विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ कि कहीं स्वागत हो गया हमारा. हम हो चुकने के बाद दौडे पहुँचे, लेकिन तंबू कनातें उखड चुकीं थीं. हम भी दुम दबाये पतली गलियोन्मुख हुए कि ऐसा न हो कि बाकी बिल हमसे वसूले जायें.
एक कथा याद आती है बिहार के आरा नामक पराक्रमी जिले के बाहुबली श्री लल्लन सिंह की, तो श्रम को भुलाने के लिये सुनें. वो किसी तथाकथित लफंगे से नाराज़ थे सो उसको एक दिन रास्ते में मिलने पर यों समझाये - 'भैया देखो अइसा है कि हम हर बात में तो असलहा निकालता नहीं हूँ. काहे हमरी राह में आते हैं? बतिया समझते हैं ना?'
वो सज्जन समझदार तो कम थे, मगर ई बतिया पूरी समझ गये और लल्लन जी के समझाने की अदा के भी कायल हो गये.
इस तरह की सादगी पर तो हम हमेशा कायल रहे हैं. खासकर बिना तलवार या असलहे का योद्धा या बिना 'ठेके' का ठेकेदार समझा रहा हो तो हथियार डालने के अलावा चारा कहाँ?
अपने मोरार जी के बारे में हमारे एक मुहल्लीय विद्वान बताते थे कि वो डा. राजारामन्ना को इसलिये चुप करा देते थे कि मोरार जी ने जब अपना बी. एस सी. खतम किया तब राजारामन्ना इस धरती पर अवतरित भी नहीं हुए थे.(बडे ससुर साइंटिस्ट बने हो, हमरे सामने अइसे ही घूमा करते थे).
हम तो 'सबै भूमि गोपाल की' समझ के उतरे हैं यह जानते हुए कि भूमाफिया यहाँ पहले से धमाचौकडी मचाये हैं. अब ये तो अपने यहाँ ही होता है न कि किरायेदार भी जहाँ घुस के बैठ जाता है, वहाँ के चूहे तक बिल छोड जाते हैं पर किरायेदार की सात पुश्ते नहीं. आते ही नयी बहुरिया समझ के कम दहेज मिलने के कारण खौरियाई हुई ऐनक चढायी हुई सास की भाँति नुक्ताचीनी भी हुई दम लेने से पहले ही, दामन संभालने से पहले ही. अब कैसे समझाँय कि आदमी भात की हँडिया थोडे न होता है कि एक दाना देखा, उँगली में मसला और कर दी आकाशवाणी.अब यही तो मौज है. पर अब जब आय गये हैं हैं तो कुछ खेलेंगे कुछ खिलायेंगे, कुछ झेलेंगे कुछ झेलायेंगे, कुछ मौज तुम लेना कुछ हम लेंगे. इसमें कोई अडचन हो तो 'दुई रोटी और खा लेना'.
ये होली की भाषा वाला मामला समझने में अपना कोर डम्प हो गया. बकौल फुरसतिया 'एतना में छटके लगलू !' कहीं बनारस की होली की भाषा सुन लें...
हमारी माताजी अभी तक ट्रेन पकडने के समय टीका लगाते समय हमको बता देती हैं - 'देखो, खिडकी से हाथ बाहर न निकालना और जो है हर स्टेशन पर नीचे पान खाने न उतरना'. हम तो झेल जाते हैं पर हमारे एक मित्र नहीं, जिनकी दादी उनको अब भी दिशा-मैदान जाते देख लें तो उनके मुखमंडल से वात्सल्यपूर्वक छलक पडता है - 'डब्बे में पानी भर लेना पहले'. मित्र बडे दुखी स्वर में बताते हैं कि १२ वर्ष की नादान उमर में जोश (और थोडा कमजोर क्षणों में जब अपने ऊपर नियंत्रण न रहा हो) में बिना पानी लिये चले गये थे, उसकी सजा आजतक भुगत रहे हैं.
तो हम ये कह रहे हैं कि जब उतरे है बेलाग ढंग से ब्लागिंग करने तो हम खिडकी से हाथ बाहर नहीं निकालते और सबकी तरह हमारा डब्बा भी पी सी सरकार के 'वाटर आफ इंडिया' की तरह फुल है सो जानना.
पर एक बात जिस पर मुझे न्यूटन के नियमों से भी ज्यादा सत्य नज़र आता है वह यह कि ट्रिनिटी (किशोर, अमिताभ, आर डी) का कोई भी पंखा होगा वो सीरियसली ठलुआ होगा, इसी लिये चलते- चलते अपन भी मुफ्त की सलाह उछाल जाते हैं कि भैया कभी इतने गंभीर न बनना कि मनहूसियत की हदें पार कर जाना. (नहीं तो माँ अपने बेटे से कहेगी कि सोजा नहीं तो उसका ब्लाग आ जायेगा)
बाकी भूल चूक लेनी देनी
संतों के मत की प्रतीक्षा में.
(लिखना जरूर, चाहे खुश हो या नाराज, खुश तो मोगाम्बो खुश, नाराज तो कौनो बात नाहीं फिर मना लेंगे. काहे सेकि हम मानते हैं कि 'दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये' - यानी जाने कब दिल मिल जाये?)
3 comments:
हमारा तो हंसते हुये हाजमा दुरुस्त हो गया.पर यह कैसी सावधानी कि तुम कामर्शियल ब्रेक के बाद टापिकै बदल दिये?चूंकि सलाहें उछल रहीं हैं तो हम भी देते हैं सलाह:-ये अपना चिट्ठा लाफिंग क्लब के बुजुर्गों को पढा दिया करो.जो बिचारे कांख-कूंख के हंसते है वो खुलके हंसने लगेगें.
प्रियवर,
यानी कि,लल्लन ने बिना धनुष पर कमान कसे सिर्फ अकेले तीर को ही चला कर ,शिकार कर ङाला। राज्यवर्द्धन सिंह राठौर जैसे अन्य उदीयमान निशानेबाज इससे कुछ तो सीखें।
बहुत सही बरखुरदार, लगता है खूब निभेगी.
अब तनिक हमरे चिट्ठे भी देख लिये जाये.
http://merapanna.blogspot.com
जीतेन्द्र चौधरी
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