शुकुल को समर्पित -
बिन छन्द, बिन ताल, कुछ चिल्लर चिन्तन
:-१८ अप्रैल २००६ को प्रस्फुटित
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किसी के उकसाने पर ब्लागियाने की ज़रूरत क्या थी
काम अपना छोड़ के टिपियाने की ज़रूरत क्या थी
माना हमारे साथ बनती नहीं तुम्हारी
पर किसी और के संग खिलखिलाने की ज़रूरत क्या थी
अब जैसा भी है हमने यहाँ पे लिख दिया
पर इसपे भी ताली बजाने की ज़रूरत क्या थी
माना कि दुनियावी भीड़ में हम भी हैं यूँ खड़े
पर हमको भीड़ में है कोई जताने की ज़रूरत क्या थी
यूँ दिखते हो बेखबर और हमसे अलग अलग
पर राह देखने को खिड़की पे जाने की ज़रूरत क्या थी
बाहर हो बंद बोलती और फूक सरकती
तो घर में झूठी शान दिखाने की ज़रूरत क्या थी
भागते भूत की लंगोटी भली सुना
पर अदृश्य भूत को लंगोटी लगाने की ज़रूरत क्या थी
रिक्शेवाले की अठन्नी मार के हो खुश
पर मंदिर में रुपैया चढ़ाने की ज़रूरत क्या थी
कहते हो जाओगे वापस वतन इक दिन
फिर ग्रीन कार्ड बनवाने की ज़रूरत क्या थी
पेट्रोल के दामों को तुम रोते रहोगे यूँ
फिर दहेज में गाड़ी लाने की ज़रूरत क्या थी
खुद तो रहे कुलच्छनी निकम्मे जहान के
सुंदर सुशील का इश्तिहार छपाने की ज़रूरत क्या थी
भ्रष्ट नेताओं पे आक्रोश है बहुत
तो घूस दे के काम निकलवाने की ज़रूरत क्या थी
जब ब्लाग में पड़े हैं सब सूरमा बड़े
ऐसे में ठलुअई दिखलाने की ज़रूरत क्या थी?
9 comments:
बहुत खूब...
बहुते जरुरत है जी, अब जरा ठेलुहई छोड़ के नियमित बैटिंग करिए तो वाकई कुछ मजा आए...
रिक्शेवाले की अठन्नी मार के हो खुश
पर मंदिर में रुपैया चढ़ाने की ज़रूरत क्या थी
पेट्रोल के दामों को तुम रोते रहोगे यूँ
फिर दहेज में गाड़ी लाने की ज़रूरत क्या थी
...बहुत अच्छा लिखा है. अब जरा नियमित पढ़वाते रहिये।
आज जब ब्लॉग गण को करते हैं याद,
तो इस तरह दूर जाने की ज़रुरत क्या थी.
चिंतन ही तो इंसान का ब्रह्मास्त्र है
इसको चिल्लर बताने कि ज़रुरत क्या थी.
उकसाने वाले तो अपना काम करते हैं
पर चने के झाड़ पर चढ़ जाने की ज़रुरत क्या थी.
भूत है अदृश्य पर लंगोटी तो दिखती है
अब इसपर उंगली उठाने की ज़रुरत क्या थी.
रिक्शेवाले की अठन्नी भी मंदिर में चढ़ गयी
फिर रुपैये पे चिढ़ जाने की ज़रुरत क्या थी.
वतन की राह पर ग्रीन कार्ड से क्या काम
तो बेचारे पर मुरझाने की ज़रुरत क्या थी.
सुन्दर-सुशील का इश्तेहार कराया तो क्या हुआ
आखिर खुद को गरियाने की ज़रुरत क्या थी.
घूस दे के ही सही काम तो निकला
इसपे नेताओ को बीच में लाने की ज़रुरत क्या थी.
ठेलुवा भी होते हैं सच्चे महारथी
ये जानकर सूरमाओं से घबराने की ज़रुरत क्या थी.
जब जान ही गए हैं कि आशीर्वाद देना है
तो इतनी देर लगाने कि ज़रुरत क्या थी.
छंद लिखने की कोशिश में थोड़ा स्वच्छंद हो गया......इसके लिए "सूरमाओं" से क्षमा मांगता हूँ.
ज़रुरत हर चीज़ की ज़माने में है,
कभी तैरने में , डूब जाने में है.
खुद ही किया हर काम तो बेकार है जनाब,
असली मज़ा तो गैर को उकसाने में है.
नहीं मिले जब आप तो औरों संग हँस लिए,
ज़िन्दगी का फलसफा तो खिलखिलाने में है.
ऐसे नहीं मिलती किसी को तालियाँ यहाँ
कुछ बात आपके यूँही लिख जाने में है.
इस भीड़ में हरएक शक्स अपनी किसम का है,
खूबी तो उसकी खुद को ढूँढ पाने में है.
खबरदार भी हो जायेंगे ,तुमसे जुदा नहीं
देर बस हमको झंरोखे तक आने में है .
जब भूत गया भाग तो लंगोट खुल गया,
कुछ भेद तो ज़रूर लंगोट के खुल जाने में है.
किराए के ऊपर से जब अठन्नी "चार्ज" की,
हिम्मत हमारी आठ आना बचाने में है.
मंदिर भी गए शान से, पूजा भी खूब की,
अपना भी योगदान उस खजाने में है.
वतन से दूर रह रहे विदेश में कहीं?
चातुर्य ग्रीन कार्ड को हथियाने में है.
होंगे बहुत से सूरमा ब्लॉग्गिंग की रह में,
ठेलुओं सी कहाँ बात उन तरानो में है.
फांसा कहीं फच्चर किसी की मौज भी ले ली,
ठलुओं की शान ठांस के रह जाने में है.
waah waah, kamaal ki baat ki hai awasthi bhai ! aapke blog (aur aapki theluwayi) ke mureed kafi dino se ham bhi rahe hai .. to aise hi blogiyaate rahiye ..
बडे मिया तो बडे मिया,छोटे मिया सुबहान अल्ला।
पोष्ट तो पोष्ट, टिप्पडियो का ज़माल अल्लाह्॥
खुश हुआ पढ कर
धन्यवाद
bahut pahale bijanor se ''thalua'' namak patrika nikalati thee. mujhe laga, uska blo ban gaya hai.lekin yahaa aa kar aanand aaya. yah thaluapan jaree rahe. badhai....
चिंतन तो यह भी धाँसू है ...
शुभकामनायें !
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