Thursday, October 21, 2004

वीरगति का अर्थशास्त्र - परदेस में - २

....गत भाग से आगे..

खैर फोन तो अपने ऊपर था, नहीं उठाया. लेकिन कुछ लोग ऐसे कलाकार होते हैं कि फिर टेक्नालाजी पर उतर आते हैं और दोस्ती का फायदा उठाकर ईमेल में सीधे पूछ डालते हैं कि क्या हुआ. वैसे तो 'जेन मित्र दुख होंहि दुखारी' का जाप करेंगे और फिर दोस्तों से पत्थर खाने के किसी किस्से पर सेंटी हो जायेंगे. मन तो ऐसे ही खराब है, लेकिन इससे क्या फरक पड़ना है ऐसे लोगों को.

हमारे मित्र हरजिन्दर ने हमको पट्टी पढ़ायी और कहा कि बात करो इंश्योरेंस कंपनी से और बताओ कि गाड़ी बनवा भी दोगे फिर भी उसकी कीमत पुरानी नहीं मिलेगी. ऐक्सीडेंट का ठप्पा तो लग ही गया है. लागा चुनरी में दाग! खरीदने वाला पहले ही बिदक जायेगा. बात करो और गाड़ी की डिमिनिश्ड वैल्यू का अंतर माँगो.

इस प्रकार सीख-पढ़कर हम दावा संयोजक (क्लेम ऐडजस्टर) से फिर बतियाये और बोले - क्यों भाई, बनवा तो दोगे, हम तैयार भी हैं, लेकिन गाड़ी की जो कीमत कम होगी उसका क्या?दावा संयोजक थोड़ी देर चुप हो गये, जिसका अर्थ हमने यह लगाया कि हमारी चतुराई के आगे इनकी बोलती बंद हो गयी है. (हमसे टक्कर!) फिर वह अपनी ईमानदारी की दुहाई देते हुए बोले ('टू बी आनेस्ट') कि हम चाहें तो यह क्लेम भी फाइल कर सकते हैं लेकिन कुछ होगा नहीं, काहेसेकि हमारी गाड़ी पुरानी है.

हमने थोड़ा भुनभुनाने की कोशिश की. यह उस तरह के ग्राहक के लक्षण हैं जिसके पास और कोई चारा न बचा हो. इस दशा में इस कोशिश का मतलब सिर्फ यह जताना था कि देखो हमारे पास शब्द तो ज्यादा नहीं हैं और तुम जो कर रहे हो वह कितना भी ठीक हो लेकिन इतना बताय देते हैं जिसको तुम भी सुन लो कि हम इस नये घटनाक्रम से बहुत खुश नहीं हैं.

इस प्रकार हमने कस्टमर- धर्म को इस घड़ी में निबाहा. उसने थोड़ी देर तो हमारा मान रखा लेकिन वह भी पुराना खुर्राट था. उसने कहा - आपके पास सिर्फ एक विकल्प और बचता है वह यह कि हमसे मरम्मत खर्च ले लें नकद और गाड़ी ले जायें जस की तस. फिर जो करना है करें. किसी कबाड़ी को भी बेंची जा सकती है जो शायद हजार-पाँच सौ दे दे.

चूँकि इंश्योरेंस वाला था सो जाहिर था वह कबाड़ियों में उसी प्रकार लोकप्रिय था जिस प्रकार ठेकेदारों-सप्लायरों के बीच किसी मलाईदार सरकारी विभाग का खरीद अधिकारी. सो उसने एक नम्बर भी दिया. फोन किया हमने वहाँ पर. निक से बात हुई, बोले हम गाड़ी देख कर आते हैं फिर बतायेंगे. एक घंटे में उसने वापस फोन किया और बताया कि ८०० तक दिये जा सकते हैं हमारी शान की भूतपूर्व सवारी को. हमने हिसाब लगाया कि मरम्मत खर्च और कबाड़ मिला कर हाथ में कुल ४८०० मिलेंगे. कहाँ ७००० और कहाँ ४८००. सारा फील-गुड फैक्टर धराशायी हो गया.

हमारे सामने कोई रास्ता नहीं बचा, झख मारकर हम गठबंधन की किसी संतुष्ट पार्टी के असंतुष्ट विधायक-सांसद की तरह ( 'जो मिल रहा है उसे दाब लो नहीं तो उससे भी हाथ धो बैठोगे' जैसी भावना के वशीभूत होकर) तैयार हो गये जनहित में पुरानी गाड़ी को ही बनवाने को.

हम इंश्योरेंस वाले की विजयी मुसकान फोन पर ही सुन रहे थे. चूँकि एक आदर्श अमरीकी उपभोक्ता के सारे दाँव हम खेल चुके थे और सामने वाला भी सारी जवाबी चालें चल चुका था और हम दोनों एक दूसरे से थोड़ा-थोड़ा ऊब चुके थे, इसलिये अब एक दूसरे को बाई-बाई किया गया.

अब लौट के आते हैं इन सब तमाशों के चश्मदीद गवाह पर जो हर पुलिसिया पूछताछ के समय घटनास्थल पर नहीं पाया जाता है यानी अपने भगवान जी पर. इतने सारे व्रत-उपवास, मंदिर विजिट, प्रसाद चढ़ावा और यह फल मिला भक्त को. हो कि नहीं हो? (अगर अपना भारतीय ठुल्ला एक डण्डा दिखाकर यही पूछ ले तो शायद भगवान भी 'नहीं' कह दें). नहीं होगे तो हमें दोषारोपण के लिये फिरी फण्ड का और कौन मिलेगा. अभी तो सहारा है - भगवान का, पिछले जनमों के कर्मों का. लोग परीक्षाओं में नकल करते हुए पकड़े जाते हैं और ऊँट की भाँति गर्दन ऊपर उठाकर कह देते हैं कि किस बात की सजा दे रहे हो. घर में दो लड़कियाँ पैदा होते ही लोग पिछले जनम के कर्मों का खाता खोल के किसी पाप अकाउंट मे डाल देते हैं.

हमने केजी गुरू के सामने दो-चार इस तरह के डायलाग बोले. केजी गुरू ने हमारे कंधे पर हाथ रखकर पुराना डायलाग रिपीट किया जो गाड़ी के ठुकने के तुरंत बाद मारा था - होनी को कौन टाल सका है. हमारा तो मन किया कि भगवान को सामने रख के डीवीडी पर 'दीवार' फिल्म चला दें. क्योंकि हमारे डायलाग तो बेअसर हो चुके थे. अब जब अमिताभ कहेंगे - 'आज तो तुम बहुत खुश होगे' तब सबसे ऊँची आवाज में ताली हमारी बजेगी. फिर सोचा इस ज़माने में इन सब दोषारोपणों से काम तो नहीं चलेगा. आजकल के ज़माने में हम किसी को 'दागी' कहेंगे तो उल्टा हमारे ऊपर ही आरोप आ जायेगा कि क्यों तुमने भी तो नौकरी लगने से पहले जो १२५ रुपये के प्रसाद का वादा किया था उसे पचास में ही निपटा गये.

फिर हमें कालेज का ज़माना याद आया कि हम भगवान को किस भाव से (और कब) याद करते थे. सूरदास सखा भाव से देखते थे तो मीरा प्रियतमा के रूप में और तुलसी बाबू तो दास ही बन गये. हम तो जब भी दूसरे दिन कोई कठिन पर्चा होता था, एक ब्लैकमेलर की भाँति देखते थे और इसके लिये ज्यादा दूर नहीं अपने जलोटा साब को याद करके गाते थे -
कभी-कभी भगवान को भी भक्तों से काम पड़े (हाँ, समझ लेना)
जाना था गंगा पार, प्रभू केवट की नाव चढ़े (अब समझ में आया मामला कि ठीक से समझायें. ये डायलाग हमने चौबे जी से चुराया है, वो शुरू तो इसी वाक्य से करते हैं पर अंत में जो स्पेशल इफेक्ट डालते हैं वह जानमारू होता है और इलाहाबादी भाषा में तोड़ू होता है जब वह दूसरे को हड़काते हुए स्वयं को तमाम विशेषणों से संबोधित करते हैं जैसे कि 'हम बहुत कमीना इंसान हूँ' या पशु प्रेम में 'हम बहुत कुत्ती चीज हूँ'. यदा-कदा ब्रह्मास्त्र के रूप में इन विशेषणों में माताओं- बहनों के प्रति अनसेंसर्ड प्रेम भी झलकता है. जानकार बताते हैं कि उनका ये वार कभी खाली नहीं गया. सामने वाला बिना गाली खाये ही समझ लेता है समझने वाली बात.)

और हम देखते हैं कि इस कलिकाल में इससे बढ़कर कोई दवा नहीं है. किसी का काम अपने पास फँसा हो तो अपने सौ काम निकलवा लो, बंदा ही-ही करते हुए , दाँत निपोरते हुए करता जायेगा अपना काम निकने तक. (काम निकल जाने पर रोल की अदला-बदली शास्त्रसम्मत है.) इसका प्रूफ भी साक्षात् है, सारे सब्जेक्ट बिना लाली के निकाल ले गये.

फिलहाल गाड़ी जिसे हम प्रतिष्ठापूर्वक फोर्सफुली वीरगतिप्राप्त करार देने पर तुल गये थे अब पीठ पर घाव खाये हुए श्रीहीन योद्धा की भाँति इस हफ्ते घर वापस आ रही है. हमको चिंता हो रही है, हमारे पड़ोसी जो हमेशा ज़ल्दी में ही रहते हैं इस बीच एक दिन दूर से ही हमें आते देख कर खड़े हो गये लेकिन हम भी अब थोड़ा चतुर हो गये हैं सो दाँव देकर निकल गये.पर अब तो हमको भी लगने लगा है कि हमसे कुछ नहीं हो सकता.यहाँ ब्लागजगत में बड़े-बड़े सूरमा हैं जिनकी गाड़ियाँ इज्जत से शहीद हुईं, कुछ फंडे हमें भी बताओ यार!

5 comments:

अनूप शुक्ल said...

जेहि पर जाकर सत्य सनेहू,
मिलहि सो तेहि नहिं कछु संदेहू.

ऊपर वाला शायद गलतफहमीं में आ गया.तुम्हारा गाङी के प्रति प्रेम देख कर उसने
गाङी वापस करवाने का हिसाब-किताब कर दिया.आगे गलतफहमी दूर होने पर शायद तुम्हारी दूसरी इक्षायें भी पूरी करे.

उसके यहां "देर है अंधेर नहीं है" का साइन बोर्ड अभी भी चमक रहा है.बाकी 75 रुपये का प्रसाद भी केजी को खिला के उधार-मुक्ति प्राप्त करो.भगवान तुम्हे इस झटके को झेलने की शक्ति दे और नये प्रसाद के वायदे के साथ तुम्हारा दुख दूर करे.

सूरमा लोग सलाह देने में देर न करें.

Atul Arora said...

सलाह बड़ी अटपटी है भईये| हमारी गाड़ी तो ईतनी पुरानी थी कि मरम्मत और गाड़ी की कीमत में कन्याकुमारी से श्रीलंका जितना फासला था| पीजी भाई ने यह फार्मूला बताया था जो अमरीकी कलुए अपनाते हैं| दो लोगो की जरुरत पड़ेगी| पहला अपनी गाड़ी लेकर आपके आगे फ्रीवे पर चलेगा| आप उसके पीछे| दूसरा आपदोनों से बगल वाली लेन में| जब आपके पीछे कौन्हो ठंग की गाड़ी (जिससे ठूंकने में शारीरिक नुकसान की संभावना न हो) आये तो आगे वाला दन्न से ब्रेक मार दे| इतना ध्यान रखिए कि आप की गाड़ी आगे वाली को न ठोंके| पीछे की गाड़ी आपको जरूर ठोंक देगी, आप रूक जाईये और आगे वाला फूट ले पतली गली से| दूसरा मित्र गवाही के काम आयेगा , पर उसे महानौटंकीबाज होना चाहिए ताकि व आपको पहचाने बिल्कुल नहीं पुलिसवाले के सामने पर पीछे वाले पर सारी तोहमत डाल दे कि वह बिना सेफ डिस्टेंस के चला रहा था| पुलिसवाले के पास पीछे वाले और आपके आगे वाले की गलती मानने के अलावा कोई चारा नहीं होगा| पर आगे वाला तो पहले ही फूट चुका है पतली गली से, तो अब ईशंयोरेंस वाले भी पुलिसरिपोर्ट पर आँख बंद कर भरोसा करेंगे और आपको मालामाल कर देंगे| आपने सलाह माँगी तो दे दी वरना ईरादा तो यह किस्सा अपनी किताब में डालने का था|

Jitendra Chaudhary said...

लगभग यही नुस्खा मेरा भी है,
बस ध्यान ये रखना कि पीछे वाली गाड़ी मे कोई लेडी ड्राइवर हो,
ड्राइवर स्पाट करने मे यह ध्यान जरूर रखना कि कोई कलवा या कलवी ना हो,
नही तो पुलिसिया(अक्सर) भी कलुवा और ड्राइवर भी कलुवा, सब कुछ स्पेनिश मे हो सैटिल हो जायेगा,और आप टीपटे रह जायेंगे.

Jitendra Chaudhary said...

अरे भइया,
कैरी के हारने के गम मे लिखना काहे बन्द कर दिये हो?
गाड़ी का कुछ बना?

इंद्र अवस्थी said...

भैये, गाड़ी तो वही लौट कर आय गयी डाल वाले बेताल की तरह. फिर भी आइडिया के लिये जितेन्दर का, धांसू स्कीम के लिये अतुल का और शुभकामनाओं के लिये अनूप महराज का धन्यवाद.
और दीपावली तो सबको बहुत-बहुत मुबारक हो-
सबके लिये नव-वर्ष समृद्धि लाये!
(सबकी लाटरी लगे, सबके शेयर ऊपर जायें और सबके गाँव की जमीन या खेत में से गड़ा धन मिले ऐसी कामना के साथ)