तो मन किया कि भगवान को सामने रख के डीवीडी पर 'दीवार' फिल्म चला दें. क्योंकि हमारे डायलाग तो बेअसर हो चुके थे. अब जब अमिताभ कहेंगे - 'आज तो तुम बहुत खुश होगे' तब सबसे ऊँची आवाज में ताली हमारी बजेगी. फिर सोचा इस ज़माने में इन सब दोषारोपणों से काम तो नहीं चलेगा. आजकल के ज़माने में हम किसी को 'दागी' कहेंगे तो उल्टा हमारे ऊपर ही आरोप आ जायेगा कि क्यों तुमने भी तो नौकरी लगने से पहले जो १२५ रुपये के प्रसाद का वादा किया था उसे पचास में ही निपटा गये.
<br />
<br />फिर हमें कालेज का ज़माना याद आया कि हम भगवान को किस भाव से (और कब) याद करते थे. सूरदास सखा भाव से देखते थे तो मीरा प्रियतमा के रूप में और तुलसी बाबू तो दास ही बन गये. हम तो जब भी दूसरे दिन कोई कठिन पर्चा होता था, एक ब्लैकमेलर की भाँति देखते थे और इसके लिये ज्यादा दूर नहीं अपने जलोटा साब को याद करके गाते थे -
<br />कभी-कभी भगवान को भी भक्तों से काम पड़े (हाँ, समझ लेना)
<br />जाना था गंगा पार, प्रभू केवट की नाव चढ़े (अब समझ में आया मामला कि ठीक से समझायें. ये डायलाग हमने चौबे जी से चुराया है, वो शुरू तो इसी वाक्य से करते हैं पर अंत में जो स्पेशल इफेक्ट डालते हैं वह जानमारू होता है और इलाहाबादी भाषा में तोड़ू होता है जब वह दूसरे को हड़काते हुए स्वयं को तमाम विशेषणों से संबोधित करते हैं जैसे कि 'हम बहुत कमीना इंसान हूँ' या पशु प्रेम में 'हम बहुत कुत्ती चीज हूँ'. यदा-कदा ब्रह्मास्त्र के रूप में इन विशेषणों में माताओं- बहनों के प्रति अनसेंसर्ड प्रेम भी झलकता है. जानकार बताते हैं कि उनका ये वार कभी खाली नहीं गया. सामने वाला बिना गाली खाये ही समझ लेता है समझने वाली बात.)
<br />
<br />और हम देखते हैं कि इस कलिकाल में इससे बढ़कर कोई दवा नहीं है. किसी का काम अपने पास फँसा हो तो अपने सौ काम निकलवा लो, बंदा ही-ही करते हुए , दाँत निपोरते हुए करता जायेगा अपना काम निकने तक. (काम निकल जाने पर रोल की अदला-बदली शास्त्रसम्मत है.) इसका प्रूफ भी साक्षात् है, सारे सब्जेक्ट बिना लाली के निकाल ले गये.
<br />
<br />फिलहाल गाड़ी जिसे हम प्रतिष्ठापूर्वक फोर्सफुली वीरगतिप्राप्त करार देने पर तुल गये थे अब पीठ पर घाव खाये हुए श्रीहीन योद्धा की भाँति इस हफ्ते घर वापस आ रही है. हमको चिंता हो रही है, हमारे पड़ोसी जो हमेशा ज़ल्दी में ही रहते हैं इस बीच एक दिन दूर से ही हमें आते देख कर खड़े हो गये लेकिन हम भी अब थोड़ा चतुर हो गये हैं सो दाँव देकर निकल गये.पर अब तो हमको भी लगने लगा है कि हमसे कुछ नहीं हो सकता.यहाँ ब्लागजगत में बड़े-बड़े सूरमा हैं जिनकी गाड़ियाँ इज्जत से <a href="http://lifeinahovlane.blogspot.com/2004_04_01_lifeinahovlane_archive.html">शहीद</a> हुईं, कुछ फंडे हमें भी बताओ यार!
<br />इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1097799389448608742004-10-14T17:12:00.000-07:002004-10-14T17:20:06.463-07:00भारतीय होने के मायने - अमरीका मेंपोर्टलैंड में हर साल अगस्त में भारतीय स्वतंत्रता-दिवस समारोह ने एक परंपरा का रूप धारण कर लिया है. भारतीय समुदाय इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है. यह समारोह खुले आकाश के नीचे पायनियर कोर्ट हाउस स्क्वायर में सम्पन्न होता है. दिन भर के इस समारोह में रंगारंग गीत-संगीत नृत्य इत्यादि की बहुलता रहती है. कहना न होगा इसमें बम्बइया फिल्मों का असर ज्यादा होता है.
<br />
<br />खैर, तो इस बार लेख प्रतियोगिता का भी आयोजन था तीन आयु वर्गों में और अपने-अपने आयु-वर्गों में हमारे पुत्र (Topic - What does being an Indian mean to you?') और पुत्री (Topic - Improving Indo-Pakistan relationship) ने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किये.
<br />
<br />हमारे सुपुत्र पैदायशी अमरीकी नागरिक हैं परंतु उन्हें अपने भारतीय होने पर कुछ ज्यादा ही घमंड है. इन्हें अगर अमरीकी बताया जाय तो हिंसा पर उतारू हो जाते हैं. दाल-चावल इनकी फेवरिट डेलिकेसी है. किसी युद्ध के दृश्य को देखते हुए इनका पहला प्रश्न भारतीय दारोगा की मुद्रा में यही होता है कि अगर भारतीय और अमरीकी सेना में युद्ध हो जाय तो कौन जीतेगा. उत्तर भारतीय सेना के पक्ष में देने पर संतुष्ट होकर अपने काम में लग जाते हैं. अगर दूसरा कुछ जवाब मिले तो सामने वाले को दूसरी पार्टी का समझ कर शत्रुगत व्यवहार करते हैं और यह तनातनी समाप्त करने में और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण स्थापित करने में कई चाकलेट और कैंडियाँ अकाल मृत्यु को प्राप्त होती हैं. अपने विषय पर लिखवाने में मुझे जब नाकों चने चबवा दिये, कई वादे करवा लिये, आइसक्रीम और वीडियो पार्लर के चक्कर लगा आये तब अपने अनमोल विचार इन्होंने किस्तों में प्रकट किये जो हमने नोट किये. लीजिये, हाजिर हैं -
<br />
<br />
<br /><div align="center">
<br /><strong>WHAT DOES BEING AN INDIAN MEAN TO YOU
<br />By Devanshu Awasthi (8)
<br />Grade 2nd
<br /></strong>
<br />
<br /><em>What do I mean by being an Indian? When my dad asked me this, I thought “Nothing”.
<br />Then I thought it must be something.
<br />
<br />My dad says being an Indian means being respectful to elders.
<br />My mom says being an Indian means being polite and well mannered.
<br />My grandpa say being an Indian means being part of an ancient culture.
<br />My grandma says being an Indian means being part of a big family.
<br />
<br />Being an Indian, I speak Hindi. Being an Indian, I can also speak English.
<br />
<br />I like to watch Pokemon. Being an Indian, I love stories of Hanuman.
<br />
<br />Being an Indian, I call my dad’s friends uncles.
<br />Being an Indian, I call my mom’s friend’s aunties.
<br />
<br />Being an Indian, I love Pizza. Being an Indian, I love Roti-Daal.
<br />I like French fries. I love Bhelpuri.
<br />
<br />Being an Indian, I can sing “This land is my land!”
<br />Being an Indian, I love to sing “Vande Maataram!”
<br />
<br />I say Hi to my American friends. I say Namaste to my uncles and aunties.
<br />
<br />I love to play soccer. I have begun to like cricket too. ( I know that Sachin dude!)
<br />
<br />I am proud of Indian Army. Being an Indian, I do not like fights (except on the video games).
<br />
<br />I love to have gifts on Diwali. I just can’t wait for Santa on Christmas.
<br />
<br />Now I think - being an Indian, I AM PROUD CITIZEN OF THE WORLD.
<br />
<br />
<br />
<br /></em></div>इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1097565743229689412004-10-12T11:59:00.000-07:002004-10-12T11:59:11.333-07:00एक कविताकोयल की कूक
<br />
<br />जब जगाये हृदय में हूक
<br />
<br />समझ लेना निमंत्रण है मेरा
<br />
<br />मौन मूक
<br />इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1096593351389324082004-10-11T00:04:00.000-07:002004-10-11T00:02:53.536-07:00वीरगति का अर्थशास्त्र - परदेस में बहुत दिनों से हम छिपे छिपे घूम रहे थे नज़रें बचाते हुए. यहाँ तक कि बचाने की जरूरत भी नहीं पड रही थी क्योंकि डाउट हो रहा था कि हम तो गिर ही गये हैं नजरों से. बच्चे तक बाजार भाव गिरा चुके थे. हमें कई बार जता दिया गया था कि अब हमसे कुछ नहीं होना.
<br />
<br />हर आने जाने वाले की निगाह हमको अंदर तक भेदती लगती जैसे पूछ रही हो - इतना भी नहीं कर पाये. हमको तो इस लोक की छोडो परलोक तक में अकाउंट आडिट कैसे होगा इसकी चिंता सताने लगी थी.
<br />
<br />महीने भर पहले जब सुना कि फलाने की गाड़ी ठुक गयी है तो कई लोग बधाई देने पहुँचे. सब पूछने लगे कि अब कौन सी खरीदनी है तो साँप सा लोट गया मन में. एक सज्जन तो इधर-उधर देखने के बाद आँख बचा के नयी गाडी और नयी बीवी की तुलना करने लगे. हम चुप बैठे रहे. हमने शोक प्रकट किया लेकिन जिनकी गाड़ी ठुकी थी उनकी खिली हुई बाँछों के आगे ऐसा लगा ज्यों हमीं ठुक गये.
<br />
<br />खैर, भगवान हैं और जब लोगों के पापों का घड़ा तानों से भर गया तो एक जीप चालिका के रूप में १५ मील प्रति घंटे की रफ्तार से प्रकट हुए. हुआ यों कि हमारे ७ वर्षीय सुपुत्र बोले कि आज हम बस से स्कूल नहीं जायेंगे और हम बापपने में उनको ज्ञान देने में उतारू हो गये कि बस से जाना किस प्रकार एक सामाजिकता की निशानी है. बहुत दिन बाद कोई हमारी सुन रहा था ऐसा हमको लगा, इस चक्कर में हम कुछ ज्यादा ही समझा गये और फाइनली बस छूट ही गयी.
<br />
<br />भुनभुनाते हुए हम और मुस्कुराते हुए हमारे सुपुत्र सवार हुए हमारी टोयोटा कोरोला में. स्कूल पहुँच कर पुत्र को उतारा और बाई बाई करते हुए गाड़ी बढ़ाने लगे. इतने में हमसे आगे वाले ने भी अपने बालक को उतार कर गाड़ी आगे बढ़ानी शुरू कर दी, लिहाज़ा हम रुके. हमारे वीर बालक ने अभी तक हमको बाई-बाई करना नहीं छोड़ा था सो हम भी फिर से बाई कर ही रहे थे कि अवतरण एक धड़ाम की आवाज के साथ हो गया. हमें पीछे से आदर्श तरीके से शास्त्र- सम्मत विधि से ठोंक दिया गया था.
<br />
<br />सब कुछ उपयुक्त था. गाड़ी ९ साल पुरानी हो चुकी थी, सो समय उचित था. <strong>हमें</strong> ठोंका गया सो अवसर उपयुक्त था. ठोंकने वाली 'I am so sorry' का अखंड पाठ कर रही थी सो मामला भी चकाचक था. हम अपने को परंपरागत तरीके से चुटकी काट कर वास्तविकता कन्फर्म भी कर चुके थे, सो जो हुआ था, वह अवश्य ही हुआ था. बकौल श्रीलाल शुक्ल हमारी बाँछें भी जहाँ कहीं थीं खिल पड़ीं थीं. हमने आकाश की तरफ देखा शायद इस दुर्लभ अवसर का दर्शन करने देवगण भी पधारें हों. तभी हमारे कानों में चिंगलिश आवाज पड़ी - ' If you need any assistance, you may take my phone numer'. यानी एक चीनी महिला इस क्षण की साक्षी बनने को भी तैयार थीं.
<br />
<br />अब अमरीका में यही होता है. कहीं कुछ हो जाय और गवाह अगर है तो वह अपना काम छोड़ कर आपको अपना कार्ड या फोन नंबर थमा जायेगा. कई बार तो मुजरिम को भी आफर दे जाते हैं जिसे नम्रतापूर्वक रिफ्यूज करने का रिवाज है क्षमाप्रार्थी बनकर. इसपर 'नेवर माइंड' का प्रसाद भी प्राप्त होता है.
<br />
<br />खैर हमने गवाहश्री या सुश्री (चौबे जी हमेशा इसे सुसरी उच्चारित करते हैं) का नंबर लिया और धन्यवाद ज्ञापित कर बढ़े श्री १००८ जीप चालिका की ओर. उसने पहले हमारा लाख शुक्रिया अदा किया कि हम क्रुद्ध नहीं हुए उस पर. इसपर हमने भी गंभीरता का तानाबाना ओढ़ते हुए कुछ फिलासफी झाड़ी जिसका तात्पर्य घिसा पिटा था जैसे कि जब-जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है इत्यादि.फिर बीमा, लाइसेंस इत्यादि सूचनाओं का आदान प्रदान हुआ फिर हम चल पड़े घर की तरफ सीना फुलाए हुए.
<br />
<br />गाड़ी चल-फिर सकती थी, सिर्फ पिछवाड़े का बेड़ा गर्क हुआ था. रास्ते भर हम गर्दन उचका के इधर उधर ताकते रहे कि मिले अब कोई हमें यह सब बताने को पर लानत हो इस जगह पर जहाँ पर पान की दुकानें तक नहीं होतीं, जहाँ पर हम जाकर छाती ठोंक कर कह सकते कि देखो हमने भी गाड़ी ठुकवा ली है, अब बोलो क्या कहते हो.
<br />
<br />घर पहुँच कर हमने चाय माँगी (खुद नहीं बनायी) और हमें अपनी आवाज में गरज का भी आभास हुआ. और थोड़ी देर गंभीरता ओढ़े चुप भी बैठे रहे, पर हमेशा की तरह इस बार भी इस भावखाऊ अवस्था में हमें अकेला ही छोड़ दिया गया तो हमसे रहा नहीं गया और हम टप्प से बोल पड़े - अरे सुनती हो , आज गाड़ी का ऐक्सीडेंट हो गया.
<br />हमें अविश्वास भरी नजरों से देख के सवाल पूछा गया - तुमने किया या किसी और ने.
<br />हमने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा - हमारे होते हुए मजाल है जो और कोई ठुकवा ले.
<br />इस पर हमें 'चल झूठे' जैसी नजरों से देख के फिर पत्नी ने पूछा - सच?जिसपर हम किसी फिल्म से सीखे संवाद तुरंत बोल दिये - मुच!
<br />फिर हमने सारी कहानी सुनायी और पाया कि बीच-बीच में गैर-जरूरी ढंग से हमारे मुँह से कई बार 'खी-खी' 'ही-ही' जैसी निरर्थक ध्वनियाँ भी उत्सर्जित हुई।
<br />
<br />हमारा भाव अचानक बढ़ गया था. चाय के साथ पराठे और गुलाब-जामुन भी मिले. हमने भी मौका पाकर कहा कि भई पराठे तो हम गरम ही खाते हैं और लो भैया गरम पराठे भी हाजिर.
<br />
<br />अभी सुबह के ९:१५ ही हुए थे. हालांकि दफ्तर को देर हो रही थी, मगर हमसे बिना बाहर निकले रहा न गया शायद कोई शिकार मिल जाये जिसे हम ये जो कथा है पुरुषार्थ की उसे सुना सकें. जैसे ही निकले हमारे देसी पड़ोसी बाहर गराज की तरफ आते हुए दिखायी पड़े. उनकी गाड़ी बाहर ही खड़ी थी. वह हमें बिना देखे ही गाड़ी में घुसे जा रहे थे कि हमने लगभग दौड़ते हुए उनको टोका - 'क्यों भाई, आज देर हो गयी क्या?'
<br />वो जल्दबाजी में बोले - 'हाँ' , फिर पूछा - छुट्टी ले रखी है आज?
<br />इसी मौके के इंतजार में हम थे. हमने जब तक भूमिका बनानी शुरू की -'नहीं भाई हमें भी देर हो रही थी लेकिन क्या करें...' लेकिन वो तबतक कार के शीशे चढ़ाने लगे थे. हमने जल्दी में बताने की कोशिश की लेकिन तबतक वो बाई करके निकल गये.
<br />
<br />हम बड़े अनमने ढंग से लौटे, तैयार हुए दफ्तर जाने को. वहाँ से अपनी इंश्योरेंस कम्पनी को फोन किया, सारे विवरण लेते समय कम्पनी ने बड़ी चिंतातुर आवाज में यह भी पूछा कि हम ठीक तो हैं जिसके उत्तर से सिर्फ इतना तात्पर्य होता है कि इलाज में तो पैसे नहीं खर्चने पड़ेंगे.
<br />फिर दफ्तर में सबको देर से आने का कारण बताया. वहाँ कइयों ने दुख प्रकट किया, तो कई आँख मारते हुए बोले - 'सही है'. लेकिन गोरों के साथ वो मजा कहाँ. यहाँ तो लोग बड़े निर्लिप्त भाव से दुख प्रकट करते है, या धन्यवाद करते हैं. अगले ही पल गियर बदल कर दूसरी बात करने लगते हैं. ठुकी हो किसी कि कार तो इनकी बला से. न वो मन ही मन खुजली न वो आँखों में ईर्ष्या. कुछ मजा न आया. किसी देसी को रस लेकर बताओ तो पहले हाथ मलते हुए वह सुनेगा, फिर ईर्ष्या को छिपाते हुए बधाई देगा, फिर घंटे-दो घंटे टहल-वहल कर आयेगा और घुमा-फिरा कर इधर उधर की बातें करने के बाद टोह लेने की कोशिश करेगा कि सचमुच ऐसा कुछ हुआ था और हम इन सब हरकतों को देखते हुए अनदेखा करते हुए मन ही मन एक सुख भोगते रहेंगे. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. शाम को भारी मन से घर लौटे.
<br />
<br />पर हमने लगता है अपनी पत्नी की कुशलता पर कुछ कम ही भरोसा किया था. यह समाचार दूर-दूर तक के देसियों में विविध भारती से भी ज्यादा तेजी से फैल चुका था और जब तक हम घर पहुँचे तब तक भारी भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी. देसी भाँति भाँति के कपड़ों में. ऐसे-ऐसे लोग दिखे जो पिछली दो-चार होलियों-दीवालियों में भी नहीं दिखे थे. जैसे ही हम घुसे शोर सा मचा - 'आ गये, आ गये'. हमारे अभिन्न मित्र केजी गुरू ने हमें गले लगा लिया. हमें कई ऐंगल से देखा जा रहा था, निहारा जा रहा था, घूरा जा रहा था.
<br />
<br />अचानक किसी ने पूछा - 'चोट तो नहीं आयी?'. वाकई सुबह से किसी का ध्यान ही इस पर नहीं गया था. हमने फिर से भाव खाने की कोशिश की और पत्नी की तरफ ऐंठते हुए देखा. कई लोगों की साँसें थम गयीं. हम ऐंग्री यंग मैन के इस अवतार में अपने को सफल ही समझ रहे थे कि तुरंत उस पर पानी फेर दिया गया हमारी धर्मपत्नी द्वारा - 'अब जब सुबह से अभी तक कुछ नहीं हुआ तो ठीक ही होंगे.' इस दाँव के बाद हम फिर से नार्मल यानी बैकग्राउंड में हो गये थे और पत्नी सबको बता रही थी कि कैसे क्या हुआ था. हम चकित कि इतने विवरण कैसे पता, ये तो हम भी बताना भूल गये थे. पता चला हमारे सुपुत्र जो घटना के समय बाई-बाई कर रहे थे, सारी घटना के चश्मदीद गवाह थे और स्कूल से घर आकर सब कुछ बतला चुके थे और जो नहीं बतला पा रहे थे वह भी खोद कर उनसे उगलवा लिया गया था. इस तरह सारी घटना का श्रेय हमसे छीन कर जीप चालिका को पहले ही दिया जा चुका था.
<br />
<br />इतने में किसी देसी के पिताजी जो आजकल भारत से पधारे थे, आ गये और बधाई दे डाली. हमने सुसंस्कृत भारतीय की भाँति कहा - 'सब आप बुजुर्गों का आशीर्वाद है'. हमारी विनयशीलता पर वह प्रसन्न हुए और आगे भी ऐसा होता रहे जैसा कुछ आशीर्वाद देकर चले गये. केजी गुरू थोड़ा गंभीर हुए और उदास स्वर में कहने लगे - 'भई कुछ भी हो, अच्छी गाड़ी थी'. सबने हाँ में हाँ मिलायी. केजी बोले - 'टोयोटा की बात ही अलग होती है, चलती थी तो सन-सन, पानी की तरह. लेकिन होनी के आगे किसकी चली है!'. केजी गुरू पूरे मूड में थे और सीरियस होने की नौबत आ पहुँची थी. हमने गुरू को कुहनी मार कर श्रद्धांजलि कार्यक्रम को अकाल समाप्त कराया.
<br />
<br />दूसरे दिन दफ्तर पहुँच कर फिर इंश्योरेंस कं० को फोन किया तो पता लगा कि गाड़ी की मरम्मत का खर्च वर्तमान कीमत से ज्यादा लग रही है, अतएव वह वीरगति को प्राप्त हो गयी है यानी टोटल, लेकिन बाजार भाव का आधिकारिक रूप से पता किया जा रहा है, सो तब तक धैर्य धरें. हमने खुशी को छिपाते हुए इस सत्य को स्वीकार किया. सब कुछ आशानुरूप चल रहा था. हम अखबारों में नयी गाड़ियों के इश्तिहार देखने लगे थे.
<br />
<br />लेकिन हाय री किस्मत ! दूसरे दिन फोन आया, बोले - कीमत तो गाड़ी की थोड़ी ज्यादा है. हम खुश हुए कि अब तो ज्यादा पैसे मिलेंगे. दावा-संयोजक (क्लेम ऐडजस्टर) बोले - 'अब हमें फिर से एस्टिमेट लेना पड़ेगा, यह देखने के लिये कि क्या मरम्मत खर्च अब भी ज्यादा है गाड़ी की वर्तमान कीमत से'.
<br />
<br />हमारी सारी खुशी काफूर हो गयी. अब हम क्या मुँह दिखायेंगे. ऐक्सीडेंट का श्रेय तो जीप चालिका को मिल ही गया था, किंतु इस नये घटनाक्रम का ठीकरा तो हमारे ही सर फूटेगा. अब अगर मरम्मत को गयी गाड़ी तो पुरानी ही गाड़ी हाथ लगेगी, पैसे भी नहीं मिलेंगे, लोगों के ताने और बढ़ जायेंगे और यह स्वत:सिद्ध हो जायेगा कि हमसे तो कुछ नहीं हिलेगा.गाड़ी बेचारी भी वीर सावरकर और वोटशास्त्र की भाँति अर्थशास्त्र की इस बहस में फँस गयी थी कि अब इसे शहीद करार दिया जाय या नहीं.
<br />
<br />हम बड़ी मुश्किल में हैं. फिलहाल तो लोगों के फोन नहीं उठा रहे है. यक्षप्रश्न - क्या भगवान हैं?
<br />इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8138267.post-1095380604969992532004-09-16T17:10:00.000-07:002004-09-22T11:29:40.883-07:00इस सादगी पे कौन न मर जायविश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ कि कहीं <a href="http://hindi.pnarula.com/akshargram/2004/09/15/68/">स्वागत</a> हो गया हमारा. हम हो चुकने के बाद दौडे पहुँचे, लेकिन तंबू कनातें उखड चुकीं थीं. हम भी दुम दबाये पतली गलियोन्मुख हुए कि ऐसा न हो कि बाकी बिल हमसे वसूले जायें.
<br />
<br />एक कथा याद आती है बिहार के आरा नामक पराक्रमी जिले के बाहुबली श्री लल्लन सिंह की, तो श्रम को भुलाने के लिये सुनें. वो किसी तथाकथित लफंगे से नाराज़ थे सो उसको एक दिन रास्ते में मिलने पर यों समझाये - 'भैया देखो अइसा है कि हम हर बात में तो असलहा निकालता नहीं हूँ. काहे हमरी राह में आते हैं? बतिया समझते हैं ना?'
<br />वो सज्जन समझदार तो कम थे, मगर ई बतिया पूरी समझ गये और लल्लन जी के समझाने की अदा के भी कायल हो गये.
<br />
<br />इस तरह की सादगी पर तो हम हमेशा कायल रहे हैं. खासकर बिना तलवार या असलहे का योद्धा या बिना 'ठेके' का ठेकेदार समझा रहा हो तो हथियार डालने के अलावा चारा कहाँ?
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<br />अपने मोरार जी के बारे में हमारे एक मुहल्लीय विद्वान बताते थे कि वो डा. राजारामन्ना को इसलिये चुप करा देते थे कि मोरार जी ने जब अपना बी. एस सी. खतम किया तब राजारामन्ना इस धरती पर अवतरित भी नहीं हुए थे.(बडे ससुर साइंटिस्ट बने हो, हमरे सामने अइसे ही घूमा करते थे).
<br />हम तो 'सबै भूमि गोपाल की' समझ के उतरे हैं यह जानते हुए कि भूमाफिया यहाँ पहले से धमाचौकडी मचाये हैं. अब ये तो अपने यहाँ ही होता है न कि किरायेदार भी जहाँ घुस के बैठ जाता है, वहाँ के चूहे तक बिल छोड जाते हैं पर किरायेदार की सात पुश्ते नहीं. आते ही नयी बहुरिया समझ के कम दहेज मिलने के कारण खौरियाई हुई ऐनक चढायी हुई सास की भाँति नुक्ताचीनी भी हुई दम लेने से पहले ही, दामन संभालने से पहले ही. अब कैसे समझाँय कि आदमी भात की हँडिया थोडे न होता है कि एक दाना देखा, उँगली में मसला और कर दी आकाशवाणी.अब यही तो मौज है. पर अब जब आय गये हैं हैं तो कुछ खेलेंगे कुछ खिलायेंगे, कुछ झेलेंगे कुछ झेलायेंगे, कुछ मौज तुम लेना कुछ हम लेंगे. इसमें कोई अडचन हो तो 'दुई रोटी और खा लेना'.
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<br />ये होली की भाषा वाला मामला समझने में अपना कोर डम्प हो गया. बकौल <a href="http://fursatiya.blogspot.com">फुरसतिया</a> 'एतना में छटके लगलू !' कहीं बनारस की होली की भाषा सुन लें...
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<br />हमारी माताजी अभी तक ट्रेन पकडने के समय टीका लगाते समय हमको बता देती हैं - 'देखो, खिडकी से हाथ बाहर न निकालना और जो है हर स्टेशन पर नीचे पान खाने न उतरना'. हम तो झेल जाते हैं पर हमारे एक मित्र नहीं, जिनकी दादी उनको अब भी दिशा-मैदान जाते देख लें तो उनके मुखमंडल से वात्सल्यपूर्वक छलक पडता है - 'डब्बे में पानी भर लेना पहले'. मित्र बडे दुखी स्वर में बताते हैं कि १२ वर्ष की नादान उमर में जोश (और थोडा कमजोर क्षणों में जब अपने ऊपर नियंत्रण न रहा हो) में बिना पानी लिये चले गये थे, उसकी सजा आजतक भुगत रहे हैं.
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<br />तो हम ये कह रहे हैं कि जब उतरे है बेलाग ढंग से ब्लागिंग करने तो <em>हम खिडकी से हाथ बाहर नहीं निकालते</em> और सबकी तरह <em>हमारा डब्बा भी पी सी सरकार के 'वाटर आफ इंडिया' की तरह फुल</em> है सो जानना.
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<br />पर एक बात जिस पर मुझे न्यूटन के नियमों से भी ज्यादा सत्य नज़र आता है वह यह कि ट्रिनिटी (किशोर, अमिताभ, आर डी) का कोई भी पंखा होगा वो सीरियसली ठलुआ होगा, इसी लिये चलते- चलते अपन भी मुफ्त की सलाह उछाल जाते हैं कि भैया कभी इतने गंभीर न बनना कि मनहूसियत की हदें पार कर जाना. (नहीं तो माँ अपने बेटे से कहेगी कि सोजा नहीं तो उसका ब्लाग आ जायेगा)
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<br />बाकी भूल चूक लेनी देनी
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<br />संतों के मत की प्रतीक्षा में.
<br />(लिखना जरूर, चाहे खुश हो या नाराज, खुश तो मोगाम्बो खुश, नाराज तो कौनो बात नाहीं फिर मना लेंगे. काहे सेकि हम मानते हैं कि 'दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये' - यानी जाने कब दिल मिल जाये?)
<br />इंद्र अवस्थीhttp://www.blogger.com/profile/06225450789713805254noreply@blogger.com3