तो कम्युनिस्ट एक प्रजाति है जो भारत के पूर्वी भाग में बंगाल और दक्षिण में केरल के तट पर पायी जाती है. इस प्रकार के जीव में कई तरह के मुंह, एक नाक और दूसरे के दिमाग से चलने वाला दिमाग, बेतरतीब दाढ़ी और कंधे पर झोला पाया जाता है. कभी - कभी बिना दाढ़ी वाली एक उपजाति भी दृष्टिगोचर होती है, परंतु दाढ़ी वाला प्रकार श्रेष्ठ माना गया है. इनका आकार-प्रकार मनुष्यों से मिलता जुलता है और सावधानी न बरतने पर पहचान का धोखा हो सकता है.
हर चलने वाली चीज की गति से यह उसी प्रकार चिढ़ता है ज्यों मेरी भूतपूर्व गली में रहने वाला श्वान चलती हुई साइकिल या स्कूटर से चिढ़ता था और उसके पीछे दौड़ पड़ता था और अंत में उसके रुकने पर ही शांत होता था. सो उसी प्रकार यह जीव भी चलते हुए कारखाने, उद्योग और कभी - कभी तो चलते हुए ट्राफिक की गति से भी भड़कता है और बंद का ऐलान कर देता है. गति से चिढ़ने की यही प्रवृत्ति प्रगति वाद के नाम से लोकप्रिय है.
पूर्वजन्म के कर्म सिद्धांत पर इस प्रजाति के लोग श्रद्धा की हद तक विश्वास करते है और मान कर चलते हैं कि ये इस जगत से कुछ लेने या मांगने आये हैं कुछ लौटाने या देने नहीं. इसीलिये झुंड में यह लोग ' देना होगा- देना होगा' या 'हमारी मांगें पूरी करो' नामक मंत्र का सामूहिक रूप से जाप करता दिखायी पड़ता है। कभी-कभी तो इन्हें यह भी नहीं पता होता है कि इन्हें लेना क्या है, लेकिन सच्चे कर्मयोगी की भांति ये तुच्छ वस्तुएँ इन्हें अपने मार्गसे विचलित नहीं करतीं.
इनके दिमाग में यह विचार इंजेक्शन से भर दिया गया है कि इतिहास और साहित्य इनके लिये वह गरीब की जोरू हैं जिससे ये जब चाहे छेड़ सकते हैं और रखैल भी बना सकते हैं. भूतकाल को ये भूत गाली देते हैं, वर्तमान में जीते नहीं और भविष्य बदलने का संकल्प लेकर चलते हैं और उसके न बदलने की सूरत में इतिहास को तोड़ मरोड़ कर बदल डालते हैं. वैसे इस प्रक्रिया में ये लोग कई जगह स्वयं इतिहास बन चुके हैं.
यही हाल यह साहित्य का भी करते हैं. इन्होंने काफीहाउसों में बैठकें करके यह तय कर लिया है कि आम आदमी सिर्फ गाली-गलौज करता है.
जो लिक्खाड़ जितनी गाली गलौज करता है, उतना ही वह जन के नज़दीक, उसके लिये उतनी ही तालियाँ, और इस तरह वह उतना ही बड़ा साहित्यकार माना जाता है.
झुंड में यह विश्वविद्यालयों, मिलों और सरकारी अनुदान से चलने वाले एन.जी.ओ. के आसपास पाये जाते हैं. इस प्रजाति के प्रलुप्त होने के खतरे को भांपकर जे एन यू नामक एक अभयारण्य भी स्थापित किया गया है जहां यह निर्भय होकर विचरते हैं.
लुकाछिपी खेलने में ये माहिर होते हैं जिसमें डेमोक्रेसी को अक्सर चोर बनाया जाता है. डेमोक्रेसी इन्हें ढूंढ़ती रहती है और न ये पकड़ में आते हैं न उसकी पट्टी खोलते हैं। बीच-बीच में आकर कुकू क्लाक वाली चिड़िया की तरह ये डेमोक्रेसी के पास आकर 'चोर-चोर' चिल्लाकर दूर भाग जाते हैं. उसकी पट्टी पांच साल में आकर खोल जाते हैं, फिर दुबारा चोर बनाने से पहले कुछ दिनो तक 'दोस्त-दोस्त' खेलते हैं.
ये बंगाल में १९७७ के चुनावो के बाद से लगे हैं, लगभग उसी साल जब मेरी कुछ पुस्तकों में दीमक लगी थीं.तो फरक यह है कि मेरी किताबों का कुछ अंश नष्ट करने के बाद दीमकों ने चुल्लू भर दवा में डूब कर मोक्ष की प्राप्ति कर ली थी.
गरीबी, बेरोजगारी का वातावरण इनके पनपने के लिये बहुत मुफीद होता है. वैसे इस प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद है क्योंकि कुछ लोगों का मानना है कि इसका उल्टा सत्य है यानी इनका होना गरीबी और बेरोजगारी के लिये उपयुक्त है.
इनके धर्मग्रंथ का नाम दास कैपिटल है जिसमें इनके लिये सब कुछ सोच लिया गया है और उस पर टीका टिप्पणी और व्याख्या का अधिकार इन लोगों ने इस वैश्वीकरण के दौर से बहुत पहले चीन और रूस को आउटसोर्स कर दिया था. इस तरह ये बची हई ऊर्जा का इस्तेमाल गाली - गलौज, हड़ताल, बंद, जुलूस इत्यादि रचनात्मक कार्यों में करते हैं.
वैसे ज्यादातर लोग कह सकते हैं कि क्या करें ऐसे लोगों का, लेकिन हमारी बिनती यही है आपसे कि हो सके तो कुछ कीजिये, वरना ऐसा न हो कि आप बाद में कहें कि पहले क्यों नहीं बताया.
..........लेख समाप्त
9 comments:
पूरे छः महीने बाद भये प्रकट कृपाला, और पहली पोस्ट के साथ ही छा गये। बहुत ही सटीक लिखा है कम्युनिज़्म के बारे में।
छा गये गुरु, तुम तो। सौ सुनार की एक लोहार की वाली बात। लेकिन इ बताओ, इत्ते साल पुरानी भड़ास आज काहे निकाली? पहले क्यों नही। क्या अमरीका मे भी कोई कम्यूनिस्ट टकरा गया क्या? थोड़ा खुलासा करो।
और हाँ तुम्हारा लाइसेन्स का नवीनीकरण ड्यू हो गया है, नवीनीकरण करवा लो, छ: छ: महीने मे लौटेगे तो ऐसा ही होगा। अब नवीनीकरण के लिये ६ लेख तो लिखने ही पड़ेंगे।
धन्यवाद रमण भाई, वैसे ये पोस्ट ६ महीने पहले ही लिखी थी, छापी अब है।
जीतू भाई बडॆ बीहड इंसान है, घुसे नहीं कि टूट पडे राशन पानी लेकर} आये हैं ज़रा सुस्ताने तो दो
वैसे कम्युनिस्ट तो कोई नहीं टकराया, लेकिन दिखाई पडता है कि जहां अपने देश का कुछ भला होना होता है, जाने कहां से ये मनहूस बिगाडने पर तुल जाते हैं, चाहे ये बुश का भारत आगमन हो या कैलिफोर्निया में हिंदुत्व पर बहस हो।
एक चिढ पैदा करने वाले शब्द पर इतना मजेदार लेख - मान गए आपको! बहुत अच्छे तरीके से अपना क्रोध प्रकट कर लिए हो आप.
आज कम्यूनिज्म की हकीकत जान कर तैश आ जाता है लेकिन कभी नागरिक शास्त्र की किताबों मे कितने अच्छे लगते थे दोनो शब्द समाजवाद और साम्यवाद!
समाजवाद की अनैतिक संतान है साम्यवाद.
साम्यवाद की अनैतिक संतान है माओवाद.
वाह! लाईसेंस राज से ले कर बंदूक राज तक की रेंज करव होती है - माओवाद तो लगता है जैसे गुरिल्ला युद्ध का मैनुअल है. साम्यवाद के इन तमाम वर्जन्स को दुनिया की ३० प्रतिशत आबादी अभी भी झेल रही है.
लगता है वामपन्थियों से आपका काफ़ी पुराना बैर है, जो अब सामने आ रहा है। :-) वैसे, लेख बहुत बढिया लिखा है। एक बात और, काटने की इच्छा होने पर जेएनयू के अभयारण्य से निकल कर कभी-कभी टीवी (ख़ासकर एनडीटीवी और एस1) पर बहसों में भी नज़र आते हैं और वहाँ तरह-तरह की आवाज़ें निकाल कर विकट चीत्कार करते हैं, भले ही कोई सुन रहा हो या न सुन रहा हो।
धन्यवाद स्वामी जी और प्रतीक,
ये लोग आधुनिक शकुनि के अवतार हैं. भारत के बाल्कनाइज़ेशन में पूरी तरह लगे पड़े हैं हाथ धोकर, ठीक शकुनि मामा की तरह जो कुरुवंश को तोड़ने में लगे थे.
बुश की यात्रा का बहिष्कार करते हैं ये लोग और १९६२ में चीन युद्ध के समय बाँहें फैलाकर चीन का स्वागत करने को तैयार थे.
सऊदी राजा का तो बहिष्कार नहीं किया इन लोगों ने!
धन्यवाद, एक भोला प्रश्न और,
कौन से गृहराज्य का संदर्भ है यहाँ, तनिक खुलासा करें.
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bahut badia
{please help me. How can I write in Hindi ?)
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