बहुत दिनों से हम छिपे छिपे घूम रहे थे नज़रें बचाते हुए. यहाँ तक कि बचाने की जरूरत भी नहीं पड रही थी क्योंकि डाउट हो रहा था कि हम तो गिर ही गये हैं नजरों से. बच्चे तक बाजार भाव गिरा चुके थे. हमें कई बार जता दिया गया था कि अब हमसे कुछ नहीं होना.
हर आने जाने वाले की निगाह हमको अंदर तक भेदती लगती जैसे पूछ रही हो - इतना भी नहीं कर पाये. हमको तो इस लोक की छोडो परलोक तक में अकाउंट आडिट कैसे होगा इसकी चिंता सताने लगी थी.
महीने भर पहले जब सुना कि फलाने की गाड़ी ठुक गयी है तो कई लोग बधाई देने पहुँचे. सब पूछने लगे कि अब कौन सी खरीदनी है तो साँप सा लोट गया मन में. एक सज्जन तो इधर-उधर देखने के बाद आँख बचा के नयी गाडी और नयी बीवी की तुलना करने लगे. हम चुप बैठे रहे. हमने शोक प्रकट किया लेकिन जिनकी गाड़ी ठुकी थी उनकी खिली हुई बाँछों के आगे ऐसा लगा ज्यों हमीं ठुक गये.
खैर, भगवान हैं और जब लोगों के पापों का घड़ा तानों से भर गया तो एक जीप चालिका के रूप में १५ मील प्रति घंटे की रफ्तार से प्रकट हुए. हुआ यों कि हमारे ७ वर्षीय सुपुत्र बोले कि आज हम बस से स्कूल नहीं जायेंगे और हम बापपने में उनको ज्ञान देने में उतारू हो गये कि बस से जाना किस प्रकार एक सामाजिकता की निशानी है. बहुत दिन बाद कोई हमारी सुन रहा था ऐसा हमको लगा, इस चक्कर में हम कुछ ज्यादा ही समझा गये और फाइनली बस छूट ही गयी.
भुनभुनाते हुए हम और मुस्कुराते हुए हमारे सुपुत्र सवार हुए हमारी टोयोटा कोरोला में. स्कूल पहुँच कर पुत्र को उतारा और बाई बाई करते हुए गाड़ी बढ़ाने लगे. इतने में हमसे आगे वाले ने भी अपने बालक को उतार कर गाड़ी आगे बढ़ानी शुरू कर दी, लिहाज़ा हम रुके. हमारे वीर बालक ने अभी तक हमको बाई-बाई करना नहीं छोड़ा था सो हम भी फिर से बाई कर ही रहे थे कि अवतरण एक धड़ाम की आवाज के साथ हो गया. हमें पीछे से आदर्श तरीके से शास्त्र- सम्मत विधि से ठोंक दिया गया था.
सब कुछ उपयुक्त था. गाड़ी ९ साल पुरानी हो चुकी थी, सो समय उचित था. हमें ठोंका गया सो अवसर उपयुक्त था. ठोंकने वाली 'I am so sorry' का अखंड पाठ कर रही थी सो मामला भी चकाचक था. हम अपने को परंपरागत तरीके से चुटकी काट कर वास्तविकता कन्फर्म भी कर चुके थे, सो जो हुआ था, वह अवश्य ही हुआ था. बकौल श्रीलाल शुक्ल हमारी बाँछें भी जहाँ कहीं थीं खिल पड़ीं थीं. हमने आकाश की तरफ देखा शायद इस दुर्लभ अवसर का दर्शन करने देवगण भी पधारें हों. तभी हमारे कानों में चिंगलिश आवाज पड़ी - ' If you need any assistance, you may take my phone numer'. यानी एक चीनी महिला इस क्षण की साक्षी बनने को भी तैयार थीं.
अब अमरीका में यही होता है. कहीं कुछ हो जाय और गवाह अगर है तो वह अपना काम छोड़ कर आपको अपना कार्ड या फोन नंबर थमा जायेगा. कई बार तो मुजरिम को भी आफर दे जाते हैं जिसे नम्रतापूर्वक रिफ्यूज करने का रिवाज है क्षमाप्रार्थी बनकर. इसपर 'नेवर माइंड' का प्रसाद भी प्राप्त होता है.
खैर हमने गवाहश्री या सुश्री (चौबे जी हमेशा इसे सुसरी उच्चारित करते हैं) का नंबर लिया और धन्यवाद ज्ञापित कर बढ़े श्री १००८ जीप चालिका की ओर. उसने पहले हमारा लाख शुक्रिया अदा किया कि हम क्रुद्ध नहीं हुए उस पर. इसपर हमने भी गंभीरता का तानाबाना ओढ़ते हुए कुछ फिलासफी झाड़ी जिसका तात्पर्य घिसा पिटा था जैसे कि जब-जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है इत्यादि.फिर बीमा, लाइसेंस इत्यादि सूचनाओं का आदान प्रदान हुआ फिर हम चल पड़े घर की तरफ सीना फुलाए हुए.
गाड़ी चल-फिर सकती थी, सिर्फ पिछवाड़े का बेड़ा गर्क हुआ था. रास्ते भर हम गर्दन उचका के इधर उधर ताकते रहे कि मिले अब कोई हमें यह सब बताने को पर लानत हो इस जगह पर जहाँ पर पान की दुकानें तक नहीं होतीं, जहाँ पर हम जाकर छाती ठोंक कर कह सकते कि देखो हमने भी गाड़ी ठुकवा ली है, अब बोलो क्या कहते हो.
घर पहुँच कर हमने चाय माँगी (खुद नहीं बनायी) और हमें अपनी आवाज में गरज का भी आभास हुआ. और थोड़ी देर गंभीरता ओढ़े चुप भी बैठे रहे, पर हमेशा की तरह इस बार भी इस भावखाऊ अवस्था में हमें अकेला ही छोड़ दिया गया तो हमसे रहा नहीं गया और हम टप्प से बोल पड़े - अरे सुनती हो , आज गाड़ी का ऐक्सीडेंट हो गया.
हमें अविश्वास भरी नजरों से देख के सवाल पूछा गया - तुमने किया या किसी और ने.
हमने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा - हमारे होते हुए मजाल है जो और कोई ठुकवा ले.
इस पर हमें 'चल झूठे' जैसी नजरों से देख के फिर पत्नी ने पूछा - सच?जिसपर हम किसी फिल्म से सीखे संवाद तुरंत बोल दिये - मुच!
फिर हमने सारी कहानी सुनायी और पाया कि बीच-बीच में गैर-जरूरी ढंग से हमारे मुँह से कई बार 'खी-खी' 'ही-ही' जैसी निरर्थक ध्वनियाँ भी उत्सर्जित हुई।
हमारा भाव अचानक बढ़ गया था. चाय के साथ पराठे और गुलाब-जामुन भी मिले. हमने भी मौका पाकर कहा कि भई पराठे तो हम गरम ही खाते हैं और लो भैया गरम पराठे भी हाजिर.
अभी सुबह के ९:१५ ही हुए थे. हालांकि दफ्तर को देर हो रही थी, मगर हमसे बिना बाहर निकले रहा न गया शायद कोई शिकार मिल जाये जिसे हम ये जो कथा है पुरुषार्थ की उसे सुना सकें. जैसे ही निकले हमारे देसी पड़ोसी बाहर गराज की तरफ आते हुए दिखायी पड़े. उनकी गाड़ी बाहर ही खड़ी थी. वह हमें बिना देखे ही गाड़ी में घुसे जा रहे थे कि हमने लगभग दौड़ते हुए उनको टोका - 'क्यों भाई, आज देर हो गयी क्या?'
वो जल्दबाजी में बोले - 'हाँ' , फिर पूछा - छुट्टी ले रखी है आज?
इसी मौके के इंतजार में हम थे. हमने जब तक भूमिका बनानी शुरू की -'नहीं भाई हमें भी देर हो रही थी लेकिन क्या करें...' लेकिन वो तबतक कार के शीशे चढ़ाने लगे थे. हमने जल्दी में बताने की कोशिश की लेकिन तबतक वो बाई करके निकल गये.
हम बड़े अनमने ढंग से लौटे, तैयार हुए दफ्तर जाने को. वहाँ से अपनी इंश्योरेंस कम्पनी को फोन किया, सारे विवरण लेते समय कम्पनी ने बड़ी चिंतातुर आवाज में यह भी पूछा कि हम ठीक तो हैं जिसके उत्तर से सिर्फ इतना तात्पर्य होता है कि इलाज में तो पैसे नहीं खर्चने पड़ेंगे.
फिर दफ्तर में सबको देर से आने का कारण बताया. वहाँ कइयों ने दुख प्रकट किया, तो कई आँख मारते हुए बोले - 'सही है'. लेकिन गोरों के साथ वो मजा कहाँ. यहाँ तो लोग बड़े निर्लिप्त भाव से दुख प्रकट करते है, या धन्यवाद करते हैं. अगले ही पल गियर बदल कर दूसरी बात करने लगते हैं. ठुकी हो किसी कि कार तो इनकी बला से. न वो मन ही मन खुजली न वो आँखों में ईर्ष्या. कुछ मजा न आया. किसी देसी को रस लेकर बताओ तो पहले हाथ मलते हुए वह सुनेगा, फिर ईर्ष्या को छिपाते हुए बधाई देगा, फिर घंटे-दो घंटे टहल-वहल कर आयेगा और घुमा-फिरा कर इधर उधर की बातें करने के बाद टोह लेने की कोशिश करेगा कि सचमुच ऐसा कुछ हुआ था और हम इन सब हरकतों को देखते हुए अनदेखा करते हुए मन ही मन एक सुख भोगते रहेंगे. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. शाम को भारी मन से घर लौटे.
पर हमने लगता है अपनी पत्नी की कुशलता पर कुछ कम ही भरोसा किया था. यह समाचार दूर-दूर तक के देसियों में विविध भारती से भी ज्यादा तेजी से फैल चुका था और जब तक हम घर पहुँचे तब तक भारी भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी. देसी भाँति भाँति के कपड़ों में. ऐसे-ऐसे लोग दिखे जो पिछली दो-चार होलियों-दीवालियों में भी नहीं दिखे थे. जैसे ही हम घुसे शोर सा मचा - 'आ गये, आ गये'. हमारे अभिन्न मित्र केजी गुरू ने हमें गले लगा लिया. हमें कई ऐंगल से देखा जा रहा था, निहारा जा रहा था, घूरा जा रहा था.
अचानक किसी ने पूछा - 'चोट तो नहीं आयी?'. वाकई सुबह से किसी का ध्यान ही इस पर नहीं गया था. हमने फिर से भाव खाने की कोशिश की और पत्नी की तरफ ऐंठते हुए देखा. कई लोगों की साँसें थम गयीं. हम ऐंग्री यंग मैन के इस अवतार में अपने को सफल ही समझ रहे थे कि तुरंत उस पर पानी फेर दिया गया हमारी धर्मपत्नी द्वारा - 'अब जब सुबह से अभी तक कुछ नहीं हुआ तो ठीक ही होंगे.' इस दाँव के बाद हम फिर से नार्मल यानी बैकग्राउंड में हो गये थे और पत्नी सबको बता रही थी कि कैसे क्या हुआ था. हम चकित कि इतने विवरण कैसे पता, ये तो हम भी बताना भूल गये थे. पता चला हमारे सुपुत्र जो घटना के समय बाई-बाई कर रहे थे, सारी घटना के चश्मदीद गवाह थे और स्कूल से घर आकर सब कुछ बतला चुके थे और जो नहीं बतला पा रहे थे वह भी खोद कर उनसे उगलवा लिया गया था. इस तरह सारी घटना का श्रेय हमसे छीन कर जीप चालिका को पहले ही दिया जा चुका था.
इतने में किसी देसी के पिताजी जो आजकल भारत से पधारे थे, आ गये और बधाई दे डाली. हमने सुसंस्कृत भारतीय की भाँति कहा - 'सब आप बुजुर्गों का आशीर्वाद है'. हमारी विनयशीलता पर वह प्रसन्न हुए और आगे भी ऐसा होता रहे जैसा कुछ आशीर्वाद देकर चले गये. केजी गुरू थोड़ा गंभीर हुए और उदास स्वर में कहने लगे - 'भई कुछ भी हो, अच्छी गाड़ी थी'. सबने हाँ में हाँ मिलायी. केजी बोले - 'टोयोटा की बात ही अलग होती है, चलती थी तो सन-सन, पानी की तरह. लेकिन होनी के आगे किसकी चली है!'. केजी गुरू पूरे मूड में थे और सीरियस होने की नौबत आ पहुँची थी. हमने गुरू को कुहनी मार कर श्रद्धांजलि कार्यक्रम को अकाल समाप्त कराया.
दूसरे दिन दफ्तर पहुँच कर फिर इंश्योरेंस कं० को फोन किया तो पता लगा कि गाड़ी की मरम्मत का खर्च वर्तमान कीमत से ज्यादा लग रही है, अतएव वह वीरगति को प्राप्त हो गयी है यानी टोटल, लेकिन बाजार भाव का आधिकारिक रूप से पता किया जा रहा है, सो तब तक धैर्य धरें. हमने खुशी को छिपाते हुए इस सत्य को स्वीकार किया. सब कुछ आशानुरूप चल रहा था. हम अखबारों में नयी गाड़ियों के इश्तिहार देखने लगे थे.
लेकिन हाय री किस्मत ! दूसरे दिन फोन आया, बोले - कीमत तो गाड़ी की थोड़ी ज्यादा है. हम खुश हुए कि अब तो ज्यादा पैसे मिलेंगे. दावा-संयोजक (क्लेम ऐडजस्टर) बोले - 'अब हमें फिर से एस्टिमेट लेना पड़ेगा, यह देखने के लिये कि क्या मरम्मत खर्च अब भी ज्यादा है गाड़ी की वर्तमान कीमत से'.
हमारी सारी खुशी काफूर हो गयी. अब हम क्या मुँह दिखायेंगे. ऐक्सीडेंट का श्रेय तो जीप चालिका को मिल ही गया था, किंतु इस नये घटनाक्रम का ठीकरा तो हमारे ही सर फूटेगा. अब अगर मरम्मत को गयी गाड़ी तो पुरानी ही गाड़ी हाथ लगेगी, पैसे भी नहीं मिलेंगे, लोगों के ताने और बढ़ जायेंगे और यह स्वत:सिद्ध हो जायेगा कि हमसे तो कुछ नहीं हिलेगा.गाड़ी बेचारी भी वीर सावरकर और वोटशास्त्र की भाँति अर्थशास्त्र की इस बहस में फँस गयी थी कि अब इसे शहीद करार दिया जाय या नहीं.
हम बड़ी मुश्किल में हैं. फिलहाल तो लोगों के फोन नहीं उठा रहे है. यक्षप्रश्न - क्या भगवान हैं?
7 comments:
इस पर मतभेद हो सकता है कि भगवान है या नहीं पर यह साबित हो गया कि भगवान के यहां देर है अंधेर नहीं.जैसे तुम्हारे दिन बहुरे वैसे सबके बहुरें.जैसे तुम्हारी ठुकी वैसे सबकी ठुके.तुम्हारी नौ साल में ठुकी सबकी नौ महीने में ठुके(कार,बीमा वालों की संजीवनी)
अब कोई हम गोरे तो हैं नहीं कि कोरी बधाई दे के काम से लगे.
चाची का किस्सा न सुनाया तो तुम और वो बुरा मान सकते हो.तो हुआ ये कि सारे इधर-उधर के पैसे बीन-बटोर के चाची ने अपने लिये सोने के कडे बनवाये.दिन भरहो गया किसी ने देखा तक नहीं.चाची दुखी.मुंह में कौर न गया.रात में चाची के घर में आग लग गयी.पूरा गांव बुझाने में जुट गया.चाची हाथ से इधर बुझाओ-उधर बुझाओ के फुर्तीले इशारे कर रहीं थीं.अचानक एक की निगाह आग से छिटककर चाची के हाथ पर चली गयी.वह चिंहुक के बोली ---अरे चाची , ई कडा(कंगन) कब लाई?बडे बढिया हैं.चाची बोलीं-----बिटिया पहिले पूंछ लेती तो छप्पर तो न फूंकना पडता.
तुम्हें भी लोग पहले भाव देते तो गाडी तो न ठुकती.पर होनी को कुछ और ही मंजूर था तो कोई क्या कर सकता है?
ठीकरा किससे सर फूटा? दावा संयोजक क्या बोले?गाङी शहीद हुयी कि बच गयी?
नौ साल भये, अब तो नई वाली भी ठुक चुकी होगी :)
दोस्त होय तो संजय अनेजा जैसे, नहीं तो बेकार :-)
JAI HO THALUA NARESH KI
PRANAM
जय हो!!! बहुत सटीक लेखन | लाजवाब
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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Dhanyavaad Sanjay Jha ji!
Tushar - Thanks. Will definitely visit your blog.
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